आवाज नहीं, अपनी हद में रहो…!
सुना नहीं तुमने, अपनी हद में रहो। कुछ पता भी है? हर मामले में, तुम्हारा बोलना जरूरी क्यों है? आखिर जानती क्या हो? बेहतर है, तुम चुप ही रहो। जब सलाह मांगी जाए, तभी कुछ कहना। घर के काम देखो और बच्चों को संभालो। ज्यादा दिमाग चलाने की जरूरत नहीं। बाहर की दुनिया में क्या चल रहा है, ये तुम क्या जानो। हमें निपटने दो।
(सही है… आप ही निपटें। मैं भला क्या जान सकती हूँ। हर बार दहलीज पार करने से रोकना और फिर समझ न होने के ताने देना। सही है, सब सही है।)
बेटियां कमजोर होती हैं, उन्हें घर की चारदीवारी में ही रहना चाहिए। बाहर निकली तो मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा।
पर क्यों? खेलने का मन करे तो बेटों की तरह बेटियां मैदान में जाकर क्यों नहीं खेल सकतीं? जरूरी तो नहीं कि गुड्डे-गुड़ियों से ही उसका मन बहल जाए। वह भी मैदान में खेलना चाह सकती हैं। सहेलियों के साथ खिलखिलाना चाहती हैं। गलियों में बेखौफ होकर दौड़ना चाहती हैं। पर नहीं, वो ऐसा नहीं कर सकती। क्यों? अरे बुरी नजरें उसका पीछा करेंगी। मनचलों से उन्हें कौन बचाएगा। क्या पता, बच्ची खेल रही हो और कोई उसे चुपके से गायब कर दे।
(पर ये बुरी नज़रें किसकी हैं? कौन उठा ले जाएगा? दूसरी दुनिया का कोई? या वह आप ही लोगों में से कोई होगा?)
चलो, खेल नहीं सकती। पढ़ने तो दो। हाँ, क्यों नहीं। पढ़ाओ, बिल्कुल पढ़ाओ। पर हाँ, सुनो। देखना, ट्यूटर कोई लेडी हो तो ठीक रहेगा। अगर पुरुष हो, तो कहना घर पर आकर पढ़ा जाए। घर में तुम उसे अपनी निगरानी में भी रख सकोगी।
(पुरुष… आप भी तो पुरुष हैं। तो आपको खुद भी पुरुषों पर भरोसा नहीं है। क्यों? आखिर क्यों?)
स्कूल जाने के लिए वैन करना होगा। इतनी दूर पैदल तो नहीं जाएगी। पता कर लेना वैन वाले का स्वभाव कैसा है। बेटियां महफूज घर वापस तो आ जाएंगी न?
स्कूल से बच्चों को पिकनिक के लिए, दो दिन के लिए बाहर ले जाने का पत्र आया है। कोई जरूरत नहीं, कहीं भेजने की। इतने बच्चों का ध्यान वे क्या रखेंगे, घर में एक बच्चा तो संभलता नहीं।…
रिजल्ट आ गया है, अव्वल नंबर से पास हुई है बिटिया। आखिर बेटी किसकी है। वह इंजीनियरिंग पढ़ना चाहती है। दूसरे शहर जाने की जिद कर रही है। दिमाग सही है? जानती नहीं। इंजीनियरिंग कालेजों में कितनी रैगिंग करते हैं। बेटी जान से भी जाएगी। बेहतर है, अपने ही शहर में किसी कोर्स में दाखिला ले कर पढ़ाई पूरी कर ले।
(बेहतर है अपने सपनों को कुचलना सीखे।)
और कितना पढ़ना है? और पढ़ कर करना भी क्या है? शादी कर लो, कौन सा तुम्हें कमाने बाहर जाना है? घर में ही रहना है। फिर क्यों इतनी मशक्कत करना? खाते-पीते घर में यूं ही नहीं ब्याह रहे। फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं। आराम से रहेगी बिटिया।
(वाह! क्या कहने। इतनी चिंता और इतना यकीन कि बेटी का भविष्य अच्छे घर जाकर सुधर जाएगा।)
बहू जल्दी से नाश्ता लगा दो। कपड़े तो इस्त्री कर दिए हैं। लंच पैक कर देना। रात को खाने में क्या बना रही हो? अरे क्या हुआ, बीमार हो। दवा ले लो। और हाँ रात को खाने में क्या बना रही हो?
(बीमारी का बहाना करके सो मत जाना)
सुनो, डाक्टर से पूछ लेना (धीरे से) बेटा होगा या बेटी। सब बता देते हैं, बस थोड़ी सी उनकी मुट्ठी गर्म करने की जरूरत होती है। वंश तो बेटा ही चलाएगा। बेटियां तो अपने घर चली जाएंगी।
(बेटियों का घर…. कहीं होता भी है? शायद नहीं। होता है तो वे कठपुतली की तरह जीने को क्यों मजबूर हैं। अपने सपनों को क्यों नहीं जी सकतीं। खुलकर अपनी बात क्यों नहीं रख सकती। हद में रहने की ये मजबूरी क्यों है। समाज अपनी सोच क्यूं नहीं बदलता। वे भी इंसान है। बेटियां भी सोचती हैं, समझती हैं, महसूस करती हैं। अपने ढंग से जीना चाहती हैं। कब तक उन्हें बेड़ियों में बांध कर रखेंगे। हद में क्यों रहना होगा। आप बेटों को उनकी हद क्यों नहीं सिखाते? ये सारे प्रश्न मन में तो आते हैं पर कर नहीं सकते। क्यों… ? कब तक.. ?)
लेखिका श्वेता सिंह कोलकाता में लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. कई अखबारों-न्यूज चैनलों में कार्यरत रहीं. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के बतौर सक्रिय हैं. संपर्क- [email protected]