शशिभूषण-
प्रतिभा प्रशिक्षण नहीं जन शिक्षण
मैं कई महीनों से देख रहा हूं कि कात्यायनी और कविता कृष्णपल्लवी कवि लेखक पंकज चतुर्वेदी की ध्वंसात्मक आलोचना में सतत रत हैं। आप दोनों की यह संलग्नता इतनी चौकस, त्वरित और निरंतर तीखी है कि पंकज चतुर्वेदी की एक फ़ेसबुक पोस्ट जिसमें सिर्फ़ किसी का उद्धरण मात्र हो उसकी भी नोटिस ले लेना उसका खंडन करना इनकी दिनचर्या में शामिल है।
यह कैसी जिद जुनून है? नहीं, यह अति है। समय की बर्बादी है। इसमें ईर्ष्या की भयंकर प्रवृत्तियां हैं। पंकज चतुर्वेदी इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं? मेरे खयाल से पंकज चतुर्वेदी प्रथम दृष्टया एक संवेदन शील और सचेतन मनुष्य होने के कारण ही निरंतर सृजनात्मक हैं। लिखना ही उनका मुख्य काम है। मुझे नहीं लगता उनकी किसी कक्षा में विनीत कुमार या अमितेश कुमार से अधिक विद्यार्थी होते होंगे। उनकी लिखित सृजनात्मकता का स्रोत संवेदना ही है। यही कारण है कि उनकी कविताओं में लोगों का भला सोचने वाले सामायिक राजनीतिक हस्तक्षेप और कुछ श्रेष्ठ सृजनात्मक व्यक्तित्वों की स्मृति संरक्षण का रचनात्मक प्रयास प्रमुखता से दिखाई देता है।
कुछ तीखी राजनीतिक काव्य टिप्पणियों और दिवंगत या समकालीन साहित्यिक व्यक्तियों के संस्मरण से यह डरने लगना कि पंकज चतुर्वेदी अमर होना चाहने की ओर बढ़ते सफल होते जा रहे हैं यह ईर्ष्यालु भ्रम है।
लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि कात्यायनी और कविता कृष्ण पल्लवी पंकज चतुर्वेदी से उसी प्रकार लगातार जूझती रहती हैं जैसे पंकज चतुर्वेदी पुष्यमित्र शुंग के दरबार में बैठने वाले कोई वाल्मीकि हों। जिन्हें भारत भूमि में दलितों के ऋषि का दर्ज़ा मिल चुका। जिनसे रामायण और महाभारत दोनों का ही मेनिफेस्टो मनुस्मृति भविष्य में संचालित होने वाला हो।
अंत में मुझे यही कहना है कि ‘प्रतिभा प्रशिक्षण’ से अधिक आवश्यक है, ‘जन शिक्षण’। जन शिक्षण छोड़कर पंकज चतुर्वेदी जैसे किसी समकालीन लेखक के प्रतिभा प्रशिक्षण में लग जाना समय की बरबादी और सचमुच की जन पक्षधर प्रतिभा का लगभग दुरुपयोग ही है।
अगर एक्टिविस्ट कात्यायनी और कृष्ण पल्लवी और लगभग निंदक से धीरेश सैनी किसी भी समय पंकज चतुर्वेदी के खंडन को लोक कल्याणकारी मानते हैं लेकिन उसी वक्त उदाहरण स्वरूप कुमार अंबुज के लेखन को प्रशंसा और प्रचार के लायक नहीं मानते हैं तो इसके दो ही मतलब हो सकते हैं- पहला ये कुमार अंबुज को पढ़ नहीं रहे और दूसरा इन्हें श्रेष्ठ वैचारिक साहित्य के प्रचार प्रसार से विशेष लेना देना नहीं है। केवल अपना सिक्का जमाना है। इसी कारण मैं कात्यायनी और कविता कृष्ण पल्लवी के पंकज चतुर्वेदी विषयक खंडन श्रम को समय की बरबादी मानता हूं।
दोहरा रहा हूं, प्रतिभा प्रशिक्षण से अनिवार्य है जन शिक्षण। और कात्यायनी एवं कविता कृष्ण पल्लवी जैसे एक्टिविस्ट जन शिक्षण के ही बेहतर मनुष्य हैं। इन्हें पंकज चतुर्वेदी जैसे किसी ठीक ठाक हिंदी रचनाकार के पीछे इतना भागना मुझे पहले चौंकाता है फिर तीव्रता से समय की बरबादी लगता है।
मैंने अगर कोई छोटा मुंह बड़ी बात कह दी है, तो माफ़ी चाहता हूं।
Kavita Krishnapallavi- आपको यह बताना चाहिए कि आलोचना का जो मुद्दा है वह सही है या ग़लत! मैंने कल शायद पहली बार पंकज चतुर्वेदी द्वारा उद्धृत बुद्ध के एक कालविच्छिन्न उद्धरण पर कमेंट किया जो सीधे वर्ग-सहयोग का संदेश देता है मेरी दृष्टि में! अगर कोई बात ग़लत लगे तो उसकी आलोचना क्यों न करें! आलोचना और निन्दा में फ़र्क़ करना सीखिए महोदय! और कोई अगर लगातार ग़लत बात करे तो लगातार आलोचना भी की जा सकती है! बात आलोचना के अंतर्निहित तर्क की हो सकती है कि वह सही है या ग़लत! कात्यायनी ने जो मुद्दा उठाया था, उसपर भी बातचीत के बाद ही खुर्दबीन लेकर किसी पूर्वाग्रह की तलाश करने का किसी को हक़ है! मैंने एक वर्ष के भीतर ग़लत प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दस-बारह लोगों की आलोचना की होगी (और शायद इससे भी अधिक लोगों ने मेरी आलोचना की होगी जिसका मैं स्वागत करती हूँ). आपको सिर्फ एक आलोचना दीखी और फ़ौरन ऊंची कुर्सी पर चढ़कर नसीहत झाड़ने बैठ गये. और तुर्रा यह कि इसतरह से कमेंट कर दिया जैसे मैं और कात्यायनी यह काम गुट बनाकर कर रहे हैं. मज़ेदार बात यह है कि कात्यायनी पर भी पंकज ने उसी दौर में कई परोक्ष कमेंट किये थे और बिना बहस में उतरे उनकी विचारधारात्मक अवस्थिति पर भी कई निर्णयात्मक और व्यंग्यात्मक कमेंट किये थे, उनपर कुछ कहना आपको उचित नहीं लगा. यह बताता है कि आप ख़ुद ही पूर्वाग्रह-व्याधि से पीड़ित हैं, या शायद इन आलोचनाओं से आपको भी चोट लग गयी है. मुद्दे पर कोई बात न करके मुद्दा उठाने वाले पर निशाना साधना और ऐसा करते हुए सहृदय उपदेशक की मुद्रा अपना लेना — यह एक चतुर रणनीति है जो अक्सर गुटबाज किस्म के लोग अपनाया करते हैं, या फिर वे लोग ऐसा करते हैं जिनकी न तो सैद्धान्तिक मुद्दों की कोई समझ होती है, न कोई उसूली प्रतिबद्धता! बड़ी बात कहने के लिए कोई मुँह छोटा नहीं होता, पर कई बार ओछी बात कहने से बड़ा मुँह भी छोटा ज़रूर लगने लगता है. दूसरी बात, प्रतिभा-प्रशिक्षण के बिना जन-शिक्षण की बात कोई कूपमंडूक ही सोच सकता है. तीसरी बात, किसी उसूली मुद्दे पर आलोचना प्रतिभा-प्रशिक्षण का काम नहीं. चौथी बात, जिस मुद्दे को हम ज़रूरी समझेंगे उसपर बहस और आलोचना करेंगे ही करेंगे और एक व्यक्ति अगर कई बार ग़लत बात करेगा तो कई बार उसकी आलोचना करेंगे, चाहे किसी पूर्वाग्रहित या नासमझ व्यक्ति को यह सुनियोजित हमला ही क्यों न लगे! बौद्धिकों के बीच तीखे आलोचनात्मक विमर्शों की लंबी परंपरा है, जो सोहर गाने वाले और मुँहदेखी बतियाने वाले मंडलीबाजों को ज़रा भी नहीं सुहाती!
Shashi Bhooshan- मैंने आप दोनों को सोच समझकर एक्टिविस्ट और जन शिक्षण की बेहतर मनुष्य कहा है। अगर आप गहराई में जाकर विचार करेंगी तो पाएंगी कि जन शिक्षण ही प्रतिभा प्रशिक्षण भी है। जनता के बीच से ही प्रतिभाएं निकलती हैं। निरा प्रतिभा प्रशिक्षण जनता के लिए ग्राह्य भी मुश्किल से होता है। और आलोचना का हक़ मुझे भी है। बुद्ध के एक उद्धरण की पोस्ट को जिस तरह आपने एक बड़ा खतरा भांप लिया वही अति है। इस तरह आप्त जन चेतावनियां व्यक्तिगत होकर ही रहती हैं। बेहतर होता आप पंकज चतुर्वेदी का कोई बचाव ढूंढने से पहले कुमार अंबुज का प्रचार पढ़ पातीं। दोनो ही स्थिति में मैं वही रहता आपकी नज़र में।