-सलिल सरोज-
क्या हुआ ऐसा कि इस कदर बदल गया है तू
पहले तू मेरी आँखों का पानी भी पढ़ लेता था
वो हँसी- ठिठोली और कहकहे सब छूट गए
यूँ तो बात-बेबात भी तू तो मुझसे लड़ लेता था
मेरी ज़रा सी नाराज़गी से निजात पाने के लिए
तू कितने ही किस्से-कहानियाँ झट गढ़ लेता था
बस कोई लफ्ज़ कील बनके दिल में चुभ गई है
नहीं तो आँधियों-तूफानों से भी तू अड़ लेता था
मैं रहूँ या न रहूँ निगाहों में तेरे काबिज़ हमेशा
पर ख्वाबों-ख्यालों में तो बाँहों में भर लेता था
तेरी नज़ाकत किसी काम की नहीं
-सलिल सरोज-
ज़ुल्म होता रहे और आँखें बंद रहें
ऐसी आदत किसी काम की नहीं
बेवजह अपनी ही इज़्ज़त उछले तो
ऐसी शराफत किसी काम की नहीं
बदवाल का नया पत्ता न खिले तो
ऐसी बगावत किसी काम की नहीं
मुस्कान की क्यारी न खिल पाए तो
फिर शरारत किसी काम की नहीं
तुम्हें छुए और होश में भी रहें तो
तेरी नज़ाकत किसी काम की नहीं
-रचनाकार सलिल सरोज से संपर्क : salilmumtaz@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.