हिन्दी दिवस एक बार आकर फिर दहलीज़ पर खड़ा है। सितम्बर की चौदह तारीख़ इसके आने के लिये सरकारी तौर पर निर्धारित है। इस कारण इसे आना ही पड़ेगा। सरकारी आदेश है। हुकुम अदूली कैसे की जा सकती है? सरकारी दफ़्तरों में महीना भर मिसल गतिशील हो जाती है। हिन्दी दिवस 14 सितम्बर को हमारे दफ़्तर में भी आयेगा, इसलिये उसके स्वागत के लिये इतनी धनराशि मंज़ूर करने की कृपा की जाये। मिसल आदेश के लिये प्रस्तुत है। अब सरकारी मेहमान के आने पर स्वागत तो होगा ही। इसलिये धनराशि मंज़ूर की जाती है और इस प्रकार हिन्दी दिवस का सरकारी दफ़्तरों में विधिवत स्वागत कार्यक्रम शुरु हो जाते हैं। यह हिन्दी दिवस का सरकारी पक्ष है।
इसे षडयन्त्र नहीं बल्कि संयोग ही कहना चाहिये कि हिन्दी दिवस का आगमन पितृ-पक्ष या श्राद्ध पक्ष के दिनों में ही आता है। श्राद्ध पक्ष में पितरों को याद किया जाता है और उनका मान सम्मान किया जाता है और पक्ष के बीत जाने पर उनको भुला दिया जाता है। उसी प्रकार हिन्दी की स्थिति है। उसका पितृ पक्ष बीत जाता है और हिन्दी के बारे में भी, रात गई बात गई, की कहानी बन जाती है।
हिन्दी इस देश की सम्पर्क भाषा है। केवल भारत की ही नहीं बल्कि भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, और नेपाल तक की सम्पर्क भाषा हिन्दी है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इसने अपनी यह हैसियत 26 जनवरी 1950 को लागू हुये संघीय संविधान की बजह से हासिल की है? हिन्दी ने यह हैसियत तो पिछली अनेक शताब्दियों से अपने बलबूते ही हासिल की हुई है। मध्य काल का भक्ति आन्दोलन, जिसकी जड़ें पूरे देश में फैली हुईं थीं, क्या इसका प्रमाण नहीं है? साधु सन्त पूरे देश में घूमते रहते हैं, आख़िर वे सम्पर्क के लिये शताब्दियों से किस भाषा का प्रयोग करते आ रहे हैं? यह टूटी फूटी या साबुत हिन्दी ही है जो उनको आम जनता से जोड़े रहती है।
गुरु नानक देव जी ने तो अपने जीवन काल में देश का चप्पा चप्पा छान मारा था। अपने साथियों को साथ लेकर आम लोगों से कथा वार्ता करते थे। वे किस भाषा में करते रहे होंगे? यक़ीनन हिन्दी ही थी। मध्यकालीन दश गुरु परम्परा के पाँचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी ने प्रथम पाँच गुरुओं और देश के अन्य सन्तों व भक्तों की वाणी को एकत्रित और सम्पादित करने का जो भागीरथ अभियान चलाया था, वह इस भाषा की सम्पर्क शक्ति का भी तो प्रमाण है। असम के शंकर देव से लेकर पंजाब के श्री गुरु नानक देव जी तक जो संदेश दिया जा रहा था, वह इसी सम्पर्क भाषा में तो था। लेकिन हिन्दी को अपनी इस स्थिति की घोषणा के लिये किसी सरकारी अधिसूचना की जरुरत नहीं पड़ी। वह उसकी अपनी उर्जा थी जिसने उसे इतना व्यापक बनाया।
लेकिन विदेशी मुग़लों की सत्ता समाप्त हो जाने और अंग्रेज़ों के इस देश से चले जाने के बाद जो नई सांविधानिक व्यवस्था स्थापित हुई, उसने विधिवत हिन्दी को इस देश की सम्पर्क भाषा घोषित कर दिया। इसकी व्याख्या कैसे की जानी चाहिये? क्योंकि आख़िर हिन्दी सम्पर्क भाषा है, यह संविधान का अनुच्छेद भी है। इसलिये उसकी क़ानूनी व्याख्या होना भी जरुरी है। देश की जनता आपस में सम्पर्क के लिये किस भाषा का प्रयोग करे, इसके लिये जनता को किसी सांविधानिक व्यवस्था या सांविधानिक अनुमति की जरुरत तो नहीं ही है। फिर संविधान में इसे दर्ज करने की व्याख्या कैसे की जाये?
इसका उद्देश्य क्या रहा होगा? शायद इसका अर्थ यह है कि सरकार आपसी कामकाज में और सभी प्रान्तों से सरकारी पत्र व्यवहार में हिन्दी भाषा का प्रयोग करेगी। सरकार का यह संकल्प निश्चय ही सराहनीय कहा जायेगा। इसका अर्थ यह है कि देश की जनता व्यवहारिक स्तर पर जो काम शताब्दियों से करती आई है, सरकार ने उसको केवल मान्य ही नहीं किया बल्कि जनता को यह भी आश्वासन दिया कि भविष्य में सरकार भी विभिन्न प्रान्तों से अन्तर्संवाद में हिन्दी भाषा का प्रयोग करेगी।
लेकिन दुर्भाग्य से सरकार सम्पर्क भाषा के तौर पर हिन्दी को सरकारी कामकाज में विकसित करने का अपना यह सांविधानिक दायित्व निभा नहीं सकी। इसमें उसकी इच्छा शक्ति नहीं है। केवल इतना ही नहीं उसने कुछ स्तरों पर तो इस सांविधानिक दायित्व का विरोध ही करना शुरु कर दिया। कुछ चतुर सुजान इससे भी आगे बढ़े। उन्होंने हिन्दी को भारत की अन्य भाषाओं से लड़ाने के लिये हिन्दी को सम्पर्क भाषा के स्थान पर राष्ट्रीय भाषा ही चिल्लाना शुरु कर दिया। ज़ाहिर है उनकी इस चिल्लाहट से भारत की दूसरी भाषाएँ बोलने वाले लोगों के कान खड़े होते। उन्होंने प्रति प्रश्न किया कि यदि हिन्दी राष्ट्र भाषा है तो भारत की अन्य भाषाएँ क्या अराष्ट्रीय हैं? तुरन्त उत्तर मिला, नहीं, क्षेत्रीय भाषाएँ हैं।
तब तो मामला साफ़ है। भारत की सब भाषाएँ क्षेत्रीय हैं। अन्तर इतना ही है कि किसी का क्षेत्र छोटा है और किसी का बड़ा। भारतीय भाषाओं की संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार संवाद समिति को पुनर्जीवित करने वाले श्रीकान्त जोशी जी कहा करते थे कि भारत की सब भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं और एक दूसरे की पूरक हैं। इसलिये हिन्दुस्थान समाचार 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस की बजाये भारतीय भाषा दिवस मनाता है। सरकारी कामकाज में हिन्दी को सम्पर्क भाषा के तौर पर न विकसित हो पाने के कारण विभिन्न प्रदेशों में भी सरकारी कामकाज की भाषा वहाँ की भाषाएँ नहीं बन पाईं और अंग्रेज़ी का वर्चस्व बरक़रार रहा। हिन्दी को और अन्य भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा कर अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के चले जाने के साठ साल बाद भी अपदस्थ नहीं हो सकी, इसे अंग्रेज़ों की प्रशासनिक व मनोवैज्ञानिक दक्षता का प्रमाण ही मानना होगा। हिन्दी दिवस के मौक़े पर भारतीय भाषाओं के ख़िलाफ़ रचे गये इस षड्यंत्र को क्या हम बेध पायेंगे? यह सब से बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर सरकार को भी और भारतीय भाषाओं के समर्थकों को भी देना होगा।
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री