डॉ. कृष्णमोहन और किरण का मुद्दा स्त्री-पुरुष के साथ दो इंसानों का भी है. सीमित समझ की पतित मीडिया ने इसे पीड़ित स्त्री बनाम प्रताड़क पुरुष बना दिया है. यहाँ तक कि प्रशासन भी मक्कार मीडिया के दबाव में कार्र्वाई करने की बात, अप्रत्यक्ष तौर पर, स्वीकार रहा है. इससे शायद ही किसी को गुरेज होगा कि सबको न्याय मिले पर ऐसा भी क्या भय खाना कि आप दूसरे की गर्दन देकर अपनी गर्दन बचाएँ. ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि सच सामने हो.
यह बात दुहरा देना चाहता हूँ ( ताकि लोग “कौआ कान ले के भागा” वाले अन्दाज में हमला न करें ) कि किसी भी मामले में न्याय ही अंतिम पैमाना होना चाहिए और हम सब उसकी तरफ हैं जो निर्दोष है पर इसका क्या अर्थ कि हम मामले को जाने भी नहीं ? तो आखिर यह फैसला कैसे होगा कि कौन निर्दोष है और कौन दोषी ? मामला यह है कि इनके बीच अलगाव/ तलाक से सम्बन्धित मुकद्मा न्यायालय में है. किरण घोषित तौर कृष्णमोहन से अलग रहती है. इस बाबत उनके बीच समझौता भी हुआ था कि तलाक होने तक वो दोनों अलग रहेंगे. एक निश्चित माहवार भत्ता भी तय हुआ था. कोई भी यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि जब अलग रहना तय हुआ है तो क्यों किरण बार बार घर में प्रवेश करने की जुगत लगाती रहती हैं ?
यह कई मर्तबा हो चुका है जब किरण ने मीडिया के सह-प्रायोजन में कृष्णमोहन के घर के सामने धरना प्रदर्शन या घर में भीतर जाने की कोशिश की हैं. ध्यान रहे कि मामला जब अदालत में है तो मेरी समझ के बाहर यह है कि जबरिया घर में घुसने की कोशिश को क्या कहा जाए ? अगर कोई ‘हिडेन अजेंडा’ न होता तो किरण को मीडिया और पुलिस के लाव-लश्कर के साथ घर में घुसने की कोशिश का कोई मतलब नहीं था. कायदे से उन्हें न्यायालय के निर्णय का इंतजार करना चाहिए. सस्ते सिनेमा के अलावा यह कहीं भी सम्भव नहीं दिखता कि तलाक की अर्जी भी पड़ी रहे और साथ साथ रहा भी जाए. यह भी ध्यातव्य हो कि किरण अपना सारा सामान घर से लेकर बहुत समय पहले ही जा चुकी हैं. अगर उन्हें कोई सुबहा है तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाहिए. लोमड़ी मीडिया को थानेदार बनाने का शगल गलत है.
मानवाधिकार व्यक्ति के, भी, होते हैं, सिर्फ समूह के ही नहीं. घर से अलग रहने का निर्णय लेने के बाद, अदालत की कार्र्वाई के दरमियान, घर में घुसने की कोशिश क्या इस कदर निर्दोष है ? वो भी तब जब आप पहले से ही अलग रह रहें हों. या क्या भारतीय व्यव्स्था ने ठान लिया है कि दो ही छोर पर रहना नसीब है, एक छोर जिसमें आप स्त्री को इंसान भी न समझे और दूसरा छोर यह कि स्त्री होना ही निर्दोष होने की निशानी हो.
जिस वीडियो का हवाला मन्द-बुद्धिजीवी, मीडिया और साथी, दे रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि आखिर उस विडियो में कृष्णमोहन के कपड़े फटे हुए हैं. और कोई भी समझ सकता है कि वह वीडियो घर में घुसने की जिद और न घुसने देने की जद्दोजहद की है. यह सारा मामला उन्हें उकसाने के लिए प्रायोजित किया गया था. आखिर वही मीडिया इस बात का जबाव क्यों नहीं देता कि जब अलग रहना तय हुआ था तो किरण वहाँ क्या कर रही थीं ? अगर उन्हें शक था तो क्या उन्हें कानूनी मदद नहीं लेनी चाहिए थी ? घर में घुसकर तमाशा करना भी एक नीयत हो सकती है. वरना जहाँ प्रेम विवाह रहा हो, वहाँ ब्याह के इतने वर्षों बाद दहेज उत्पीड़न के तहत मामला दर्ज करना साफ नीयत का मामला नहीं है.
उस वीडियो को बनाने वालों से यह क्यों न पूछा जाए कि जिस स्त्री के पक्ष में तुम वीडियो उतार रहे हो, अगर – तुम्हारे अनुसार – उस पर जुल्म हो रहा था तो तुम कैमरा पकड़ने की बजाय उस स्त्री को बचा भी तो सकते थे. अभी जो आतंकवादी मीडिया को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं उन्हें ध्यान देना चाहिए कि पिछले दिनों इस मीडिया ने खुर्शीद अनवर का क्या किया. बाजार की पतलून के पिछले हिस्से से गिरा यह मीडिया स्त्री-पुरुष मामलों में इतना एकतरफा होता है कि इसके सामने आप अपनी बात भी नहीं रख सकते.
मैं इन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ. अपनी इस उम्र तक मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ उसमें शायद ही कोई मिला हो जो कृष्णमोहन के स्तर का हो. गज़ब के इंसान हैं. मैने देखा है कि इंसान तो इंसान अपने कुत्ते की मामूली बीमारी तक में वे अन्दर से परेशान हो उठते हैं. घर के सभी सदस्यों का ख्याल रखना कोई उनसे सीखे. ऐसे में टुकड़े टुकड़े खबरों से किसी को परेशान किया जाता हुआ देखना दु:खद है. और इतनी तो इल्तिजा कर सकता हूँ कि पुलिस अपनी किसी भी कार्रवाई में मीडिया के दबाव को कारण न बनाए.
चंदन के ब्लाग ‘नई बात’ से साभार.
Vimal Kumar : वाराणसी के हिन्दी प्रोफेसर की घटना से बहुत दुखी हूँ .दुखी इसलिए कि वो प्रगतिशील विचारों के रहे हैं और कभी जसम में भी थे वे .उन्होंने सुधीर ककड़ के वात्स्यायन की जीवनी पर चर्चित उपन्यास के सुन्दर अनुवाद किया है .उस अनुवाद का मैं मुरीद रहा .उस पर उन्हें साहित्य अकेडमी पुरस्कार मिला था .पर इंसानी रिश्तों में खासकर पति पत्नी के रिश्तों में खटास क्यों आती है. मैं समझ नहीं पाया आज तक. .जो भी हो बहुत दर्दनाक है .मेरे दो अज़ीज़ दोस्तों के साथ हुआ जिस से मैं काफी परेशां रहा ..आनंद प्रधान के बाद दूसरी ऐसी घटना जिस से व्यथित हुआ. लेकिन आनंद प्रधान दम्पति अधिक परिपक्वा थे .पति पत्नी में दंगे फसाद मार पीट किसी भी तरह नहीं होना चाहिए .अगर आपस में नहीं बनता हो तो चुपचाप शांतिपूर्वक अलग रहना चाहिए .तमाशा बनाने से क्या फायदा …मुझे समझ में नहीं आता कि ये सब क्यों होता है क्या प्रेम के अ भाव के कारण या क्या ये वर्चस्वा की लडाई है .अगर कोई किसी कारण नहीं प्रेम कर रहा है तो जबरदस्ती नहीं करना चाहिए.लेकिन हम अक्सर इस तरह की घटनाओं का सरलीकरण भी कर देते हैं और फ़ौरन निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं .पति को भी ऐसी ओछी हरकत नहीं करनी चाहिए.रिश्तों में इमानदारी तो होनी चाहिए .एक गरिमा बनाये रखना जरूरी है पर हर आदमी का व्यक्तित्वा संतुलित नहीं होता .क्रोध के कारण बुरी घटनाएँ हो जाती हैं .
यूनीवार्ता के पत्रकार विमल कुमार के फेसबुक वाल से.
Abhishek Srivastava : एक व्यक्ति अपने घर के भीतर से एक महिला को घसीटते हुए, लात मारते हुए घर के बाहर ले आता है। वह अपनी मरदानगी के नशे में ऐसा उन्मत्त है कि मारते-पीटते वक्त उसकी लुंगी तक सरक जाती है, पिछाड़ी उघड़ जाती है, फिर वह लुंगी को समेट कर दोबारा लात चलाना शुरू करता है। बाद में वह शर्ट-पैंट पहनकर जब बाहर आता है तो उस औरत को सड़क पर धकेल देता है। एक नहीं, कई बार। यह सब कुछ, महिला की चीख-पुकार समेत कल से टीवी पर आ रहा है, अखबारों की सुर्खियों में है और गूगल पर भरा पड़ा है। केस दर्ज है। बस, बिरादरी चुप है। बड़े-बुजुर्ग चुप हैं। अगर कैमरा झूठ नहीं बोलता, तो टीवी पर दिखी तस्वीरों को देखने के बाद कुछ न बोलना झूठ बोलने से भी बड़ा पाप होगा। क्या हिंदी का पुरस्कृत आलोचक होना, विश्वविद्यालय का शिक्षक होना, मनुष्य होने से भी बड़ा तमगा है?
पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वाल से.
Ashok Azami : सोचा था नहीं बोलूँगा. लेकिन नहीं बोलना बेईमानी होती. इसे सुन-देख कर ऐसा लगा कि जैसे किसी ने मेरे गाल पर तमाचा मारा हो. प्रेम, तलाक वगैरह सामान्य बात है. उससे मुझे कोई दिक्कत नहीं. लेकिन एक स्त्री के साथ यह व्यवहार? वह भी एक साहित्यकार द्वारा? शर्मनाक बहुत छोटा शब्द है कृष्णमोहन जी. बहुत छोटा. मैं बनारस ज़िला प्रशासन से मांग करता हूँ कि इस मामले में उचित क़ानूनी कार्यवाही की जाए.
कवि और पत्रकार अशोक पांडेय के फेसबुक वाल से.
Om Nishchal : यह पुराना मामला है, बनारस में रहने के नाते जानता हूँ। आपस में रिश्तों में खटास इसकी वजह है। अचानक यह प्रकरण इस मोड़ तक आ जाएगा, यह नही पता था। पर यहां तो जैसे हंगामा करने व इसका साक्ष्य करने के सारे इंतजाम कर लिए गए हैं। सारे बुद्धिजीवी क्या वहां ताली बजाने में लगे थे, कोई समझा बुझा नहीं सकता था। बीएचयू के अन्य प्रोफेसरों को यह प्रकरण पता है। पर इसमें केवल कृष्णमोहन ही दोषी हों यकीन नही होता। हां जो दृश्य यहां फिलमाए गए हैं, उनमें वे क्रूर अवश्य दिख रहे हैं। पर जब पति पत्नी के बीच दीवार खडी होती है और मामले को तूल देने के लिए लोग पेट्रोल डालने में लगे हों, तो यह होना स्वाभाविक ही है। पर यह कहना ठीक नही कि दारोगा के बेटे हैं इसलिए ऐसा कर रहे हैं।दारोगा के बेटे तो मुक्तिबोध भी थे। यह भी नहीं कि ठाकुर हैं इसलिए ठकुरई बघार रहे हैं। ऐसे प्रकरण में अग्निवर्षा करने के बजाय इसे सुलझाने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह एक नहीं दो दो जिंदगियों व उनके परिवार की सुख शांति का मामला है। है कोई जो शेम शेम करने के बजाय ठंडे दिल से सोचे कि ऐसा क्यों हो रहा है कि एक बुद्धिजीवी इस हद तक उतर आया है। स्त्री के हक में आगे आना ठीक बात है। पर बीएचयू के बुद्धिजीवी क्या कर रहे हैं कि टीवी टीमें डेरा डाले हैं और कोई बचाव तक नही कर रहा है। जब कि दिन दहाडे यह सब हो रहा है। यदि उनके मित्र ही उन्हें समझाते तो क्या ऐसी नौबत आती कि बीएचयू परिसर या जहां भी वे रह रहे हों, ऐसी नौबत आती। यह समाज क्या ऐसे प्रकरणों की केवल रपटें और दृश्यालेख ही तैयार करने के लिए बना है या वह कोई ठोस कार्रवाई भी कर सकता है। क्या सामाजिक रिश्ते आज इतने आभासी हो चुके हैं कि एक स्त्री पिट रही है और कोई बचाने तक नही पहुंच रहा है। यह सब इस सामाजिक पारिवारिक रिश्तों के ठंडे होते जाने की वजह है। कृपया मेरा क्षोभ समझें।
साहित्यकार ओम निश्चल के फेसबुक वॉल से.
Subhash Chandra Kushwaha : मित्रों ! इस प्रकरण के कई दुखद पहलू हैं . निसंदेह कृष्ण मोहन ने शुरू में पत्रिका भी निकली और कालिया जी जब वागर्थ के संपादक थे तो उन्होंने इन्हें देश का सबसे बड़ा आलोचक बनाने की ठान ली . वागर्थ के हर अंक में कृष्ण मोहन रहते. हम लोगों से अच्छी पटती भी. पर एकाएक ऐसा हुआ की २००५-२००६ से इन्होने खुद दूरी बना ली . आज अचानक जब इन्हें अपनी पत्नी को गेट के बाहर फेंकते देखा तो याद आ गया कि ये तो दरोगा के बेटे हैं . कुछ सामाजिक संगठनों की वजह से सभ्य दिखने लगे थे . जैसे ही संगठनो से नाता टूटा, फिर वही ठकुरई. ऐसे मामलों में जब किसी महिला को घसीट कर बाहर सड़क पर किया जाता है, हाथ में डंडा लेकर , गले में हाथ लगाकर जमीं पर पटक दिया जाता है और महिला लगातार चिल्लाती, चीखती रहती है तो तर्क देना शरारत से कम नहीं . यहाँ कुछ विद्वान मामले का कारण ढूढ़ने की बात कर रहे हैं. जब पुलिस को अपराधी को मारने का हक नहीं तो बीबी को किस कारन कोई मारे ? कौन सा कानून आप को इजाजत देता है ? बनारस में रहने वाले ही सारी कथा कहानी बताते रहे हैं . इस कथा को दो सालों से तमाम लोग जानते हैं और यह भी जानते हैं की किसका दोष है और किसका नहीं. आप महिला को लतियाएं और कहें कि लोग मौन रहें . हंगामा करने का साक्ष्य न जुटाएं ?. हम लोग तो दृश देख कर दंग हैं ? खाना -पीना अच्छा नहीं लग रहा ? घर का कुत्ता फिर भी अपनी मालकिन के घसीटे जाने पर हैरान था मगर प्रोफेसर साहब तो सीना फुलाए हल्दीघाटी की लड़ाई लड़ रहे थे . इधर कुछ लोग इसे नितांत निजी मामला बता प्रवचन सुना, धमका रहे हैं ..
साहित्यकार सुभाष चंद्र कुशवाहा के फेसबुक वॉल से.