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सियासत

पत्रकारिता को उसका पुराना मिशन और चेहरा दिया जगेन्द्र ने

लगता है लोगों का इतिहासबोध कमजोर पड़ता जा रहा है। पढ़ने की शगल खत्म होती जा रही है, खास तौर पर राजनीतिक जीवधारी, अब किताबों से दूर होते जा रहें हैं। राजनीति की नई कोपलें तो अपनी इतिहास और भूगोल दोनों की सामान्य जानकारी से भी दूर होती जा रही हैं। वर्तमान में जीने वाली पीढ़ी अतीत से शायद कुछ सीखना ही नहीं चाहती। जबकि पहले के राजनेता अध्ययन में रूचि लेते थे और देश व दुनिया के इतिहास और आंदोलन की कहानी पढ़ते थें, पढ़ते ही नहीं थे, बल्कि अध्ययन से अपनी विचारधारा को भी परिपक्व और पुष्ट करते थें। गाँधी, नेहरू, लोहिया, जे.पी, दीन दयाल उपाध्याय आदि अनेक राजनेता और ‘जननायक’ स्वअध्ययन में गहरी रूचि लेने वाले थे।

<p>लगता है लोगों का इतिहासबोध कमजोर पड़ता जा रहा है। पढ़ने की शगल खत्म होती जा रही है, खास तौर पर राजनीतिक जीवधारी, अब किताबों से दूर होते जा रहें हैं। राजनीति की नई कोपलें तो अपनी इतिहास और भूगोल दोनों की सामान्य जानकारी से भी दूर होती जा रही हैं। वर्तमान में जीने वाली पीढ़ी अतीत से शायद कुछ सीखना ही नहीं चाहती। जबकि पहले के राजनेता अध्ययन में रूचि लेते थे और देश व दुनिया के इतिहास और आंदोलन की कहानी पढ़ते थें, पढ़ते ही नहीं थे, बल्कि अध्ययन से अपनी विचारधारा को भी परिपक्व और पुष्ट करते थें। गाँधी, नेहरू, लोहिया, जे.पी, दीन दयाल उपाध्याय आदि अनेक राजनेता और ‘जननायक’ स्वअध्ययन में गहरी रूचि लेने वाले थे।</p>

लगता है लोगों का इतिहासबोध कमजोर पड़ता जा रहा है। पढ़ने की शगल खत्म होती जा रही है, खास तौर पर राजनीतिक जीवधारी, अब किताबों से दूर होते जा रहें हैं। राजनीति की नई कोपलें तो अपनी इतिहास और भूगोल दोनों की सामान्य जानकारी से भी दूर होती जा रही हैं। वर्तमान में जीने वाली पीढ़ी अतीत से शायद कुछ सीखना ही नहीं चाहती। जबकि पहले के राजनेता अध्ययन में रूचि लेते थे और देश व दुनिया के इतिहास और आंदोलन की कहानी पढ़ते थें, पढ़ते ही नहीं थे, बल्कि अध्ययन से अपनी विचारधारा को भी परिपक्व और पुष्ट करते थें। गाँधी, नेहरू, लोहिया, जे.पी, दीन दयाल उपाध्याय आदि अनेक राजनेता और ‘जननायक’ स्वअध्ययन में गहरी रूचि लेने वाले थे।

आज, कमर में समाजवाद का गण्डा बांधने वाली राजनीति की नई पीढि़याँ समाजवाद से कितनी दीक्षित हो सकी हैं और उसे कितनी समझ सकीं हैं, यह तो समाजवाद के पैरोकार ही जानें, लेकिन एक बात तो साफ है कि डा.राम मनोहर लोहिया को आदर्श मानने वाले धरतीपुत्र मुलायम सिंह और उनका समाजवादी कुनबा, देश को समाजवाद की नई परिभाषा दे चुका है। परिवारवाद को भी समाजवाद का मुलम्मा चढ़ा, ‘नव समाजवाद’ का संस्करण देने वाली समाजवादी पार्टी और उसकी सरकार शायद अब स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी नहीं पढ़ती है। संघर्ष की गाथा अपने खून की स्याही से लिखने वाली पत्रकारिता की कुर्बानियों की कहानी नहीं पढ़ती है और न ही अपने नये सियासी प्रशिक्षुओं को पढ़ाती है। समाजवाद के कांवर को कंधों पर ढ़ोने का दावा करने वाले ‘नव समाजवादियों’ और खासतौर पर अखिलेश कबीना के मंत्रियों को भी पढ़ना चाहिए कि भारतीय पत्रकारिता की कहानी आत्मोसर्ग और बलिदान की जीवन्त दास्तां है। ‘सच’ कहने की कीमत पत्रकारिता ने वर्षो वर्ष उठायी है। अपने लहु को स्याही बनाकर संघर्ष की गाथा लिखने वाली पत्रकारिता जब ब्रितानी हुकूमत के सामने रीड विहीन नहीं हुई तो आज देश आजाद है। 68 साल हिन्दुस्तानी ज़म्हूरियत का उत्सव मनाने वाली भारतीय ‘जनमानस’ में पत्रकारिता आज भी विश्वास और आस्था की आधार बनी हुई है तो उसके मूल में बलिदानों और कुर्बानियों की निर्बाध परम्परा है जो आज भी जारी है। 

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अखिलेश सरकार के मंत्री राममूर्ति वर्मा और उन जैसी मानसिकता वाले नव समाजवादियों को शायद प्रयाग से निकलने वाला अखबार ‘स्वराज’ नहीं याद हो। भारतीय पत्रकारिता के बलिदान और आत्मोसर्ग की कहानी लिखने वाले इस ‘अखबार’ के 8 संपादकों को ढ़ाई साल के दरम्यान कुल 125 साल की सज़ा ‘सच’ कहने की मिली थी। बावजूद 75 अंक ‘स्वराज’ के निकले। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में सबसे अधिक त्रासदी झेलने वाले इस अखबार और इसके संपादकों ने जेल जाना, सज़ा पाना स्वीकार किया लेकिन ‘सच’ कहना छोड़ा नहीं। जिस अखबार के संपादक के लिए विज्ञापन निकलता था-‘‘एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी  यह श-रहे  तन्ख्वाह है, जिस पर ‘स्वराज’ इलाहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूम है’’। उसी पत्रकारिता के बिरवे ने आज विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर लिया है। जिसके मूल में बलिदान, आत्मोसर्ग और ‘सच’ कहने की हिम्मत है। जो उसकी नसों में, लहु के साथ ‘परम्परा’ बन प्रवाहित हो रही है। इस शक्ति को यदि किसी सत्ता या उसके कारिन्दों द्वारा क्षीण करने की कोशिश की जाये तो वह उसका भ्रम और अल्पज्ञान ही होगा। भारतीय पत्रकारिता की उस बलिदानी रवायत ने एक बार फिर हमारे समय में आकार लिया है। शाहजहाँपुर के सोशल मीडिया पत्रकार जागेन्द्र सिंह की मौत, आज उसी ‘सच’ को कहने की कीमत चुकायी है। अफ़सोस, सामने ब्रितानी हुकूमत नहीं बल्कि हमारी अपनी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार है। 

सवाल उठता है कि क्या सरकार नामक संस्था जो अपने नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी देने की दावा करती है। एक पत्रकार के जीवन की सुरक्षा नहीं कर सकी। आरोपी राज्यमंत्री राममूर्ति वर्मा अपना ‘सच’ और आलोचना सुन इतना आहत हो जाता हैं कि पत्रकार को ही रास्ते से हटाने की व्यू-रचना करने लगता है। पत्रकार के परिजन, बेटा और परिस्थितियां तो कम से कम यही बयां कर रही हैं। पत्रकारिता का दम घोटने के प्रयास में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया जाता है। एक पत्रकार को उसके घर में घुसकर पुलिस और मंत्री के गुर्गों द्वारा तेल छिड़क कर जिन्दा जलाने की कोशिश की जाती है और व्यवस्था मूक दर्शक बन पत्रकार के मरने का इन्तजार करती है। यदि यह बात झूठी भी हो तो क्या जागेन्द्र इस जानलेवा गर्मी में स्वयं अपने ऊपर तेल डालकर आग लगा लिया और मौत को गले लगा लिया। उसे यदि आत्महत्या ही करना होता तो बहुत से आसान तरीके हैं। आग लगाकर तड़पना और फिर लखनऊ के अस्पताल में जीवन और मौत के बीच संघर्ष करना वह क्यों चाहेगा। राममूर्ति वर्मा के पत्रकार की अत्महत्या किये जाने वाले बयान, किसी के भी गले नहीं उतर रहा है। बावजूद अखिलेश सरकार द्वारा ऐसे आरोपी को अपने मंत्रिमण्डल में अभी तक बनाये रखना और मृतक पत्रकार के परिजनों को मंत्री के गुर्गों द्वारा धमकी दिये जाने के समाचार आखिर क्या संकेत दे रहे हैं।

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मीडिया का जो धड़ा जीते-जी जागेन्द्र को सिंगल कालम का कोना तक नहीं दिया, आज उसके मौत के बाद फ्रंट पेज पर कवरेज दे रहा है। प्रदेश के हर जिले से विरोध-प्रदर्शन और ज्ञापन भेजकर आरोपी मंत्री और पुलिस के विरूद्ध वैधानिक कार्यवाही और गिरफ़्तारी की मांग की जा रही है। मृतक के परिजनों को आर्थिक सहायता देने की मांग की जा रही है। भाजपा समेत विपक्ष के नेता इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं। पत्रकार संगठन बयानबाजी में लगे हुए हैं और तथाकथित समाजसेवी अपनी कैन्डिल मार्च और ज्ञापन भेजने में। राज्य सरकार जाँच की गठरी बनाना चाहती है। सब के बीच ‘सच’ कहने की सजा़ पाये जागेन्द्र सिंह के परिजनों की नंगी आँखे, ‘शून्य’ को निहार रही हैं। जागेन्द्र अकेला मरा था लेकिन उसके पीछे कई जिन्दगियाँ मर रही हैं। बेटे ने बाप खोया, पत्नी ने पति और माँ ने अपना बेटा तथा ‘शाहजहाँपुर समाचार’ पोर्टल ने अपना कलमकार खोया है।

यह सच है कि व्यक्ति अकेला नहीं मरता बल्कि उसके मरने से उसका परिवेश भी मरता है। उसके परिवार का भविष्य मरता है, उसके बेटे के आँखों के सपने मरते हैं। फिर जागेन्द्र तो एक पत्रकार था जो अपने परिवेश के साथ जीता और मरता था। उसकी जिन्दगी उतनी ही बेश कीमती थी जितनी एक लोकसेवक की होती है। सरकार का सिस्टम क्या इतना नकारा हो चुका है कि एक पत्रकार की जान-माल की सुरक्षा न कर सके, उल्टे सरकार के ही मंत्री उसकी जान लेने पर आमादा हो जायें। यह समाजवाद की कौन सी परिभाषा है जिसे अखिलेश सरकार नये संस्करण में परिभाषित करना चाहती है। आखिर सपा सरकार के कार्यकाल में कानून-व्यवस्था की धज्जियाँ क्यों उठायी जाती हैं। इसका भी ख्य़ाल अखिलेश सरकार करती है क्या । अभी जागेन्द्र की चिता की आग ठण्डी भी नहीं हुई कि कानुपर में दीपक मिश्रा नामक दूसरे पत्रकार के ऊपर  दिन-दहाडे गोलियों से फायर कर दिया गया। क्या यही ‘उम्मीदों का प्रदेश उत्तर प्रदेश’ है जिसे बनाने की कल्पना अखिलेश करते हैं। अमेरिका तक में उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था की भद पीट रही है लेकिन ‘नव समाजवाद’ से दीक्षित समाजवादियों की नई पीढ़ी इसे भी ‘रूटिन-वे’ में लेने की आदत को ‘परम्परा’ बना चुकी है। फिलहाल जागेन्द्र मरा जरूर है लेकिन लोगों को जगा कर। एक साँचे में ढ़ली पत्रकारिता की वर्जनाओं और बाडबन्दी को तोड़ी है। पत्रकारिता को उसका पुराना मिशन और चेहरा दिया है। जो कभी ‘स्वराज’ ने दिया था।

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लेखक एवं संपादक-शार्प रिपोर्टर अरविन्द कुमार सिंह से संपर्क : 9451827982 

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