दरअसल यह किस्सा मेरी पत्रकारिता की जिंदगी से जुडा है लेकिन उस वक्त मै इसका मतलब नही समझ पाया था..बात 14 अक्टूबर 1996 की है..पत्रकार बनने की गरज से मैं उस वक्त के एक फायर ब्रांड टैबलायड न्यूज पेपर के दफ्तर पहुंचा.. उस वक्त अखबार के संपादक रहे स्व. राजेश विद्रोही जी से मुलाकात हुई.. संपादक के नाम एक पत्र लिखवाकर देखा औऱ फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या बनोगे- जर्नलिस्ट या जंगलिस्ट.. विद्रोही जी बड़े गजलकार थे. उनके शेर व्यवस्था पर गंभीर चोट करने वाले होते थे. लिहाजा मुझे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी… मैं शांत हो गया..
उन्होंने मुझसे कहा कि देखो यह सवाल बहुत गंभीर है.. क्या बनना चाहोगे.. अगर जर्नलिस्ट बनना है तो यहीं मेरे साथ काम करो… और, अगर जंगलिस्ट बनना है तो कई ऐसे अखबार भी हैं जहा जंगलिस्ट ही काम करते हैं..
उस वक्त मैं कुछ समझ नही पाया लेकिन बाद में पता चला कि जर्नलिज्म में जंगलियो की भी भरमार है.. उस वक्त के कई किस्से सुनने में आते थे कि पत्रकार ने वेतन या प्रमोशन मांगा तो संपादक ने न्यूज रुम मे ही गिरा के वरिष्ठ पत्रकार को पीटा.. बेईज्जत किया.. दरअसल यह वह दौर था जब पत्रकारों के बीच जंगलिस्टों की फौज पनप रही थी.. यह जंगलिस्ट ज्यादा पढे लिखे तो नहीं होते थे औऱ न ही लिखने पढने की समझ रखते थे लेकिन यह फिर भी संपन्न होते गये.. उस दौर में भी ऐसे एक दो जंगलिस्टों से पाला पड़ा था..
अखबार की जिंदगी से ऊब कर 2001 में बडे भाई समान और शानदार पत्रकार स्व. रवि वर्मा जी के साथ लखऩऊ में केबल टीवी न्यूज चलाई.. इलेक्ट्रानिक मीडिया की शुरुआत भी यहीं से हुई.. उस वक्त भी एक जंगलिस्ट से पाला पड़ा.. बाद में ऐसे जंगलिस्टों की बाढ़ सी आ गई.. गाली गलौच.. लड़ाई झगड़ा मारपीट करने वाले कई पत्रकार मैदान में नजर आने लगे.. खास बात यह थी कि यह सभी जंगलिस्ट आर्थिक रुप से सफल रहे और बाद की पीढी के कई पत्रकारों ने इस परपंरा को अपनाया..
यह संस्मरण मैं इसलिये लिख रहा हूं कि आने वाली पीढी जो पत्रकार बनने की सोच रही है या जर्नलिज्म की दुनिया को अपने हिसाब से सोच रही है वह यह जान ले कि जनर्लिस्ट बनाम जंगलिस्ट की यह जंग खत्म नहीं हुई बल्कि तेज हो रही है.. जंगलिस्ट सिर्फ रिपोर्टर या पत्रकार नहीं बल्कि संपादकनुमा जंगलिस्ट भी दिखेंगे जो लिखते कम औऱ चीखते ज्यादा हैं…
भारत समाचार न्यूज चैनल के एसोसिएट एडिटर मानस श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.