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साहित्य

देश में फासीवाद के लिए ज़मीन तैयार की जा रही है : मंगलेश डबराल

नई दिल्‍ली : ’अन्‍वेषा’ की ओर से यहां आयोजित विचार-गोष्‍ठी में जुटे विभिन्‍न लेखकों-पत्रकारों और संस्‍कृतिकर्मियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि देश में बढ़ते फासीवादी ख़तरे को पीछे धकेलने के लिए आज लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को अभिव्‍यक्ति के सारे ख़तरे उठाकर सामने आना होगा। नरेन्‍द्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही एक तरफ देसी-विदेशी कारपोरेट घरानों के हित में आम अवाम के हितों की बलि चढ़ाई जा रही है और दूसरी तरफ’लव-जिहाद’, ’घरवापसी’ आदि के जरिए लोगों को बाँटने तथा शिक्षा-संस्‍कृति के भगवाकरण के जरिए दिमागों में ज़हर भरने की कोशिशें जारी हैं। इसका व्‍यापक तथा जुझारू प्रतिरोध खड़ा करना होगा।

‘अन्‍वेषा’ की ओर से 13 मार्च की शाम दिल्ली में आयोजित विचार-गोष्‍ठी में जुटे विभिन्‍न लेखकों-पत्रकारों और संस्‍कृतिकर्मियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि देश में बढ़ते फासीवादी ख़तरे को पीछे धकेलने के लिए आज लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को अभिव्‍यक्ति के सारे ख़तरे उठाकर सामने आना होगा।

नई दिल्‍ली : ’अन्‍वेषा’ की ओर से यहां आयोजित विचार-गोष्‍ठी में जुटे विभिन्‍न लेखकों-पत्रकारों और संस्‍कृतिकर्मियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि देश में बढ़ते फासीवादी ख़तरे को पीछे धकेलने के लिए आज लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को अभिव्‍यक्ति के सारे ख़तरे उठाकर सामने आना होगा। नरेन्‍द्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही एक तरफ देसी-विदेशी कारपोरेट घरानों के हित में आम अवाम के हितों की बलि चढ़ाई जा रही है और दूसरी तरफ’लव-जिहाद’, ’घरवापसी’ आदि के जरिए लोगों को बाँटने तथा शिक्षा-संस्‍कृति के भगवाकरण के जरिए दिमागों में ज़हर भरने की कोशिशें जारी हैं। इसका व्‍यापक तथा जुझारू प्रतिरोध खड़ा करना होगा।

‘अन्‍वेषा’ की ओर से 13 मार्च की शाम दिल्ली में आयोजित विचार-गोष्‍ठी में जुटे विभिन्‍न लेखकों-पत्रकारों और संस्‍कृतिकर्मियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि देश में बढ़ते फासीवादी ख़तरे को पीछे धकेलने के लिए आज लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को अभिव्‍यक्ति के सारे ख़तरे उठाकर सामने आना होगा।

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गोष्‍ठी की अध्‍यक्षता कर रहे कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि 1925 से ही देश में फासीवाद के लिए ज़मीन तैयार की जाती रही है और नरेन्‍द्र मोदी की जीत के बाद संघ परिवार को लगने लगा है कि अब उनका समय आ गया है इसलिए उनकी आक्रामकता बढ़ती जा रही है। इसके विरुद्ध सभी वाम और जनपक्षधर लेखकों-कलाकारों का एक व्‍यापक मोर्चा बनाया जाना चाहिए। अब प्रतिरोध की छिटपुट  कार्रवाइयां काफी नहीं हैं। उन्‍होंने कहा कि आज हिन्‍दी के साहित्यिक वातावरण में काफी अराजनीतिकीकरण हुआ है, यह हमारी कमज़ोरी है। दुनियाभर में लेखकों-कलाकारों ने फासीवाद के बर्बर हमले झेलकर भी उसके खिलाफ जो लड़ाई लड़ी है उससे हमें प्रेरणा लेनी होगी।

कवयित्री कात्‍यायनी ने कहा कि पिछले जिन 25 वर्षों के दौरान देश में हिन्‍दुत्‍ववादी कट्टरपंथ और उसीसे होड़ करते इस्‍लामी कट्टरपंथ का उभार हुआ है उन्‍हीं वर्षों के दौरान नवउदारवादी आर्थिक नीतियां भी परवान चढ़ी हैं, यह महज़ संयोग नहीं है। पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के आर्थिक संकट के कारण बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, अराजकता और भ्रष्‍टाचार से तबाह-परेशान आम जनता के सामने एक काल्‍पनिक शत्रु खड़ा करके और समस्‍याओं का एक फर्जी सरल समाधान प्रस्‍तुत करके फासिस्‍ट शक्तियां जनता में अपना आधार बढ़ाने में कामयाब हुई हैं। इनका मुकाबला करने के लिए हमें भी व्‍यापक अवाम के बीच जाकर इनके असली चेहरे का पर्दाफाश करना होगा, केवल महानगरों में और मध्‍य वर्ग के बीच रस्‍मी विरोध कार्रवाइयों से काम नहीं चलेगा और न ही सर्वधर्म समभाव की ज़मीन पर खड़ा होकर इनका सामाजिक आधार कमज़ोर  किया जा सकता है। हमें फासीवाद की एक सही वैचारिक समझ बनानी होगी और यह समझना होगा कि दुनिया में पहले कहर बरपा कर चुके फासीवाद और आज हमारे सामने मौजूद फासीवाद के बीच क्‍या समानताएं हैं और क्‍या भिन्‍नताएं हैं। हमें समझना होगा कि अतीत की ’पॉपुलर फ्रंट’ की रणनीति आज नहीं चल सकगी क्‍योंकि बुर्जुआ वर्ग का आज कोई भी हिस्‍सा ऐसा नहीं है जो फासीवाद के विरुद्ध लम्‍बी लड़ाई में हमारे साथ खड़ा होगा। फासीवाद की पूरी परिघटना को समझने के लिए मौजूद मार्क्‍सवादी लेखन के साथ ही हमें इसके सांस्‍कृतिक प्रतिरोध के वैचारिक पहलुओं पर अपनी नज़र साफ करने के लिए विशेषकर बर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट, वाल्‍टर बेन्‍यामिन, अन्‍र्स्‍ट ब्‍लोख और अदोर्नो की रचनाओं को पढ़ना चाहिए।

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आलोचक वैभव सिंह ने कहा कि भारत का चुनावी लोकतंत्र फासिस्‍ट शक्तियों के उभार के लिए लगातार जमीन मज़बूत करता रहा है। आज इनके विरुद्ध सामूहिक लड़ाई लड़ने और एक-दूसरे की प्रतिबद्धता की रक्षा करने की ज़रूरत है। लेखकों-बुद्धिजीवियों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि जो कम राजनीतिक या कम मुखर होंगे वे फासिस्‍ट शक्तियों के हमलों से बच जायेंगे।

पत्रकार  अभिषेक श्रीवास्‍तव ने कहा कि हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि फासीवादी ताक़तें किन कारणों से भारत में आबादी के एक बड़े हिस्‍से को अपने पक्ष में बहा ले जाने में सफल हो गईं। वित्तीय पूंजी के संकट से फासीवादी उभार के रिश्‍ते तथा फासीवाद की राजनीति संस्‍कृति को बेहतर ढंग से समझकर ही इसके विरुद्ध असरदार लड़ाई संगठित की जा सकती है।

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पत्रकार पाणिनी आनन्‍द  ने कहा कि आज सत्तासीन फासिस्‍ट शक्तियों द्वारा उनके विरोध में खड़े लोगों को पथभ्रष्‍ट करने,भटकाने, खरीद लेने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। हमें जनता पर होने वाले हमलों को रोकने पर ही नहीं, खुद हमारे बीच पैदा हो रही कमज़ोरी और अवसरवाद पर भी ध्‍यान देना होगा और एक स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा खींचनी होगी।

गोष्‍ठी का विषय प्रवर्तन करते हुए ’अन्‍वेषा’ की संयोजक  कविता कृष्‍णपल्‍लवी ने कहा कि आज फासिज़्म का नया उभार पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक के फासिज़्म का दुहराव नहीं है। आज पूंजीवाद लगातार थोड़ा उबरते और फिर डूबते हुए दीर्घकालिक मन्‍दी के जिस दौर से गुज़र रहा है, ऐसे में बुर्जुआ जनवाद और नग्‍न धुर दक्षिणपंथी बुर्जुआ तानाशाही के बीच की विभाजक रेखा कुछ धूमिल पड़ गई है और अमेरिका जैसे उन्‍नत तथा भारत जैसे पिछड़े बुर्जुआ समाज तक फासिस्‍ट संगठनों और फासिस्‍ट आन्‍दोलनों के फलने-फूलने के लिए अधिकाधिक उर्वर होते चले गये हैं। हिन्‍दुत्‍ववादी ताकतों को पीछे धकेलने का सवाल चुनावी हार-जीत का सवाल नहीं है। यह एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन है जिसे कैडर-आधारित फासिस्‍ट सांगठनिक तंत्र के जरिए खड़ा किया गया है। इसके विरुद्ध लड़ाई लम्‍बी होगी। हमें जनता के बीच नियमित सांस्‍कृतिक गतिविधि‍यों, वैकल्पिक सांस्‍कृतिक संस्‍थाओं और विभिन्‍न कला माध्‍यमों के जरिए संस्‍कृति के मोर्चे पर इनका मुकाबला करना होगा और अनुष्‍ठानधर्मी, रक्षात्‍मक रुख को छोड़ना होगा।

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आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि भारत में फासीवाद का मौजूदा उभार केवल कारपोरेट पूंजी के संकट को ही नहीं , बल्कि सामाजिक और लैंगिक न्याय के उठते हुए संघर्षों के कारण शासक वर्गों के ऊपर घिर रहे संकटों को भी मैनेज करने के लिए लाया गया एक फौरी समाधान है। उन्हें जो कामयाबी मिली है उसकी मुख्य वजह वर्ग संघर्ष तथा सामाजिक और लैंगिक न्याय के संघर्षों का एकजुट न हो पाना है। फासीवाद को परास्त करने के लिए इन तीन तरह के आंदोलनों का संयुक्त मोर्चा जरूरी है। चुनौती यह है कि ऐसे किसी मोर्चे का सैद्धांतिक आधार क्या होगा।

कवि रंजीत वर्मा ने कहा कि मुसो‍लिनी ने कहा था कि फासीवाद कारपोरेट पूंजी और सत्‍ता के गठजोड़ का परिणाम है। यह बात नरेन्‍द्र मोदी के सत्‍ता में आने के बाद एकदम नग्‍न रूप में हमारे सामने दिखायी दे रही है। इन्‍हीं के हित साधने के लिए आज धर्म, जाति, क्षेत्र के नाम पर जनता को एक-दूसरे से अलग कर देने की कोशिशें तेज होती जा रही हैं, हमें इनके विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा होना होगा।

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पत्रकार अमलेन्‍दु उपाध्‍याय  ने कहा कि हमें अस्मिता की राजनीति को फासीवाद के मौजूद उभार के साथ जोड़कर देखना होगा। वास्‍तव में अस्मिता की राजनीति की पीठ पर चढ़कर ही भारत में हिन्‍दुत्‍ववादी राजनीति ने अपनी जगह बनाई है। आज मोदी सरकार के भूमि हड़पो कानून का विरोध करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्‍तर प्रदेश में मायावती सरकार ने उद्योगपतियों और बिल्‍डरों के  लिए किसानों की ज़मीनें छीनने के लिए क्‍या-क्‍या किया था।

मध्‍यप्रदेश से आये विनीत तिवारी ने फासीवाद के विरोध में एक व्‍यापक मोर्चा बनाने पर बल दिया। उन्‍होंने हाल में महाराष्‍ट्र में गोविन्‍द पानसरे की हत्‍या और उसके व्‍यापक विरोध का ज़ि‍क्र करते हुए कहा कि फासीवाद का विरोध खड़ा करने में टोकेनिज़्म से काम नहीं चलेगा, हमें जुझारू संघर्ष की एक साझा सांस्‍कृतिक रणनीति बनानी होगी।

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‘अन्‍वेषा ‘ की संयोजन समिति के सदस्‍य आनन्‍द सिंह ने फासीवाद के उभार के इतिहास की चर्चा करते हुए कहा कि वित्तीय पूंजी का संकट और मुनाफे की गिरती दर पूंजीपति वर्ग को एक निरंकुश सत्‍ता का विकल्‍प आज़माने पर बाध्‍य करता रहा है जो हर विरोध को कुचलकर उसके हितों की सुरक्षा कर सके। भारत में मोदी सरकार के सत्‍ता में आने को इस संकट से जोड़कर ही देखने की ज़रूरत है। अगर फासीवाद के विरुद्ध एक मज़बूत लड़ाई लड़नी है तो हमें इसके वैचारिक पहलुओं पर भी स्‍पष्‍ट नज़रिया अपनाना होगा। फासीवाद के सवाल पर मार्क्‍सवादी नज़रिये से विपुल लेखन मौजूद है जिसके अध्‍ययन से हमें सही रणनीति बनाने में मदद मिलेगी। हमें ग्राम्‍शी, तोगलियाती, दिमित्रोव, लुकाच, क्‍लारा ज़ेटकिन, रैबिन बाख, कुहनल,गॉसवीलर, माइकल कालेकी, टिम मेसन आदि की फासीवाद पर रचनाओं को ज़रूर पढ़ना होगा।

जेएनयू की लता कुमारी ने लातिनी अमेरिका में तानाशाही सत्‍ताओं के विरुद्ध कवियों-कलाकारों के जुझारू संघर्षके अनेक उदाहरण प्रस्‍तुत करते हुए भारत में भी इसी प्रकार जनता से जुड़ा हुआ मज़बूत सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन खड़ा करने की ज़रूरत बताई। गाजियाबाद से आये सुदीप साहू ने भी विचार व्‍यक्‍त किए।

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संगोष्‍ठी का संचालन कर रहे सत्‍यम  ने कहा कि पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का संकट आज ग्रीस, यूक्रेन, इटली और अमेरिका सहित दुनिया के अनेक मुल्‍कों में नवफासिस्‍ट राजनीतिक शक्तियों और बोको हरम, आईएस तथा हिन्‍दुत्‍ववादी गुंडा गिरोहों जैसी ताकतों के उभार का कारण बन रहा है। भारत में भी यह संकट गहराते जाने के साथ इन शक्तियों का उत्‍पात बढ़ता जायेगा।

संगोष्‍ठी में वरिष्‍ठ कवि व पत्रकार विष्‍णु नागर, जन संस्‍कृति मंच के रामजी राय, आर. चेतनक्रान्ति, नित्‍यानन्‍द गायेन सहित अनेक युवा संस्‍कृतिकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। अध्‍यक्ष मण्‍डल में मंगलेश डबराल, कात्‍यायनी, रंजीत वर्मा तथा अभिषेक श्रीवास्‍तव शामिल थे।

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(हस्तक्षेप से साभार)

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