Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

पत्रकारिता को कलंकित कर रहे दलाल पत्रकार

पत्रकारिता दिवस पर विशेष : हर कोई अखबार में काम तो करना चाहता है लेकिन उसके पीछे उस व्यक्ति के कई कारण होते हैं। यानी आज पत्रकारिता बुरे दौर से गुजरने पर मजबूर हैं। अरे अब तो वह दौर आ चुका है कि पैसे के लिए वे अपने ही किसी साथी की बलि बहुत ही संयत भाव से चढा सकते हैं। माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस हो चला है। मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता? चंद टुकड़ों पर अपनी जमीर बेचना ही अब कुछ के लिए पत्रकारिता बन गयी है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस घिनौने करतूतों में मालिकान सिर्फ इसलिए साथ देते है कि वह उनके स्वार्थो का बखूबी ख्याल रखता है 

पत्रकारिता दिवस पर विशेष : हर कोई अखबार में काम तो करना चाहता है लेकिन उसके पीछे उस व्यक्ति के कई कारण होते हैं। यानी आज पत्रकारिता बुरे दौर से गुजरने पर मजबूर हैं। अरे अब तो वह दौर आ चुका है कि पैसे के लिए वे अपने ही किसी साथी की बलि बहुत ही संयत भाव से चढा सकते हैं। माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस हो चला है। मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता? चंद टुकड़ों पर अपनी जमीर बेचना ही अब कुछ के लिए पत्रकारिता बन गयी है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस घिनौने करतूतों में मालिकान सिर्फ इसलिए साथ देते है कि वह उनके स्वार्थो का बखूबी ख्याल रखता है 

बात उन दिनों की है जब समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियां चरम पर थी। ब्रतानियां हुकूमत की लाठियां हिन्दुस्तानियों पर कहर बनकर टूट रही थी। बहु-बेटियों की अस्मत खुलेआम चैराहों पर नीलाम हो रहे थे। भारतीयों के सामाजिक सरोकारों व धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात किया जा रहा था। मजदूर को मजदूरी के बदले यातनाएं दी जा रही थी। जुर्म का बगावत करने वाले समाज के हर तबके का हंटर के बल पर हक छिना जा रहा था। उस दौर में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड नामक मैग्जिन निकालकर न सिर्फ लोगों के दुखों को साझा किया, बल्कि उनकी आवाज को मैगजिन के जरिए तानाशाहों की नींद हराम कर दी। समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया। अपने पत्रों के जरिए जनता में हक व इंसाफ के प्रति जागरूकता पैदा की। लेकिन किसे पता था 190 साल पूर्व जुगल व राजा राममोहन राय की जोड़ी ने पत्रकारिता की नींव रखी वह आज इस मुकाम पर होंगी कि उसे चैथे स्तंभ का दर्जा मिल जायेगा। मतलब साफ है समाज में पत्रकार का सम्मान खत्म होता जा रहा है। कुछ लोग धंधा करने के लिए पत्रकार का चोला ओढ़ लेते हैं तो कई पत्रकार धीरे-धीरे यह धंधा अपना लेते हैं। इसे बढ़ावा देने में संस्थानों का भी कम हाथ नहीं। लोकतंत्र का चैथा खंभा बुरी तरह हिल रहा है। जनता को वही खबरें मिल रही हैं जिससे चैनल या अखबारों को फायदा हो। अपने फायदे और पैसे के लिए वे किसी भी विज्ञापन को खबर बनाकर पेश कर रहे हैं। सबसे शर्म की बात यह है कि वे पैसे की लालच में वे राय भी दे रहे हैं। इस पेशे में ये सोच कर आया था कि इमानदारी का इकलौता पेशा यही बचा है जिसके माध्यम से देश और समाज की सेवा कर सकता हूं लेकिन करीब आने पर पता चला कि यहां भी सफाई की जरूरत है। स्वतंत्रता जैसे शब्द के मायने भी इस पेशे से खत्म हो गए हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने के लिए तैयार बठी है, शायद इसी कारण पत्रकारिता सिर्फ शब्द बनकर रह गया है। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

फिरहाल देखा जाय तो 190 वर्षों में हिंदी अखबारों एवं समाचार पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी तेजी आई है। साक्षरता बढ़ी है। पंचायत स्तर पर राजनीतिक चेतना बढ़ी है। आज प्रत्येक श्रेणी की जनता बड़ी लगन और उत्सुकता से दैनिक पत्रों को पढ़ती है। कहा जा सकता है भारत की साधारण जनता तक पहुंचने के लिए दैनिक समाचार पत्र ही सर्वोतम साधन हैं। देश-देशांतर के समाचारों के साथ भाषा और साहित्य का संदेश भी दैनिक पत्रों द्वारा आसानी से जनता तक पहुंचा सकते हैं और पहुंचाते आये हैं। लेकिन बदलते परिवेश में सबकुछ उलट-पलट हो चला है। पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय हो गया है। समय के साथ-साथ पत्रकारों के उद्देश्य, मतलब भी बदलते रहे और कलम कुछ ऐसे व्यक्तियों के पास भी पहुंची जिन्होंने केवल स्वार्थसिद्धि, भ्रष्टाचारियों की तरह कलम का उपयोग कर पत्रकारिता जगत में अपने ऐबो हुनर को दर्शाया। वे स्वार्थसिद्धि की खातिर कलम के साथ न्याय व तालमेल नहीं बैठा सके। यही खास वजह है समाज के लोक निर्माण का यह महत्वपूर्ण स्तम्भ भरभराने की कगार पर है। आज कलम कुछ ऐसे हाथों में भी पहुंच गयी है जिन्हें पत्रकारिता से कुछ लेना-देना नहीं। अवैध कारोबार कर वे कलम को अपना सुरक्षा कवच बनाये हैं और पुलिस से बच कर निकल जाते रहे हैं। बहुत से तथाकथित पत्रकारों ने पत्रकारिता जैसे इज्जतदार पेशे की बदनामी करके रख दी है, कुछ अखबार ऐसे हाथों में पहुंच चुके हैं जिनका कलम से कोई लेना-देना नहीं। यही समस्यायें आज पत्रकारों के बीच दरारें पैदा कर रही हैं। 

हर कोई अखबार में काम तो करना चाहता है लेकिन उसके पीछे उस व्यक्ति के कई कारण होते हैं, यानी आज पत्रकारिता बुरे दौर से गुजरने पर मजबूर हैं। अरे अब तो वह दौर आ चुका है कि पैसे के लिए वे अपने ही किसी साथी की बलि बहुत ही संयत भाव से चढा सकते हैं। भदोही में एक पत्रकार के साथ घटित पुलिसिया व प्रशासनिक तांडव तो एकबानगी है। ऐसी दर्जनों घटनाएं है जो प्रशासनिक व पुलिस के चंछ टुकड़ों पर पल रहे तथाकथित पत्रकार यां यूं कहें दलाल सच को उजागर करने वाले पत्रकार के ही दुश्मन बन गए। इससे बड़ी बिडंबना और क्यां हो सकती है इस तरह के प्रशासिनिक व पुलिस के दलाल पत्रकार सारी मर्यादाएं लांघ अपनी गवाही तक दिए। बलातकार की शिकार दलित महिला के आरोपी से कालीन कारोबारियों से लाखों की दलाली लेकर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया। माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता? चंद टुकड़ों पर अपनी जमीर बेचना ही अब कुछ के लिए पत्रकारिता बन गयी है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस घिनौने दलाल पत्रकार का साथ अखबार मालिकान सिर्फ इसलिए देते है कि वह उनकी भी जेबे गरम करता है। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

बदलाव के इस दौर में ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ का जुमला उछालकर पत्रकार और पत्रकारिता के स्वरूप और दायित्वों को समेटना बेमानी है। मेरी दृष्टि में ‘मिशन’ से ‘प्रोफेशन’ के दौर में पहुंची पत्रकारिता के लिए व्यावसायिक नैतिकता (प्रोफेशनल एथिक्स) का महत्व सबसे ऊपर है। इसके बावजूद समूचा परिदृश्य निराशापूर्ण है। कितना भी प्रोफेशनलिज्म हो, पत्रकारिता का मूलमंत्र या पत्रकारिता की आत्मा ‘मिशन’ ही है और  वही रहेगी। तभी तो देश के लगभग 65,000 से ज्यादा स्ट्रिंगर और अल्पकालिक संवाददाता-पत्रकार पत्रकारिता की सेवा में जुटे हुए हैं। मोटी तनख्वाह या तनख्वाह न पाने वालों का असली मानदेय ‘मिशन’ की पूर्ति से मिलने वाला संतोष ही है। आखिर अपना कैमरा संभाले कमर तक पानी में घुसकर या नक्सलियों के ‘डेन’ (अड्डों) में जाकर कवरेज करने वाले किस पत्रकार की भरपायी की जाती है? या फिर आतंक के महासागर पाकिस्तान में मीडिया के लिए समाचार या कंटेंट जुटाने-लाने के लिए अपनी जान गंवा देने वाले, सिर कटा लेने वाले डैनियल पर्लो को भला कितना वेतन मिलता है?  

ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, तकवी शकंर पिल्ले, राजेंद्र माथुर,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय की जमाने की पत्रकारिता की कल्पना करना मूर्खता होगी। लेकिन इतना तो जरूर सोचा जा सकता है कि हम जो कर रहे हैं, वो वाकई पत्रकारिता है क्या। सब जानते हैं कि भारत में देश की आजादी के लिए पत्रकारिता की शुरूआत हुई। पत्रकारिता तब भी हिंदी और अंग्रेजी के अलावा कई भाषाओं में होती थी। लेकिन भाषाओं के बीच में दीवार नहीं थी। वो मिशन की पत्रकारिता थी। आज प्रोफोशन की  पत्रकारिता हो रही है। पहले हाथों से अखबार लिखे जाते थे। लेकिन उसमें इतनी ताकत जरूर होती थी कि गोरी चमड़ी भी काली पड़ जाती थी। आज आधुनिकता का दौर है। तकनीक की लड़ाई लड़ी जा रही है। फोर कलर से लेकर न जाने कितने कलर तक की प्रिटिंग मशीनें आ गई हैं। टीवी पत्रकारिता भी सेल्युलायड, लो बैंड, हाई बैंड और बीटा के रास्ते होते हुए इनपीएस, विजआरटी, आक्टोपस जैसी तकनीक से हो रही है। लेकिन आज किसी की भी चमड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद चमड़ी मोटी हो गई है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज का भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है. मीडिया के काफी बड़े हिस्से ने सरकार से हाथ मिला लिया है और एक ने उससे भी आगे बढ़कर अपने व्यावसायिक हितों के लिए समानांतर सरकार चलाने जैसी कोशिश भी की है। पत्रकारिता एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है. इस समय भारत में देशभक्ति से पूर्ण पत्रकारिता की जरूरत है जो आजादी से पहले हुआ करती थी। आज सस्ती टीआरपी की होड़ लगी है। एक बार भारत ने अग्नि मिसाइल का सफल प्रक्षेपण किया, यह महत्वपूर्ण समाचार भारतीय समाचार पत्रों और टीवी में बड़ी खबर बनकर नहीं आई लेकिन दूसरे देशों के समाचार पत्रों में इस खबर को कहीं अधिक प्राथमिकता दी। समाज में व्याप्त बुराइयां इस पवित्र पेशे को भी दागदार बना चुकी हैं। जब दर्पण ही दागदार हो गया तो वह भला कैसे बता सकेगा समाज की सच्ची तस्वीर। भद्र लोगों के पेशे पत्रकारिता में आज के समय दिखाई देने वाला ट्रेंड काफी निराशाजनक है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना जाता है। जब न्यायपालिका को छोड़कर लोकतंत्र के बाकी स्तंभ भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की समस्याओं से जूझ रहे हैं, तो ऐसे समय पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है। लेकिन दुखद बात तो यह है कि अब तो समाचारों की विश्वसनीयता पर भी संदेह होने लगा है। पत्रकारों का यह दायित्व है कि वे लोगों को सही खबरों से अवगत कराएं और उनमें लोकतंत्र की आस्था को मजबूत करें। 

इससे बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है जब अखबारों के मालिक ही राजनीतिक दलों से डील कर पैसे लेकर उनके पक्ष में समाचार छापते हैं, तब फिर मातहत अधिकारी और कर्मी भी तो यही करेंगे। गंगा गंगोत्री से ही मैली हो रही है। सफाई की शुरुआत भी वहीं से करनी होगी लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? लोग पत्रकार क्यों बनते हैं-जन सेवा के लिए या फिर जैसे-तैसे पैसा कमाने के लिए। माना अब पत्रकारिता अब मिशन नहीं रहा, लेकिन इसको मिशन बनाया जा सकता है। तेज सफर में पत्रकारों को पत्रकारिता जगत के लिए शहीद भी होना पड़ा परन्तु इन कलम के रखवालों ने अपनी कलम की रोशनी को कम नहीं होने दिया और भ्रष्टाचार जैसे कुकुरमुत्ते का विनाश किया लेकिन समय बदलते ही कलम की रोशनी पर भी तेज आंच आयी जो आज भी बदस्तूर जारी है। पत्रकारिता जगत में पत्रकारों को हर पल अपने जान-माल का खतरा भी रहा है लेकिन कलम के रखवालों ने अपनी कलम की रोशनी को यूं ही जाय नहीं होने दिया और अपनी कलम की रोशनी को पूरे पत्रकारिता जगत पर बिखेर कर रोशन कर दिया। पत्रकार एक ऐसा शब्द है जिसकी रक्षा करना हर कलम के जादूगर का फर्ज है और यही सोच ले बहुत से कलम के हुनरदारों ने पत्रकारिता जगत में धूम-धड़ाके से प्रवेश किया परन्तु समाज ने उन्हें उनका फर्ज भुलाकर अपनी मुट्ठी में कैद करने की कोशिश शुरू कर दी। पत्रकार को मुट्ठी में कैद करने की चालें देश के गद्दारों, भ्रष्टाचारियों, अवैध धंधे करने वालों ने करके पत्रकारिता की गरिमा को ठेस पहुंचाकर कलम के हुनर को दबाने की कोशिश की और हरदम उनका प्रयास और तेज है। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

दूसरी समस्या पत्रकारों के सामने जान के खतरे के रूप में भी आन पड़ी है। आज के इस भ्रष्टाचारी दौर में पत्रकार जब भी किसी भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करना चाहता है तो उसे जान से मारने की धमकी दी जाती है। आज पत्रकारिता दिवस के अवसर पर समस्त देश के पत्रकारों, लेखकों, बुध्दिजीवियों, को पीत-पत्रकारिता त्याग समाज में जन्मे पाप, भ्रष्टाचार, घोटालों का भंडाफोड़ कर पत्रकारिता जगत की गरिमा को बनाये रखने के प्रण लेने चाहिये। सब चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार देश के चैथे स्तम्भ को मजबूत बनाये रखने में अपनी भागीदारी निभायें। सभी स्वार्थों का त्यागकर पत्रकारिता जगत में बेखौफ कलम चलाकर भ्रष्टाचारियों के चेहरे बेनकाब करने चाहिए। वह दौर-ए-गुलामी था, यह दौर-ए-गुलामां है-पत्रकारिता के संघर्ष की इससे दो दिशाएं साफ होती हैं। तब ‘मिशन’ था अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का और अब दौर है आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दासता से मुक्ति का। इसी ‘मुक्ति’ की चाहत के साथ समर्पित भाव से काम करने वाले दुनिया के 29 देशों में 141 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दीं। आंकड़े देखें, तो सीरिया पत्रकारों व पत्रकारिता के लिए सबसे खतरनाक देश है। भारतीय पत्रकारिता के बारे में भी कहा गया-‘तलवार की धार पे धावनो है’- पत्रकारिता तलवार की धार पर दौड़ने के समान है। सचमुच इन 141 पत्रकारों ने सिर्फ एक वर्ष 2012 में ऐसा कर दिखाया। इनके जज्बे को भी सलाम करने का मौका है- पत्रकारिता दिवस। हमें पत्रकारिता में सच्चाई के लिए लड़ना सिखाया गया था और मेरा भी वही उद्देश्य था और इसीलिए मैं मीडिया से जुड़ा भी लेकिन सच्चाई वो नहीं थी वो तो सिर्फ एक परछाई थी जिसे मैं पकड़ने की कोशिश कर रहा था। भदोही में कुछ टीवी न्यूज चैनल व प्रिंट मीडिया के पत्रकारों का हाल यह है कि थाने में जाकर पुलिस वालों से 100-100 रुपए वसूल करते हैं, और यदि कोई ना करे तो उन्हें ब्लैक मेल करते हैं। अब तक पुलिस के बारे में तो सुनता था, लेकिन पुलिस वालों को ब्लैक मेल किया जाने लगा है। 

आज तक टीवी न्यूज चैनल से संबंद्ध लेखक सुरेश गांधी संपर्क :  [email protected]

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement