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इन चुनाव परिणामों को कैसे देखें बहुजन?

फारवर्ड प्रेस के ताजा अंक की कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि का यह लेख मुख्‍य रूप से भारत के बहुजनों को संबोधित है। श्री मणि हिंदी के प्रमुख चिंतकों में गिने जाते हैं। उनकी पहचान उत्‍तर भारत में समाजिक न्‍याय की राजनीति के एक प्रमुख रणनीतिकार की भी रही है।  उनका यह विरोत्‍तेजक लेख भारतीय राजनीति के कई ऐसे पहलुओं को केंद्र में लाता है, जिन पर हिंदी का बौद्धिक तबका प्राय: बात करने से बचता है। हम चाहेंगे कि आपके वेव पोर्टल के माध्‍यम से भी यह बहस आगे बढे.

– प्रमोद रंजन,  संपादक, फारवर्ड प्रेस

<p>फारवर्ड प्रेस के ताजा अंक की कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि का यह लेख मुख्‍य रूप से भारत के बहुजनों को संबोधित है। श्री मणि हिंदी के प्रमुख चिंतकों में गिने जाते हैं। उनकी पहचान उत्‍तर भारत में समाजिक न्‍याय की राजनीति के एक प्रमुख रणनीतिकार की भी रही है।  उनका यह विरोत्‍तेजक लेख भारतीय राजनीति के कई ऐसे पहलुओं को केंद्र में लाता है, जिन पर हिंदी का बौद्धिक तबका प्राय: बात करने से बचता है। हम चाहेंगे कि आपके वेव पोर्टल के माध्‍यम से भी यह बहस आगे बढे.</p> <p>- प्रमोद रंजन,  संपादक, फारवर्ड प्रेस</p>

फारवर्ड प्रेस के ताजा अंक की कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि का यह लेख मुख्‍य रूप से भारत के बहुजनों को संबोधित है। श्री मणि हिंदी के प्रमुख चिंतकों में गिने जाते हैं। उनकी पहचान उत्‍तर भारत में समाजिक न्‍याय की राजनीति के एक प्रमुख रणनीतिकार की भी रही है।  उनका यह विरोत्‍तेजक लेख भारतीय राजनीति के कई ऐसे पहलुओं को केंद्र में लाता है, जिन पर हिंदी का बौद्धिक तबका प्राय: बात करने से बचता है। हम चाहेंगे कि आपके वेव पोर्टल के माध्‍यम से भी यह बहस आगे बढे.

– प्रमोद रंजन,  संपादक, फारवर्ड प्रेस

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इन चुनाव परिणामों को कैसे देखें बहुजन?

-प्रेमकुमार मणि

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लोकसभा के पिछले चुनाव ने भारतीय राजनीति की कई ग्रंथियों को तोड़ दिया। इसमें सबसे प्रमुख है सेकुलरवाद का, जो एक हौव्वा के तौर पर खड़ा था और सच पूछिए तो उसकी आरती उतारना एक राजनीतिक कर्मकांड बन गया था। सेकुलरवाद के उदात्त मूल्यों की जरूरत एक स्वस्थ जनतंत्र को हमेशा रहेगी, लेकिन जिस तरह का झूठा सेकुलरवाद हमारे देश में चल रहा था, उसका पाखंड टूटने पर शायद ही किसी को अफसोस हुआ हो, सिवा उनके जो इसकी दुकानें चला रहे थे। उत्तर भारत में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद इसके पुराने व्यापारी थे और साल भर पहले इस दुकानदारी में नीतीश भी कूद पड़े थे। अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस इस कारोबार में लगी थी।

दरअसल ये सेकुलरवाद एक विचारधारा से अधिक मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में करने का एक घटिया जरिया बन गया था और इसके निरंतर हो रहे राजनीतिकरण ने इसे इतना विकृत कर दिया था कि यह अपना मूल अर्थ ही खो बैठा था। सेकुलर भाव-विचार हमें आधुनिकता की ओर अग्रसर करते हैं। नेहरु-आम्बेडकर की वैचारिकी आदर्श सेकुलर वैचारिकी है और इससे हम आज भी सीखना चाहते हैं। लेकिन जो नेता खुद अपने भाव-विचारों में आधुनिक सोच का नहीं है, वह किस तरह सेकुलर हो सकता है? लालू प्रसाद या मुलायम सिंह यादव के सेकुलर होने के क्या आधार हैं ? लेकिन सेकुलर-राजनीति का प्रसाद तो यही बांट रहे थे। इसी पर इनकी राजनीतिक दुकानें भी चल रही थीं। इन्होंने अपने भाषणों, बयानों और कार्यकलापों से मुसलमानों को मानसिक तौर पर और पिछड़ा बनाया। इनका ध्यान उनके बीच जज्बाती ख्याल उभारने पर ज्यादा होता था, क्योंकि इसी से उनके वोट इन्हें आसानी से मिल सकते थे। बौद्धिक सेकुलरवादियों ने भी मुसलमानों के बीच सामाजिक जागरण या सुधार भाव जाग्रत करने का प्रयास नहीं किया। उन लोगों ने भी कबीर से अधिक अकबर व दाराशिकोह की वैचारिकी को रेखांकित किया। मुसलमानों के एक खास तबके के लिए ऐसे सेकुलर विचार बहुत काम के थे। यह तबका था मुसलमानों का उच्च तबका। दरअसल इस तबके ने इस सेकुलरवाद को मुसलमानों के दस्तकार-कामगार तबके को अपनी पकड़ में रखने का माध्यम बनाया। इसके द्वारा उन्हें बुनियादी जरूरतों की अनदेखी करने के लिए मजबूर किया गया। उन्हें भय और असुरक्षा के ख्यालों के बीच रखा गया। इससे एक तरफ आतंकवाद को बल मिला तो दूसरी तरफ मुस्लिम ब्राह्मणवाद अर्थात मुल्लावाद को। सेकुलरवादी राजनीति ने मुसलमानों के माली और तालीमी हालात पर कम से कम विचार किया। उनका ज्यादा ध्यान उनके विचित्र से लगने वाले पहनावे, उनकी मध्ययुगीन भाषा अरबी-फारसी, उनके कब्रिस्तानों के रखरखाव और हज यात्राओं पर अधिक सुविधा देने पर लगाया गया। डॉ. आम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरु और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने जिस समान नागरिक संहिता की वकालत की थी, उसे ठंडे बस्ते में डालना सेकुलर राजनीति का सर्वप्रमुख एजेंडा बन गया। इस सेकुलर राजनीति के तहत मुसलमानों के बीच से अपराधी और नालायक तत्वों को आगे किया गया। बिहार में लालू प्रसाद और एक समय रामविलास पासवान ने भी ओसामा बिन लादेन की एक हमशक्ल को साथ लेकर चुनावी सभाएं कीं। ऐसी कितनी मूर्खताएं हुईं, इसका हिसाब लगाना बहुत आसान नहीं होगा।

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बहुजन चुनाव परिणामों को कैसे देखें ?

पिछले चुनाव ने अपने स्पष्ट बहुमत से झूठे सेकुलरिज्म की पूरी बिसात को ध्वस्त कर दिया है। मैं समझता हूं, यह भारतीय राजनीति के लिए अच्छा ही हुआ है। मुसलमानों के उस बहुजन समुदाय के लिए भी यह अच्छा है, जो आधुनिक अर्थों में मुस्लिम ओबीसी हैं। यदि मुस्लिम अपर कास्ट अपना माथा पीटते हैं तो उन्हें ऐसा करने दिया जाना चाहिए।

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मुझसे मित्रों ने सवाल पूछे हैं कि इस चुनावी नतीजे को बहुजन किस नजरिए से देखें। मेरा उत्तर बहुत साफ है। हमें खुश होना चाहिए, क्योंकि यह नतीजा बिना हमारी स्वीकृति के नहीं आया है। आपकी पत्रिका (फारवर्ड प्रेस) ने पिछले अंक में जो आंकड़े प्रकाशित किए हैं, वह यही बतलाते हैं। यदि नरेंन्द्र मोदी ने अपने को गरीब, पिछड़ा और चायवाला बतलाया, तब पूरे भारत के कामगार किसानों व दस्तकारों ने इसकी नोटिस ली। यदि भाजपा बदल सकती है तो हम भी बदल सकते हैं, इस भाव को उजागर किया। आज भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला है तो इसमें सबसे बड़ी भूमिका भारत की पिछड़ी-दलित जनता की है। यह हमारी जीत है। हमें इसे इस रूप में ही स्वीकारना चाहिए।

लेकिन हम यहां इस विषय पर जरूर विचार करें कि हमने अपने पुराने नायकों को क्यों ध्वस्त कर दिया। नायकों और उनके कार्यकलापों का बारीकी से विश्लेषण कीजिए। वे अपने विचारों के साथ हमें किस दुनिया की ओर ले जा रहे थे। न उनके पास कोई वैज्ञानिक, सामाजिक-आर्थिक नजरिया था, न ही उच्च नैतिकता। सामाजिक न्याय का साइनबोर्ड लगाकर वे अपने निहित स्वार्थों को पाल-पोस रहे थे। मुलायम सिंह यादव ने पूरे परिवार को राजनीति के कारोबार में ला खड़ा किया, तो मायावती दोनों हाथों से पैसा बटोरने में मस्त थीं। लालू पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद कुछ ज्यादा ही सवार था। नए सेकुलर नीतीश कुछ हास्यास्पद तरीके से प्याज खा रहे थे। और समवेत स्वर था तो मोदी विरोध का। कुछ ऐसा ही स्वर 1971 में पूरे विपक्ष का इंदिरा विरोध का था। उनका नारा ही था इंदिरा हटाओ। हालांकि तब पूरे विपक्ष ने मिलकर एक महागठबंधन (ग्रैंड अलायंस) बनाया था, जिसमें मूल कांग्रेसी, जनसंघ (भाजपा का पुराना अवतार) और समाजवादी शामिल थे। इस बार तो ऐसी कोई राजनीति भी नहीं थी। हां नारा जरूर था मोदी हटाओ का। तब इंदिरा गांधी ने विपक्षियों के इंदिरा हटाओ के जवाब में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। इस बार मोदी ने अपनी धुआंधार रैलियों से जनता से सीधा संवाद किया और ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारतÓ का नारा दिया। न केवल नई पीढी को, बल्कि भारतीय जनता की एक विशाल आबादी को प्रभावित करने में मोदी सफल हुए। उन्होंने जो ओबीसी कार्ड खेला, उसका जादू भी चल गया। लगभग पूरे भारत के दलित-पिछड़ों ने इस नए नायक में एक उम्मीद देखी। उसने नरेन्द्र मोदी को वोट किया, भारतीय जनता पाटी को नहीं। यह चुनावी जीत नरेन्द्र मोदी की जीत है, भारतीय जनता पार्टी की नहीं। जैसे 1971 की जीत इंदिरा गांधी की जीत थी, कांग्रेस की नहीं। मूल कांग्रेस को तो इंदिरा गांधी ने पहले ही धूल चटा दी थी, जैसे इस दफा मूल भाजपा को नरेन्द्र मोदी ने पहले ही धूल चटा दी। यदि आरएसएस न होती तो आडवाणी-सुषमा बगैरह के नेतृत्व में इस बार भाजपा भी चुनाव के पहले दो टूक हो जाती।

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क्या मोदी अपनी विजय के निहितार्थ समझते हैं?

लेकिन अब नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व में भाजपा इस पूरे बदलाव को किस रूप में ग्रहण करती है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न होगा। लेकिन इसका उत्तर तो मोदी ही दे सकेंगे। उन वोटरों को उन्हें विश्वास में लेना होगा, जिन्होंने ‘अबकी बार मोदी सरकार’ के नारे को वोट किया है। जिनका वोट भाजपा को नहीं उस नरेन्द्र मोदी को गया है जो चायवाला और गरीब आबीसी है। यदि मोदी और उनकी पार्टी ने उनकी भावनाओं को नहीं समझा और अपनी पार्टी को नहीं बदला, तब अगली बार जनता उन्हें बदल देगी। भारतीय जनता पार्टी स्वयं मोदी के शब्दों में ब्राह्मण-बनियों की पार्टी थी। और अब फिर मोदी के ही शब्द हैं-आने वाला समय दलित-पिछड़ों का होगा।

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भारत की दलित-पिछड़ी जनता संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं रखती। वह तो मेहनत-मजदूरी करती है, कास्तकारी और दस्तकारी करती है। उसने अपने कर्म और अपनी जाति को स्वयं ही नीच घोषित नहीं किया है। इसे नीच घोषित करने वाले अन्य थे। पुराने जमाने में इन्हीं तथाकथित नीच जाति के लोगों ने सांस्कृतिक आंदोलनों को गति दी और उच्च आध्यात्मिकता के आदर्श स्थापित किए। इन्होंने अपने बीच से संत पैदा किए। कबीर, रैदास, सेना, नाई, गोरा सबके सब इन्हीं नीच जातियों से आए थे। एक महत्वपूर्ण आधुनिक कवि मुक्तिबोध ने 1955 में ही सवाल खड़ा किया था-आखिर जब इन्हीं जातियों से पुराने जमाने में संत आ सकते थे, आगे चलकर सेनाध्यक्ष निकल सकते थे, तो अब राजनैतिक नेता और विचारक क्यों नहीं निकल सकते ?

लेकिन इसका जवाब भी मुक्तिबोध ही देते हैं। सीधे उन्हीं को देखना अच्छा होगा-जन संतों ने परोक्ष रूप से महाराष्ट्र को जाग्रत और सचेत किया। रामदास और शिवाजी ने प्रत्यक्ष रूप से नवीन राष्ट्रीय जाति को जन्म दिया। किंतु तब तक ब्राह्मणवादियों अैर जनता के वर्ग से आए हुए प्रभावशाली सेनाध्यक्षों और संतों द्वारा एक-दूसरे के लिए काफी उदारता बतलायी जाने लगी। शिवाजी के उपरांत, जनता के गरीब वर्गों से आए हुए सेनाध्यक्षों और नेताओं ने नए सामंती घराने स्थापित किए। नतीजा यह हुआ कि पेशवाओं के काल में ब्राह्मणवाद फिर जोरदार हो गया। महाराष्ट्र में वही हाल हुआ जो उत्तर प्रदेश में। महाराष्ट्र में निम्न जातीय सांस्कृतिक चेतना जिसे पल-पल पर कट्टरपंथ से मुकाबला करना पड़ा था, वह उत्तर भारत से अधिक दीर्घकाल तक रही। अंग्रेजी राजनीति के जमाने में ब्राह्मण-ब्राह्मणेत्तरवाद का पुनर्जन्म और विकास हुआ। और इस समय भी लगभग वही स्थिति है। फर्क इतना ही है कि निम्न जातियों के पिछड़े हुए लोग शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (और इस समय इसी तरह की कुछ अन्य पार्टियों-मणि) में है और अग्रगामी लोग कांग्रेस, पेजेन्ट्स एंड वर्कर्स पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी दलों में शामिल हो गए हैं।

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मुक्तिबोध ने 1955 में यानी आज से लगभग साठ साल पहले जिस गुत्थी को ध्यानपूर्वक समझा था, भारत की बहुजन जनता अब जाकर आंशिक रूप से ही सही, उसे समझ सकी है। सामाजिक न्याय संवर्ग के जिन नेताओं ने शिवाजी के वंशजों की तरह सामंती राजनीतिक घराने स्थापित किए उसे इस बार जनता ने एकबारगी ध्वस्त कर दिए। मायावती हों या मुलायम या लालू हों या नीतीश ने जो अराजकता और अनैतिकता खड़ी की थी, भ्रष्टाचार और कुनबावाद का घिनौना कृत्य किया था, जनता ने किनारे लगा दिया है।

इन सबमें नीतीश थोड़ा भिन्न दिखते हैं, लेकिन उनकी जिम्मेवारी कम नहीं होती। यह ठीक है कि उन पर आर्थिक किस्म के अपराध चस्पां नहीं हुए लेकिन वैचारिक दारिद्रय इस बीच सबसे अधिक उनमें ही प्रकट हुए। वह लंपट प्रवृत्ति के कागजी बुद्धिजीवियों से घिरते गए, जो अपने वास्तविक रूप में दरअसल राजनीतिक चापलूस थे। इनकी चापलूसी उन्हें प्रिय लगने लगी। उन्होंने मायावती स्टाइल का सवर्णवाद और लालू स्टाइल का सेकुलरवाद एक साथ मिलाया और अपने हिसाब से एक राजनीतिक कॉकटेल बनाना चाहा। लेकिन यह चला नहीं। वह तो भाजपा के साथ थे और वहां रहकर सामाजिक न्याय के हितों की बेहतर पहरेदारी कर सकते थे। किसी समय वह नरेन्द्र मोदी के घनघोर प्रशंसक थे, खासकर उनकी उच्च नैतिकता और ओबीसी स्वरूप के। लेकिन उनके चापलूसों ने उन्हें सालभर पहले सेकुलर पॉलिटिक्स के थर्ड फ्रंट में धकेल दिया, जो दरअसल थर्ड क्लास फ्रंट था। उन्होंने 2010 के जून में पटना आए नरेन्द्र मोदी को अपने आवास पर भोजन के लिए आमंत्रित कर आने से मना कर दिया। केवल इसलिए कि उन्हें मुस्लिमपरस्त मान लिया जाए। लालू आडवाणी का रथ रोक सकते हैं, तो हम मोदी का नाश्ता रोक सकते हैं। किसी को अपमानित करने की ऐसी मूर्खतापूर्ण हरकत को किसी ने अच्छा नहीं माना। 2013 में डाह में डूबे नीतीश ने मोदी की पटना रैली में उन पर जानलेवा हमले की साजिश होने दी। लेकिन इन सबके बावजूद किसी ने उन्हें सेकुलर नहीं माना। अपने मुंह अपनी प्रशंसा करते रहे। कभी संजीदा और दूरदर्शी दिखने वाले इस ओबीसी नेता के दर्दनाक पतन के लिए उनकी अहंकारपूर्ण मूर्खताएं जिम्मेदार हैं।

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बहुजन क्या करें?

लंबे समय से भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति का विरोध कर रही दलित-पिछड़ी जनता ने नरेन्द्र मोदी को अपना बहुमत वोट तो दे दिया है लेकिन चुनावी नतीजों ने उसे उलझन में डाल दिया है। मैं कहूंगा, उन्हें उलझन से बाहर आना चाहिए और इस चुनावी जीत को अपनी जीत के रूप में स्वीकारना चाहिए, क्योंकि बिना उनके सहयोग के यह जीत संभव नहीं थी। हां उन्हें मोदी पर नजर रखनी चाहिए। भाजपा में राजनीतिक अंतर्कलह खड़ा होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। बहुजनों (दलित-पिछड़े) के मिले वोट के साथ भाजपा को संगत करनी होगी। इस संगत के लिए उसे आांतरिक रूप से बदलना होगा। अटल-आडवाणी के नेतृत्व वाली हिंदुत्ववादी-दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बहुजनवादी समत्ववादी स्वरूप लेती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन वह यदि एक बार फिर हिंदुत्ववादी-दक्षिणपंथी मोड़ लेती है तो विरोध के लिए उन्हें उठ खड़ा होना चाहिए।
लेकिन प्रश्न यह भी उठता है कि भाजपा के लिए अपने को वैचारिक रूप से बदलना क्या इतना आसान होगा ? उनकी विचारधारा सावरकर-हेडगेवार की विचारधारा है। बहुजनों की स्वाभाविक विचारधारा फुले-आम्बेेडकरवाद है। दोनों के बीच विरोधाभासी तत्व अनेक हैं। इसका कारण है दोनों विचारधाराएं दो परस्पर विरोधी वर्गों की हैं। किसी वर्ग की विचारधारा से उस वर्ग के निहीत स्वार्थों का नाभि-नाल संबंध होता है। इसलिए पहले ही मैंने आशंका व्यक्त की है कि भाजपा स्वयं को बदल पाएगी कि नहीं। यदि वह सावरकर-हेडगेवार की वैचारिकी से ऊपर उठती है और व्यापक राष्ट्रीय संदर्भों में फुले-आम्बेडकरवाद से खुद को जोड़ती है, तब उसे और पूरे राष्ट्र को इसका लाभ मिलेगा। इसमें कठिनाइयां आ सकती हैं, लेकिन ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं होगा। फुले-आम्बेडकरवाद में सन्निहित ब्राह्मणवाद विरोध और सत्यसंधान अर्थात् वैज्ञानिक चेतना के भाव भाजपा को वैचारिक रूप से मजबूत बनाएंगे। सावरकर स्वयं जाति व्यवस्था और छुआछूत के सख्त विरोधी थे। वह एक मजबूत राष्ट्र के हिमायती थे और अपने ख्याल से भारतीय विचारों की एक मनका तैयार कर रहे थे, जिसका नाम उन्होंने हिंदुत्व रखा था। उनके कुछ विचारवान मूल्यों से सीखने में किसी को क्यों परेशानी होगी। लेकिन भाजपा यदि उसे अपनी वैचारिकी की सीमारेखा बनाएगी तब यह चलेगा नहीं।

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राजनीतिक सत्ता अब भाजपा के हाथ में है। अब प्रस्तावक उसे बनना है। मध्यकाल में अकबर के नेतृत्व में मुगल-मुस्लिम सामंतों और हिंदू सामंतों का एक राजनीतिक गठजोड़ हुआ था। इस गठजोड़ ने दस्तकार-किसान हिंदू मुसलमानों के सांस्कृतिक (भक्ति) आंदोलन को कुचल दिया था। आज भी धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले इतिहासकार और समाजविज्ञानी अकबर को महान कहते हैं। बीसवीं सदी के हमारे राष्ट्रीय आंदोलन ने भी इस गुत्थी को ठीक से नहीं समझा और स्वतंत्र कहे जाने वाले भारत में जिस सेकुलर राजनीति की पौध लगी वह अकबरनीत असराफ मुसलमानों और सवर्ण हिंदुओं का गठजोड़ बनकर रह गई। आज की सेकुलर राजनीति भी उसी आधार पर चल रही है। यह सिर के बल खड़ी है। मार्क्स के शब्दों को उधार लेकर कहें तो इसे पैर के बल खड़ा करने की जरूरत है। सभी धर्म-संप्रदायों के दलित-पिछड़े और शोषित तबके चाहे वे किसान-मजदूर हों, या महिलाएं या दलित-आदिवासी एक साथ आएं और उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप एक नए भारत का निर्माण हों, यही और अब सच्चे अर्थों में ‘एक भारत और श्रेष्ठ भारत’ होगा। यही फुले-आम्बेडकर का मूल स्वप्न था।

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व राजनीतिकर्मी हैं।

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फारवड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक से साभार

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