हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ठेंगे पर रखता है दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश को… हिन्दुस्तान टाइम्स समूह दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद बहाल हुए करीब 200 कर्मचारियों को बदले की भावना से प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा है. ज्ञात हो कि के. के. बिरला समूह की चेयरपर्सन शोभना भरतिया के इशारे पर प्रबंधकों ने 272 कर्मचारियों को महात्मा गांधी की जयंती 2 अक्तूबर 2004 को बिना एक झटके में निकाल बाहर किया था. लम्बी लड़ाई के बाद जनवरी 2012 में श्रम न्यायालय ने कम्पनी की कार्रवाई को गैर कानूनी मानते हुए उन्हें 2004 से ही बहाल करने का आदेश दिया था लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने किसी न किसी कारणवश उन्हें विभिन्न न्यायालयों में उलझाये रखा और उन्हें एक रूपए का भी भुगतान नहीं किया जबकि अदालती आदेश फाइनल हो चुका है और सुप्रीम कोर्ट तक ने इसमें दखल से इन्कार कर दिया है.
लम्बी लड़ाई के बाद उच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में प्रबंधन की अर्जी खारिज करते हुए तनख्वाह के पिछले भुगतान के साथ बहाली का आदेश दिया था जिसके बाद कोई रास्ता न देख कोर्ट की कार्रवाई से बचने के लिए इन कर्मचारियों को जनवरी 2019 में बहाली के पत्र जारी किये गये. इन्हें बाहरी दिल्ली के कादीपुर गांव में खाली प्लाट में ज्वाइन करा कर रखा गया, जहां पीने के पानी और शौचालय तक की सुविधा नहीं थी और न ही उस जगह तक पहुंचने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट उपलब्ध है.
एक्सीक्यूटिंग कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए अपने आदेश में कहा है कि जानवरों से भी बदतर स्थिति में कर्मचारियों को रखा गया है और मूलभूत सुविधाओं तक वहां नहीं हैं. कोर्ट की सख्ती के बाद प्रबंधन ने मनमाने तरीके से 2004 के हिसाब से वेतन की गणना करके करीब 14 करोड़ की बकाया सेलरी और पीएफ और इन्कम टैक्स की मद में करीब 5 करोड़ का भुगतान किया है जबकि कोर्ट के आदेश के अनुसार सभी की सर्विस को कन्टीन्यू मानते हुए उन्हें बढ़ी हुई सेलरी के रूप में भुगतान करने का आदेश है जो लगभग 100 करोड़ से ऊपर बन चुका है. इसके भुगतान से बचने के लिए हिन्दुस्तान टाइम्स समूह अब ओछी हरकतों पर उतारू हो गया है और उसके मैनेजर और अधिकृत किये गये अनियमित एजेंट किसी गुंडे मवालियों जैसी हरकतें कर रहे हैं. ये के. के. बिरला और उनके परिवार की पिछले कई दशकों से अर्जित ख्याति को मिट्टी में मिलाने पर अमादा हैं.
जहां कर्मचारियों को ज्वाइन कराया गया वहां उन्हें खाली बैठाया गया था और बिना काम के परेशान करने के लिए दो शिफ्टों में ड्यूटी इस तरह लगाई गई थी ताकि व्यस्त समय में किसी को भी इस जगह तक पहुंचने में अधिक समय लगे. कोर्ट ने इन सभी बातों का संज्ञान लेते हुए कर्मचारियों को केवल सुबह-शाम हाजरी लगाकर कहीं भी जाने की छूट दी थी. इसके बाद एकाएक कर्मचारियों को चेन्नई और बंगलौर के ट्रांसफर लैटर थमा दिये गये थे. जैसे कर्मचारियों ने कोर्ट में चैलेंज किया तो कोर्ट ने किसी भी कर्मचारी को दिल्ली एनसीआर से बाहर न भेजने का आदेश दिया. इसके कुछ दिन बाद अब नया फरमान सुनाया गया है.
प्रिंटिंग प्रेस में विभिन्न पदों पर काम करने वाले कर्मचारियों को अब न्यायालय के उसी आदेश का हवाला देकर बदले की भावना से बिना किसी डेजीगनेशन के न्यूज एजेंसियों व हॉकरों के पास ट्रांसफर का पत्र दिया गया है. कर्मचारियों के इन लोकेशन पर पहुंचने पर पता चला कि वहां न्यूज एजेंसियों और अखबार के हॉकर केवल अखबार बेचने व बांटने का काम करते हैं और यह सारा काम ठेके या एजेंटों के जरिए होता है. इनसे हिन्दुस्तान टाइम्स कंपनी का दूर-दूर तक का नाता नहीं है और यह न्यूज एजेंसियां व न्यूज हॉकर केवल हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के लिए काम नहीं करते बल्कि सभी अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं को बेचने और कमीशन पर विज्ञापन इकट्ठा करने का काम करते हैं. लेकिन अब इन्हें कम्पनी ने समझा दिया है कि हमने इन्हें केवल परेशान करने के लिए आपके यहां भेजा है, इन्हें परेशान करिए और बदले में आपको रूपया मिलेगा. इन एजेंसियों को सुपारी दी गई है कि कि वह जितने लोगों को परेशान करेंगे, उतना कमीशन पायेंगे.
ज्ञात हो कि निकाले गए 272 कर्मचारियों में से करीब 55 लोगों की गरीबी, भुखमरी और बीमारी के कारण मौत हो चुकी है लेकिन सरकार तो दूर, न्यायालय भी इन कर्मचारियों और उनके परिजनों के लिए कुछ नहीं कर पा रहा है और हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन सभी हदों को पार करने पर उतारू है.
प्रबंधन कोर्ट से फाइनल हो चुके एक ही मामले को लेकर बार-बार हाईकोर्ट पहुंच जाता है. अगर आम आदमी इस प्रकार करे तो हाईकोर्ट जुर्माना लगा देता है लेकिन बड़ी कम्पनियों को मामले में उनका रूख आखिर लचीला क्यों हो जाता है. अब देखना यह है कि जिन कर्मचारियों का हौसला हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन पिछले 15 साल में नहीं तोड़ पाया है, क्या वह अब इन ओछी हरकतों से इनका हौसला पस्त कर पाता है.
इस प्रकरण से संबंधित अन्य दस्तावेज देखें-
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह की रिपोर्ट.