Samar Anarya बड़ी ब्रेकिंग: जेएनयू प्रशासन ने फ़ीस वृद्धि वापस ली। उम्मीद करता हूँ कि नव करदाता- मेहुल चोकसी भाई पूजक देशभक्त ममडाला सहित पूरे प्रशासन और अब तक फ़ीस वृद्धि का समर्थन कर रहे भक्तों को पाकिस्तान न भेज देंगे! लड़े हैं। जीते हैं। लड़ेंगे- जीतेंगे। अब गढ़वाल विश्वविद्यालय के साथियों के साथ खड़े हों!
उधर, आज तक की ऐंकर श्वेता सिंह ट्वीट रही हैं कि एक तरफ़ हैं 20-21 साल की उम्र में नौकरी करके परिवार का पेट पालने वाले जवान। (जो टैक्स भी भरते हैं) दूसरी तरफ़ ये जेएनयू वाले….
2000 की नोट में नैनो चिप लगवाने वाली इन ऐंकर महोदया को अभी दिल्ली पुलिस की महिला अधिकारियों तक को कूटते वकील नहीं दिखे थे!
दिखे तो इनको ख़ैर शिव सेना वाले भी नहीं हैं।
और दिख इनको अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी नहीं रही जो खुद भी फ़ीस वृद्धि का विरोध कर रही है।
और इनसे ये जानने की उम्मीद करना कि टैक्स वो हर शख़्स भरता है जो कुछ भी ख़रीदता है- माचिस/दूध/पारले जी/कुछ भी- तो 2000 के नोट से सिग्नल आने से भी ज़्यादा कठिन काम है।
बाक़ी- एक यूनिवर्सिटी के लिए इतना ज़हर भरने वाले समाज को उसकी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है- अफ़ग़ानिस्तान के हाल देख आइए।
Apoorva Bhardwaj : आप जेएनयू से जलते हैं क्योंकि उसका नाम नेहरू के नाम से है, क्योंकि वँहा से कन्हैया, शेहला राशिद और उमर खालिद निकले हैं, क्योंकि वहां से भारत के टुकड़े करने वाली गैंग निकली है, क्योंकि वहां के छात्रों ने अब भी लेफ्ट को लेफ्ट नहीं किया है, क्योंकि आपको उनकी सब्सिडी, सेक्स, शराब सबसे दिक्कत है… अगर हां, तो आप अपने आप से झूठ बोल रहे हैं भक्तगणों… यह सब तो बहाने हैं… आपकी असली दिक्कत कुछ और है…
आपको दिक्कत उनके ज्ञान से है जो आपके अज्ञान के आगे नहीं झुकता है… आपको दिक्कत उनके जुझारूपन से है जो आपके डर से भी कम नहीं होता… आपको दिक्कत उनके साहस से है जो आपकी गोली और गाली से नहीं डरता…. आपकी दिक्कत यह है कि वो आपके “भारत के विचार” को अपने भारत का विचार नहीं मानता… आपको दिक्कत उनके प्रकाश से है जो आपके अंधकार से हार नहीं मानता…
आप जेएनयू का पुरजोर विरोध कीजिए लेकिन याद रखिए, अंधविरोध में आप अपने स्वयं के बच्चों का बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं… इस जेएनयू से कन्हैया निकले हैं तो कांत भी निकले हैं… शेहला निकली हैं निर्मला भी निकली हैं… उमर निकले हैं तो जयशंकर भी निकले हैं… आप जाने अनजाने में घोर पूंजीवाद के उस दीमक का समर्थन कर रहे हैं जो भारत की शिक्षा को दिन प्रतिदिन चाट रहा है और आपको पता भी नहीं चल रहा है…
भक्तों, आप दिनभर आपके तड़ीपार चाणक्य का गुणगान करते हैं लेकिन कभी कभी असली चाणक्य को भी पढ़ा कीजिए… चाणक्य कहते हैं कि जो लोग जड़ बुद्धि होते हैं यानी मूर्ख होते हैं, वे ज्ञानी लोगों को शत्रु मानते हैं। मूर्ख व्यक्ति के सामने यदि कोई उपदेश देता है ज्ञान की बातें मूर्ख व्यक्ति को चुभती हैं, क्योंकि वह इन बातों पर अमल नहीं कर सकता है। मूर्ख का स्वभाव उसे ज्ञान से दूर रखता है…
मुझे खुशी है कि आज एक बार फिर असली चाणक्य की बात सही हो गई… जेएनयू जीत गया औऱ जहालत हार गई….
Vivek Satya Mitram : वामपंथ और जेएनयू या यूँ कहें कि वामपंथी और जेएनयू कल्चर से चिढ़, नफ़रत, असहमति, विरोध का मतलब ये कतई नहीं है कि आप जेएनयू को “फ़्री सेक्स हब” और यहाँ पढ़ने वाले वामपंथी रुझान वाले छात्रों को “निम्फोमैनिआक” साबित करके उनके वज़ूद को सेक्स का पर्याय बताने पर आमादा हो जाएं। मेरे अग्रज तुल्य एक पत्रकार बंधु ने इस पोस्ट की तुलना महान साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी की लेखन शैली से ना की होती तो मुझे कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मैं दशक भर पहले लंबी सीरीज़ लिख चुका हूँ — वामपंथ को लेकर अपनी आपत्तियों के साथ लेकिन उसमें ग़लती से भी किसी का कैरेक्टर एसेसिनेशन करने या रॉंग नैरेटिव बिल्डिंग की नीयत से ‘बिलो द बेल्ट’ कोई बात नहीं कही कभी। इस बात के गवाह भड़ास वाले Yashwant भइया हैं।
ये जो कुछ भी लिखा गया है उसे एक शब्द में “कूड़ा” कह सकते हैं, क्योंकि फेसबुक पर कचरा फैलाने पर कोई रोक नहीं है इसलिए इस तरह की चीज़ें जहां-तहाँ बिखरी मिल जाती हैं। मेरी आपत्ति ये लिखने पर नहीं है — ऑफ़्टर ऑल वी आर अ सोवरेन स्टेट एंड वी प्रैक्टिस ऑर फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच सो वेल। मेरी आपत्ति इसे साहित्य मानने से है। मैंने अक्सर देखा है कि तर्कों में कमज़ोर पड़ रहे लोग अक्सर पर्सनल अटैक्स पर उतर आते हैं। ख़ैर, चलिए मैं मान लेता हूँ कि जेएनयू में एडमिशन ही इसलिए लेते हैं लोग वहां फ्री सेक्स मिलता है। सो व्हॉट? सेक्स करने वाले लोग ‘कैरेक्टर लेस’ होते हैं? एंड हाउ दिस फ़ैक्ट मेक्स देम लेसर दैन दोज़ हू डू नॉट हैव सेक्स? सेक्स का आइडियोलॉजी से क्या रिश्ता है भईया? बीजेपी, संघ, बजरंग दल, विहिप के कार्यकर्ता सेक्स नहीं करते क्या? या उन्हें जेएनयू में दाख़िला नहीं मिलता — इस बात का रोष है?
आइडियोलॉज़ी को ललकारना हो तो तथ्यों और तर्कों के साथ आओ। कैरेक्टर एसेसिनेशन करना दुनिया का सबसे आसान काम है। इसके लिए सबूत और गवाह नहीं चाहिए होते हैं — बस एक सड़ा हुआ दिमाग चाहिए होता है और नफ़रत/पूर्वाग्रह की आग में धधकता हुआ दिल। जैसा कि मैंने बताया कि करीब डेढ़ दशक पहले जब नंदीग्राम कांड हुआ था तो मैं काफ़ी मुखर होकर उनके खिलाफ लिख रहा था मगर आज 12-13 साल बाद जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है — मेरी समझ तब थोड़ी कमज़ोर थी, कुछ चीज़ें मैंने भावातिरेक में लिखीं जो मेरे पूर्वाग्रह से उपजी थीं। पर मैंने सेक्स को इसका टूल बनाया हो, ऐसा होशोहवास में तो मैं कभी नहीं कर सकता क्योंकि मुझे ख़ुद बिलो द बेल्ट खेलने वालों से सख़्त नफ़रत है। ऐसा नहीं कि आज मैं वामपंथ या वामपंथियों के बारे में लिखते हुए प्रशंसा पत्र लिखूँगा, मैं आज भी उतनी ही तीक्ष्ण आलोचना करूंगा लेकिन मेरे तर्कों में तथ्य ज्यादा होंगे भावना लगभग नगण्य। और इसलिए मुझे ये पोस्ट लिखनी पड़ी ताकि सनद रहे कि फेसबुक पर लिखने वाले स्वयंभू साहित्यकार/व्यंग्यकार ये ना मान बैठें कि यहाँ मौजूद सभी लोग “विष्ठा” खाकर उसे स्वादिष्ट बताएँगे!
कुछ महत्वपूर्ण बातें —
चरित्र पर संघियों का पेटेंट नहीं है और ना ही वो इसके कस्टोडियन हैं (इसलिए बेमतलब सर्टिफ़िकेट ना देते फिरें)।
सेक्स करना ना तो पाप है, ना ही इसके लिए कोई लाइसेंस चाहिए होता है, ना ही दो वयस्क लोगों को क़ानून ऐसा करने से रोक सकता है, और ना ही इसके लिए आरएसएस से परमिशन लेने का कोई अध्यादेश जारी किया है सरकार ने। यानि ये पूरी तरह नॉर्मल है और लीगल भी।
आख़िरी बात, किसी एक व्यक्ति के साथ सेक्स करना या मल्टीपल पार्टनर के साथ सेक्स करना किसी को कैरेक्टर लेस कैसे बना सकता है? इस लिहाज़ से तो द्रौपदी और भगवान श्रीकृष्ण से बड़ा कैरेक्टर लेस नहीं हुआ कोई भारत के गौरवपूर्ण इतिहास में।
यानि सिंपल सी बात ये है कि सेक्स किसी का कैरेक्टर नहीं तय कर सकता। अगली बार जब किसी का कैरेक्टर एसेसिनेशन करना हो तो प्लीज़ और भी मसाला ले आएं — ये वाला फ़र्जी नैरेटिव तो एक्सपोज़ हो गया।
और माफ़ कीजिएगा — आप कभी साहित्यकार की कैटेगरी में नहीं गिने जाएंगे। अपने लोग प्यार मोहब्बत में बोल जाते हैं कुछ कुछ उसे दिल पर मत लीजिएगा। वैसे भी पढ़े लिखे लोगों से गंभीर विषयों पर गंभीर लेखन की उम्मीद की जाती है। ऐसा छिछला, सतही, पूर्वाग्रह भरा सस्ता मज़ाक भला साहित्य कैसे हो सकता है? अदरवाइज़ भाषा बिल्कुल दुरुस्त है आपकी — सौ टका। हिंदी पढ़ा सकते हैं आप पर हिंदी साहित्य नहीं!
Himanshu Pandya : व्हाट्सएप पर एक फेक न्यूज़ बहुत जोर शोर से फैलाई जा रही है कि यह सारी लड़ाई सिर्फ हॉस्टल कमरे का किराया 10 रु से बढ़ाकर 300 रु किये जाने के खिलाफ है. पढ़ने वाले को भी लगता है, 300 रु महीना तो कोई ज्यादा नहीं है. व्हाट्सएप के झांसे में न आएं, वह अधूरी और भ्रामक जानकारी देता है. कमरा किराया बहुत सारे मदों में से एक मद है, शेष ढेर सारे मदों में वृद्धि का प्रस्ताव है. सबसे जरूरी समझने वाली बात ये है कि हॉस्टल के मेस-सफाई-रखरखाव आदि का खर्च और इस के लिए रखे गए कर्मचारियों का खर्च अब विद्यार्थियों से लिया जाएगा.
अब थोड़ा गणित समझें. 18 हॉस्टल, प्रति होस्टल 40 कर्मचारी, प्रति कर्मचारी 20000 रु – यह हुआ 17.28करोड़ सालाना. यदि प्रति कर्मचारी 25000 माने तो हुआ 21.6 करोड़ सालाना. इसे विद्यार्थियों से लिया जाएगा. औसतन एक विद्यार्थी जो अभी 3-5 हज़ार महीना होस्टल फीस देता है, वह छलांग मारकर 12-15 हज़ार हो जाएगी. इसमें अभी पानी,बिजली, इंटरनेट, पुताई,मरम्मत, आदि नहीं जोड़ा गया है यानी रकम इससे ज्यादा भी हो सकती है. और हाँ न्यू पेंशन स्कीम की तरह यह भी बाजार की दरों के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ गई है तो आप अगले महीने या साल की रकम के बारे में अनुमान भी नहीं लगा सकते और विरोध तो नहीं ही कर सकते.
अब थोड़ा गणित और समझिए. ( यह सब जेएनयू छात्रसंघ द्वारा प्रस्तुत आंकड़े हैं ) जेएनयू के लगभग 2500 पीएचडी विद्यार्थी फेलोशिप पाते हैं. हॉस्टल में रहने के कारण उन्हें HRA नहीं मिलता. JRF का दिल्ली का HRA है 7500 रु. यह हुआ 22.5 करोड़ सालाना. यानी समझे आप ! जेएनयू के विद्यार्थी अपना खर्चा अप्रत्यक्ष रूप से खुद दे ही रहे हैं. विश्वविद्यालय बेशर्मी से पब्लिक फंड्स का दुरुपयोग कर इसे व्यवसाय में बदलना चाहता है.
अब एक और आंकड़ा जानिए. जेएनयू के 46 फीसदी विद्यार्थियों की पारिवारिक सालाना आय 144000 रु से कम है यानी 12000 रु महीना. ( यह सार्वजनिक उपलब्ध आँकड़ा है, प्रवेश के समय विद्यार्थी को भरना होता है ) अर्थात यह फीस वृद्धि जेएनयू के आधे के करीब विद्यार्थियों की पारिवारिक आय के बराबर सी है. अभी इन आंकड़ों में दिल्ली में होने वाले अन्य खर्चे – जिसमें किताबें और परिवहन जो शोधार्थी के लिए सबसे जरूरी है, वो जोड़े ही नहीं गए हैं. सीधे सीधे गरीब विद्यार्थी के लिए फरमान है – जेएनयू तुम्हारे लिए नहीं है, बोरिया बिस्तर समेटो घर जाओ.
Satyendra PS : जेएनयू में मेस सिक्योरिटी 5000 रुपये से बढ़ाकर 12000 रुपये कर दी गई। ऊपर से पानी बिजली का चार्ज देना होगा। सर्विस चार्ज 1700 रुपये होंगे। कमरे का किराया 10 रुपये महीना था, वह 300 रुपये महीना हो गया है। देखने में यह लग सकता है कि अभी भी यह बहुत कम है। एमिटी वाले, मणिपाल वाले कितना होस्टल फी लेते हैं, जेएनयू तो उसका 5% भी नहीं ले रहा है।
मुझे अपने दिन याद आ रहे हैं। सरकारी स्कूल से ग्रेजुएशन और पीजी करके निकला तो नया नया एमबीए आया था गोरखपुर यूनिवर्सिटी में। पहली बार कुछ स्ववित्तपोषित टाइप मामला था। फीस 17000 रुपये के आसपास थी। मेरी हिम्मत न हो पाई फॉर्म भरने की। कुछ साल नौकरी खोजने के बाद बीएड, पत्रकारिता करने का मन हुआ। बीएड की फीस उस समय तक सरकारी में 2970 रुपये हो गई थी, पत्रकारिता की 5,000 रुपये के आसपास। पहले जब बीएड की फीस 900 रुपये थी तो मुझे लगता था कि यह बेकार है लेकिन कल्याण सिंह के समय बीएड वालों को नौकरियां बाटी गईं तो फीस बढ़ गई और बीएड का आकर्षण भी। बीएड के लिए भारी भरकम टेस्ट होने लगे। एक बार टेस्ट पास करके भी बीएड छोड़ दिया।
कुछ समय बाद आर्थिक स्थिति ठीक हुई तो पत्रकारिता का कोर्स करने को मन हुआ। गोरखपुर में वही 5000 रुपये फीस। हिंदी विभाग के गुरुजी लोग कोर्स चलाते थे और सुना था कि गोरखपुर में कोर्स करने वालों को कोई नौकरी देता भी नहीं है।
तब तक बड़े और नामी विश्वविद्यालयों से डर लगता था कि गोरखपुर में इतनी फीस है तो बीएचयू या जेएनयू में कितनी होगी? उसके अलावा रहने का खर्च। मेरी कल्पना से परे था कि बाहर रखकर पढ़ाई की जा सकती है। 3000 रुपये साल का एकमुश्त देने में सक्षम नहीं पा रहा था तो बाहर रहकर हॉस्टल में या कमरा लेकर पढ़ना और रहना खाना। यह सब असम्भव टास्क था।
यह हाल तब था जब पिताजी राज्य सरकार के सबसे रिश्वतखोर विभाग में क्लास 2 अधिकारी थे और गांव पर करीब 15 एकड़ जमीन थी। अंतर सिर्फ इतना आया था कि ईमानदारी से नौकरी करते पिताजी सेवानिवॄत्त हो गए थे और उन्हें 1100 रुपये महीने पेंशन मिलती थी।
बहरहाल छोटे भाई को जॉब मिलने पर स्थिति सुधरी और पत्रकारिता का कोर्स करने का मन बना। गोरखपुर कचहरी बस स्टैंड से बीएचयू के पत्रकारिता के एंट्रेंस टेस्ट का फार्म ले आया। यह सुन रखा था कि वहां होस्टल की फीस 1000 रुपये सालाना लगती है और 700 रुपये महीने में खाना हो जाता है। लगा कि पढ़ना मुमकिन है। टेस्ट दिया।
बनारस स्टेशन पर जब टैम्पो वाले लँका लँका चिल्ला रहे थे तो मुझे लगा कि ये हमको रावण तक पहुंचाकर ही छोड़ेंगे। उसके अलावा बनारस के ठगों की चिंता अलग थी। पहली बार बीएचयू देखकर आँखे फटी रह गईं।
टेस्ट देने के बाद जिससे पूछता, कोई ऐसा न मिला जिसने 100 में से 90 सवाल न किए हों। मुझे याद है कि मैं 83 सवाल ही कर पाया था, माइनस मार्किंग थी। उसमें कुछ तुक्का भी थे, शेष सवाल मार्शल की बाउंसर गेंद की तरह मुंह तोड़ते निकल गए थे। यह लगा कि चयन नहीं होगा। बीएचयू के विश्वनाथ टैंपल के सामने 2 रुपये का समोसा चाय पीने के बाद मन्दिर में यह मनाने लगा कि हे भोलेनाथ यह क्या हो रहा है? क्या यहां इतने ब्रिलिएंट बच्चे आते हैं? मेरा क्या होगा? फीस की चिंता कम हुई तो क्या एडमिशन ही न मिलेगा?
जब रिजल्ट आया तो मुझे सलेक्शन मिल गया। टेस्ट में टॉप 6 लोगों को हॉस्टल मिलना था, वह भी मिल गया। साल भर की एडमिशन फीस 138 रुपये। 1200 रुपये होस्टल फीस। 600 रुपये की एक पुरानी साइकिल। पढ़ लिया।
पिछले 12 साल से हर साल मोटा पैसा सरकार को टैक्स दे रहा हूँ। मैं भी उसी हाल में हूं जिस हाल में पापा थे। अगर सरकारी स्कूल, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग, यूनिवर्सिटी न हों तो शायद मेरे बाल बच्चे भी हायर एजुकेशन न ले सकेंगे।
हम यह नहीं कह रहे हैं कि सरकार गदहा हांके। लेकिन जेएनयू, बीएचयू, एएमयू जैसे विश्वविद्यालय कम फीस और कम खर्च रखकर देश के उन प्रतिभाशाली क्रीम दिमाग बच्चों को पढ़ने का मौका देते हैं जिनके पास पैसे नहीं होते हैं।
मैं 12 साल से इन हरामखोर लोगों को टैक्स के रूप में सरकार चलाने का पैसा दे रहा हूँ तो क्या इतनी भी उम्मीद न करूं कि मेरे बच्चे अगर प्रतिभाशाली और शार्प ब्रेन वाले हों तो उन्हें पढ़ने का मौका मिलना चाहिए?
माठारा सिंह ने कांग्रेसी प्रवक्ता बल्लभ की चुनौती स्वीकार करते हुए ट्रिलियन डॉलर को खरब रुपये में बदल दिया है। लेकिन मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि भाई अगर आप लोग अपने देश के टॉप ब्रेन स्टूडेंट्स को फ्री में एमबीए, बीएड, पत्रकारिता, इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि की शिक्षा नहीं दिला सकते तो आपकी ट्रिलियन या 100 खरब डॉलर या 8000 खरब रुपये की इकोनॉमी बेकार है। आप भारत की नियति में आप कटोरा लेकर भीख मांगना ही लिख रहे हैं।
अब तो नीचता उस चरम पर पहुँच गई है कि लोग कॉलेजों में फीस बढ़ने के समर्थन में उतर आए हैं। इसके पहले भी एक हरामीपना चला था कि भारतीय संस्थानों में मुफ्त पढ़कर लड़के विदेश चले जाते हैं। ब्रेन ड्रेन हो जाता है। पहली बात तो यह कि मजदूरों का कोई ब्रेन नहीं होता, वह मजदूर होता है।
दूसरी बात यह कि चाहे रघुराम राजन हों, अरविंद पनगढ़िया हों, अभिजीत बनर्जी हों, विदेश में रहकर वहां पैसा लेकर भी भारत की अर्थव्यवस्था पर सोचते और काम करते हैं। उसी काम के लिए उनको सम्मान मिलता है। वहां जाकर सीखते हैं और भारत को बनाते हैं।
तीसरी बात यह कि यही आईटी, मेडिकल, मैनेजमेंट की सेवाएं विदेश बेचने के लिए भारत जान दिए पड़ा है। इसी के चलते rcep समझौता नहीं हो पाया। भारत केमज़दूर, भारत की सेवा लेने को कोई देश तैयार नहीं है। कौन सा ब्रेन ड्रेन हो रहा है और कौन सी सेवा निर्यात करने के लिए सरकार मरी जा रही है?
हालांकि जिनके दिमाग मे गोबर भरा हो, उसके लिए यह समझना कठिन है…
Meena Kotwal : जेएनयू जैसे संस्थानों को बचाना क्यों जरूरी है? जेएनयू में मेरे कई दोस्त हैं जो दलित, ओबीसी और मुस्लिम समाज से आते हैं. ‘बहुजन साहित्य संघ’ में जब मैं पैनलिस्ट के तौर पर गई थी, तो वहां कई ऐसी बहुजन लड़कियों से मुलाक़ात हुई, जो हजारों साल से हो रहे अन्याय के खिलाफ़ मुखर होकर बोल रही थीं. वो सुना रही थी अपने साथ हुई उन कहानियों को, जिनमें संघर्ष ही संघर्ष था और जो बदस्तूर अभी भी जारी है. ज्यादातर लड़कियां मेरी ही तरह अपने घर-परिवार की पहली पीढ़ी थी, जो पढ़-लिखकर और संघर्ष कर यहां तक पहुंची थी. अब ये लड़कियां ना केवल बोल रही थीं, बल्कि ख़ुद के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल बन रही थीं.
कविता पासवान, आफ़रीन, रजनी अनुरागी, अनिता भारती, रेणु चौधरी, नीतिशा खलखो, सरिता माली, कनकलता यादव, जैसी कई बहुजन महिलाएं सदियों से हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ जेएनयू में दहाड़ रही थीं. जहां तक मुझे महसूस हुआ, वहां मौजूद महिलाओं में से ज्यादातर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. बाबा साहब अंबेडकर से साहस पाकर और मंडल साहब की संघर्ष की बदौलत वे लड़कियां जेएनयू तक का सफ़र तय कर पाने में सफ़ल हो पाई हैं.
जिन जातियों से ये महिलाएं थी उनकी जाति सुनकर आपकी भौहें जरूर सिकुड़ जाती हैं. लेकिन जेएनयू-जामिया ने उन्हें बोलने की हिम्मत दी है क्योंकि इन लोगों की बहस का हिस्सा ना कोई बनना चाहता है और ना कोई इनपर बात करना चाहता है (हां अपना नाम और चैनल चमकाने के लिए थोड़ा बहुत प्रोग्रेसिव जरूर दिख जायेंगे).
ये सभी लड़कियां अपने गांव-घर की पहली पीढ़ी से हैं, जो जेएनयू और जामिया जैसे संस्थानों में पहुंच पा रही हैं. सिर्फ फीस कम होना ही जेएनयू में दाख़िले की वज़ह नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए लड़ने का रास्ता इन संस्थानों से होकर गुजरता है.
अगर बाबा साहेब को एक समय पर पढ़ने से रोक दिया जाता तो क्या आज का भारत ऐसा होता? बेइंतहां तकलीफ़ और धिक्कार के बाद बाबा साहेब ने पढ़ाई नहीं छोड़ी और भारत को कैसे एक करना है उसका रास्ता ना केवल खुद ढ़ूढ़ा बल्कि हम जैसों के लिए बनाकर भी गए.
हम लड़कियां जो आज लिख-बोल पा रही हैं वो जेएनयू और जामिया जैसे संस्थानों की वजह से ही संभव हो पाया है. सरकार आज इन संस्थानों को कमजोर नहीं कर रही, बल्कि लोकतंत्र को कमजोर कर रही है.
इनके संघर्ष को अगर समझना है तो हमारे साथ आओ और साथ में काम करके दिखाओ. मैं आपको ये नहीं कहूंगी कि आपको डोम, चमार, धोबी, मुसहर, पासी की बस्ती में रहना है तभी कुछ समझ पाओगे. ना आपको बिल्कुल ऐसा नहीं करना. बस आप इतना कर दीजिए तथाकथित सवर्ण कॉलोनी में डोम, चमार, मुसहर, पासी, दुसाध जैसा कुछ बनकर रहना है और ऐसा ही सरनेम लगाना है. फिर हक़ीकत और संघर्ष आपके सामने होगा, जहां आपको गरीबी के आधार पर नहीं आपकी जातिय पहचान के आधार पर आपको दुत्कारा जायेगा. गरीबी आप मेहनत कर के दूर कर सकते हैं, जाति का क्या करोगे साहेब!
एक बार सवर्ण से चमार बनो और निकल पड़ो एक नई नौकरी की तलाश में. और अगर किसी ने डायवर्सिटी के नाम पर आपको रख भी लिया तो अपने ख़िलाफ़ होने वाले अन्याय के लिए आवाज़ उठा कर दिखाओ, फिर देखो कैसे तुम्हें भीड़ से अलग-थलग कर दिया जायेगा. गरीबी और जातिय भेदभाव का संघर्ष सामने दिख जायेगा.
ख़ैर, अभी वक्त है जेएनयू जैसे संस्थान को बचाने का. आख़िर में, हमारे लिए लिखते और बोलते तो आप सब बहुत हैं और इस पर वाह-वाही भी खूब बटोरते हैं. लेकिन पीछे से हमारे लिए क्या सोचते हैं और कैसे गाली देते हैं, आपके इस षडयंत्र को सोचने और समझने की शक्ति भी जामिया और जेएनयू जैसे संस्थान की ही देन है. इसलिए इन संस्थानों को बचाइए ताकि लोकतंत्र बचा रह सके और बाबा साहेब का सपना साकार हो सके.
सौजन्य : फेसबुक