संत समीर-
लगता है हमारे ज़िम्मेदार अख़बारों ने हिन्दी में शब्द-निर्माण की महान् ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर ले ली है। शब्द-निर्माण की टकसाल कही जाने वाली संस्कृत और तीन दर्जन से ज़्यादा बोलियों की शब्द-सम्पदा में मीडिया को शायद काम के शब्द नहीं मिल रहे हैं, तो अब उसने भाषाई फ्यूजन में ज़ोरदार सम्प्रेषण का राजमार्ग तलाश लिया है। कुछ समय पहले ‘आजतक’ चैनल वालों को ‘अफ़सोसनाक’ शब्द नाकाफ़ी लगा तो उन्होंने फ़ारसी के ‘अफ़सोस’ में संस्कृत का ‘जनक’ मिलाकर ‘अफ़सोसजनक’ बना लिया।
इसी रास्ते पर चलते हुए कल एक बड़े अख़बार ने पहली बार अरबी के ‘हैरान’ और संस्कृत के ‘जनक’ को मिलाकर अजब-ग़ज़ब ढङ्ग से ‘हैरानजनक’ का इस्तेमाल किया है। अब आप भी इसे रट सकते हैं, क्योंकि आगे यह आम व्यवहार का विषय बन सकता है।

मीडिया वालों ने ही फ़ारसी शब्द ‘दरकार’ के पहले ‘की’ लगाकर ‘उन्हें मदद की दरकार है’, ‘अरबों रुपयों की दरकार है’ टाइप के इतने वाक्य-प्रयोग किए कि उर्दूवाले आज तक रो रहे हैं कि भाई हिन्दी में ‘दरकार’ के स्थानापन्न ‘वाञ्छित’, ‘अपेक्षित’ जैसे शब्द हैं, इसके पहले ‘की’ का प्रयोग कैसे कर सकते हो! लेकिन अब कर भी क्या लेंगे, चल गया तो चल गया—महाजनो येन गतः स पन्थाः।
‘हैरानजनक’ जैसे शब्द के लिए अख़बार को भरपूर तर्क मिल जाएँगे, क्योंकि हम ‘अणुबम’, ‘परमाणु बम’, ‘पेशाबघर’, ‘गुलाब-जामुन’, ‘चोर-बाज़ार’, ‘विज्ञापनबाज़ी’ जैसे भाषाई फ्यूजन वाले शब्द प्रयोग करते ही हैं। अब यह मत कहिए कि ये शब्द समझदारी से बनाए गए थे, पर ‘हैरानजनक’ बेवकूफ़ी भरा है। जनाब, जब इलेक्ट्रॉनिक मीडियावालों ने ‘शर्मनाक’ पर सवार होकर ‘मर्मनाक’ जैसे शब्द गढ़ लिए तो ‘हैरानजनक’ में क्या बुराई है? हाँ, यह बात ज़रूर जायज़ हो सकती है कि ‘हैरान’ में ‘जनक’ जोड़ना मूर्खतापूर्ण है, क्योंकि ‘हैरान’ का मतलब होता है विस्मित—और ‘विस्मित’ में ‘जनक’ जोड़कर ‘विस्मितजनक’ क्या बन सकता है? ‘जनक’ को ‘विस्मय’ में जोड़ लीजिए, दौड़ेगा; पर ‘विस्मित’ में इसे किस गणित से जोड़ेंगे?
इसी तरह ‘हैरानी’ में ‘जनक’ जोड़ते तो थोड़ी देर के लिए हैरान होकर भी हम मान लेते, पर ‘हैरान’ में ‘जनक’ चेंपकर तो आपने सचमुच हैरान कर दिया। लेकिन क्या किया जाए, मीडिया की भी अपनी परेशानी है। भाषा के चक्कर में फँसेगा तो ख़बर पीछे छूट जाएगी।