मजीठिया वेतनमान को लेकर आज एक-एक पत्रकार जागरुक है अपने अधिकारों को समझता है। ऐसे में खुली आंखों के सामने कोई चोरी कर ले यह संभव नहीं। आज मजीठिया आंदोलन की मशाल कई वरिष्ठ पत्रकारों के हाथ में है। भले ही प्रेस मालिक शुरूआती आंदोलन झेल जाए लेकिन लंबे समय तक मजीठिया वेतनमान की राह रोकना मुश्किल होगा।
कानून तो इतने हैं कि आपका कोई हक मारे तो आप उसे जिंदगी भर के लिए रूला सकते हैं और उठते-बैठते सोते- जागते उसे कोर्ट, पुलिस और जेल ही दिखेगी। मजीठिया वेतनमान की लड़ाई लड़ रहे पत्रकार यदि मानसिक प्रताडऩा, मानहानि, आर्थिक क्षति पहुंचाने का आरोप लगाते हुए जिला न्यायालयों में क्रिमिनल केस दायर करें तो प्रेस के वरिष्ठ अधिकारी और मालिक किसी का हक मारना भूल जाएंगे। अब ऐसा नहीं है कि आपका केस लेबर कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है तो आप मानसिक प्रताडऩा, मानहानि, आर्थिक क्षति पहुंचाने का प्रकरण नहीं दर्ज कर सकते। और मजीठिया वेतनमान नहीं देने का आरोप सैलरी स्लीप देखकर स्वत: सिद्ध होता है। चूंकि डिफरमेसन का मामला बनता है ऐसे में जमानत मिलने की भी उम्मीद कम रहती है।
बहुत से चालाक प्राणी ऐसा कोई दस्तावेज नहीं देते जिससे यह सिद्ध हो सके कि वह अमुक संस्थान का कर्मचारी है। ऐसे में श्रमिक की बात ही आखिरी मानी जाती है। पत्रकारिता में ये बीमारी बड़ी आम है। ऐसे में पत्रकार प्रेस संस्थान में जाल-साजी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, टैक्स में चोरी का प्रकरण दर्ज करा सकते हैं। वह पत्रकार उक्त संस्थान का कर्मचारी है तो उसकी गवाही अंतिम सत्य मानी जाएगी। ऐसे में भ्रष्टाचार अधिनियम २०१५ की धारा १३ १ (डी), आईपीसी की धारा ४२०, १२० बी, ४०९, ३४ के तहत प्रकरण चल सकता है। हां कुछ लोगों की सेटिंग सीधे जज तक होती है और जज केस में टाल मटोल करता है।
ऐसे में यदि जज जानबूझकर देरी करे तो बहुत से आवेदक यह अनुरोध करते हैं कि चूंकि मेरा प्रकरण इतने समय से चल रहा है और मुझे आप से न्याय मिलने की उम्मीद है इसलिए प्रकरण में या तो त्वरित कार्यवाही करें या केस अन्य न्यायालय में स्थानांतरित करने की अनुमति प्रदान करें। इस हथियार का उपयोग अंतिम दौर में किया जाता है। क्योंकि ऐसा आवेदन लेते ही जज का काम तमाम हो जाएगा। और कोई भी अदालत ऐसे आवेदन नहीं लेती इसलिए कुछ लोग पंजीकृत डाक से आवेदन भेजते हैं। दूसरा यह कि कोर्ट में भी आरटीआई लागू होता है। यहां फैसलों पर प्रश्र खड़ा करने को छोड़कर आप कुछ भी जानकारी मांग सकते हैं। और आरटीआई की भयावहता का वर्णन करने की जरूरत नहीं। ताजुब होता है ना कि इतने कानून होते हुए भी एक प्रेस मालिक पत्रकार के सामने अकड़कर चलता है।
एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
Aurangzeb Ziddi
July 23, 2016 at 7:05 am
very nice thing for jounalist bother and sister