यह सत्य है कि सद्गुरु के बिना आत्मज्ञान संभव नहीं है, अतः आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए इनकी शरणागति अत्यावश्यक है, परंतु यह भी सत्य है कि वर्तमान समय में कलि के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप सर्वत्र छाये घटाटोप अंधकार के कारण मनुष्य अत्यंत विचारहीन हो चला है। उसे सत्य असत्य, और असत्य सत्य भासता है जिससे वह न करने योग्य कर्म तो तुरन्त कर डालता है और करने योग्य कर्म का उसको किंचित्मात्र भान तक नहीं हो पाता।
आत्मज्ञान जैसे सूक्ष्म विषय के सम्बंध में सामान्यजन की जिज्ञासा अथवा जानकारी बहुत ही अधिक सीमित होती है। प्रायः देखा जाता है कि लोगों की इस कमजोरी का लाभ सद्गुरु बन बैठे कतिपय पाखंडी और धूर्त लोग तथा उनके अनुचर उठाते हैं। इनके चेले अपने निहित स्वार्थवश अपने गुरु को ऋषि-महर्षियों की परंपरा का आदर्श पुरुष निरूपित करते हुए आस्थावान तथा धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को दिग्भ्रमित करने में जरा भी संकोच नहीं करते। यदि थोड़ा-सा भी विचार करते हुए इसकी पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि ये तथाकथित स्वयंभू सद्गुरु कैसे ‘आदर्श पुरुष’ हैं।
देश भर में ऐसे बने हुए सद्गुरुओं की संख्या सैकड़ों-हजारों में होगी, जिनमें से दर्जनों तो लाखों-करोड़ों रुपये निर्लज्जतापूर्वक पानी की तरह बहा कर बनाये-सजाये बड़े-बड़े मंचों से अपना कथित आध्यात्मिक ज्ञान बघारते रहते हैं। इन्हीं में से कुछेक अब विभिन्न चैनलों के माध्यम से धर्म के नाम पर अपना कोरा भ्रमजाल फैला रहे हैं। जबकि इन्हें धर्म के वास्तविक स्वरूप तथा ईश्वर-भक्ति का लेशमात्र भी न तो कोई ज्ञान ही होता है और न इससे इनका किसी भी तरह का दूर तक कोई सम्बंध। ये केवल अपने ही भोग-ऐश्वर्य तथा स्वार्थ-सिद्धि के अंधे कुऐं में गले तक डूबे रहते हैं, उससे बाहर निकलने के सम्बंध में सोचने-समझने का विचार भी इनके अंदर कभी नहीं उठता। यदि ये कभी यह सोचते कि इनका अपना जीवन-लक्ष्य क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है, परमतत्व परमेश्वर वस्तुतः क्या है, उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? तो फिर ऐसे लोग उन कर्मों को कदापि नहीं करते जिनमें वे अहर्निश फँसे रहते हैं।
स्वयंभू कलियुगी गुरुओं का कार्य केवल दूसरों को सदुपदेश देने के अतिरिक्त कुछ दूसरा नहीं होता। वे समझते हैं कि उन्होंने लोगों को कुछ रटी-रटाई बातें सुना दीं तो इससे अधिक करने की उन्हें क्या आवश्यकता है? ऐसे लोगों पर यह उक्ति स्पष्ट चरितार्थ होती है–‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरण करहिं जन थोरे।।’
ईश्वर तथा ईश्वर-भक्ति, उपासना, धर्म, जीवन-लक्ष्य, मोक्ष आदि से सम्बंधित स्वनिर्मित परिभाषाओं-परिकल्पनाओं पर आधारित मत-मतांतरों और पंथों के प्रचार-प्रसार में अनवरत संलग्न रहने वाले ऐसे कलियुगी गुरुजनों के सम्बंध में गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जगद्-विख्यात ग्रंथ रामचरितमानस में स्पष्ट लिखा है–
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किये बहु पंथ।।
(उत्तरकांड–97 क)
अर्थात्–कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गये, दंभियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत-से पंथ प्रकट कर दिये।
वर्तमान समय में अनेक प्रकार के मत-मतांतरों तथा पंथ-संप्रदायों के जन्मदाता स्वयंभू गुरु अपने शिष्यों को चाहे प्रभु-भक्ति में मन लगाने की जितनी भी सीख दे लेवें, परंतु स्वयं इनका मन सदैव काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, तृष्णा, राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि अनेक प्रकार के अवगुणों के कारण अत्यधिक चलायमान रहता है। प्रभु परमेश्वर की कौन कहे, इन्हें स्वयं यह नहीं पता होता कि वस्तुतः उनका अपना जीवन-लक्ष्य क्या है? उनकी वास्तविक चाह क्या है? देव-दुर्लभ मानव-जीवन पाकर उन्हें क्या करना है? इनमें से अधिकांश गुरु अंग्रेजी अक्षर ‘पी’ के पंच-प्रयोग–अधिकाधिक धन (penny-paisa), सम्पत्ति (property), शक्ति (power), आत्म-प्रचार (publicty) तथा राजनैतिक संरक्षण या लाभ (political benefits) प्राप्त करने की जुगत में व्यस्त रहते हैं। कुछ तो अपनी बेनामी सम्पत्ति, बिना हिसाब-किताब वाले चढ़ावे के अपार धन, अनाप-शनाप खर्च आदि जैसे अनेक काले कारनामों पर पर्दा डालने के लिए राजनैतिक नेताओं की परिक्रमा, भेंट-पूजा तथा चरण-वंदना करते हुए अंततोगत्वा स्वयं ही राजनीति के क्षेत्र में उतर कर चुनाव लड़ते हैं। अब उनसे कोई पूछे महाराज, लोगों को तप-त्याग का उपदेश देते हुए स्वयं आप सत्ता के शिखर तक पहुँचने को इतने अधीर क्यों हो उठे? स्पष्ट है कि वर्तमान समय में देश की राजनीति एक ऐसा श्याम विवर (black hole) बन गई है जो सारे भौतिक पदार्थ ही नहीं वरन् प्रकाश (ज्ञान-विवेकद्) तक को भी समूचा निगल जाती है। इस प्रकार विभिन्न लोकेषणाओं में आकंठ डूबे रहने वाले कुछ गुरुओं का निजी जीवन किसी धनपशु की तरह बन जाता है और वे अपने बुने मायाजाल में इस तरह उलझ जाते हैं कि फिर उससे बाहर निकल पाना उनके लिए सर्वथा असंभव हो जाता है और वे छल-छप्रंच से भरी वर्तमान राजनीति के गर्त में आकंठ डूब जाना ही अपने लिए श्रेयष्कर मानते हैं।
आज संसार में ऐसा धर्मगुरु मिलना लगभग असंभव है जो अपने अनुयायियों-शिष्यों से यह कह सके कि झूठ व भ्रष्टाचरण से दूर रहो, रिश्वत न लो, व्यापार में हेराफेरी न करो, अन्याय, शोषण, सार्वजनिक (सरकारीद्) धन-संपत्ति का दुरुपयोग कदापि न करो आदि-आदि। इसके विपरीत इनका जोर सदैव इस बात पर होता है कि नैतिक-अनैतिक कर्म चाहे जितना कर लो, परंतु गुरुजी की सेवा पूरी करो। अनेक धर्मग्रंथों का आश्रय लेकर शिष्यों को समझाया जाता है कि अपनी कमाई (अच्छी-बुरी जैसी भी होद्) का दसवां हिस्सा गुरु महाराज को पूरी श्रद्धा सहित अर्पित करो। ऐसे लोग केवल लेना ही जानते हैं, देना नहीं। वैसे भी सच्चे ज्ञान-पिपासु को देने के लिए इनके पास कुछ भी नहीं होता। ऐसे परले सिरे के धूर्तों के विषय में गोस्वामी जी ने ठीक ही लिखा है–
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महुँ परई।।
(रामचरितमानस–उत्तरकांड/98-4द्)
अर्थात्–जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, परंतु शोक नहीं हरता, वह घोर नरक में पड़ता है।
ऐसे धूर्त और पाखंडी गुरु अपने शिष्यों तथा उनके सगे-सम्बंधियों के धन, सम्पत्ति, श्रम, शक्ति, ऊर्जा, पद, योग्यता, क्षमता आदि का अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए अनवरत शोषण करते रहते हैं। अधिकांश गुरु अपने स्वयं के कुकर्मों के कारण लोगों को सदाचार भरा आदर्श लोक-व्यवहार अपनाने तथा नैतिक व चारित्रिक सुदृढ़ता लाने की बात नहीं कह पाते। जीवन में शुचिता और सदाचार अपनाने की प्रेरणा देने की अपेक्षा ये नकली संत सदैव यही कहा करते हैं–
सद्गुरु से सच्चे रहो, संतों से सद्भाव।
दुनिया में ऐसे रहो, जब जैसा लागे दांव।।
दर्प, अहंकार, विलासिता और धन-लिप्सा में निरंतर डूबे रहने के कारण सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं तथा देश के कानून और नियमों का उल्लंघन करना तो जैसे इन पाखंडियों का जन्मसिद्ध अधिकार ही हो। दया, करुणा, प्रेम, तप, त्याग, विनम्रता, संतोष, सादगी, सदाचार आदि मानवीय मूल्यों तथा दान-धर्म में इनका तनिक भी विश्वास नहीं होता। यहाँ तक कि जिस शिष्य-समुदाय का भावनात्मक शोषण कर ऐश्वर्य से भरपूर विलासितापूर्ण जीवन ये लोग जीते हैं, उन्हीं के प्रति इनकी मानवीय सोच और मानवोचित व्यवहार कहीं भी देखने में नहीं आता। बल्कि उन्हें ये अति हेय दृष्टि से देखते हैं और उन पर शासन करना तथा उनके तन-मन-धन व सम्पत्ति पर ये अपना विशेषाधिकार समझते हैं। उन्हें बात-बेबात झिड़कते रहना, डाँटना-फटकारना, दुत्कारना-धकियाना, संदेह करना इनके लिए सामान्य-सी बातें होती हैं। कभी-कभी शिष्यों पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें बदनाम किया जाता है और उनको मारा-पीटा भी जाता है। कुछ गुरुओं ने ‘आज्ञा’ का पालन नहीं करने से रुष्ट होकर अपने शिष्य-शिष्याओं की हत्याऐं तक करवाई हैं।
अपने प्रवचन ही नहीं सामान्य वार्तालाप में भी शास्त्रों के उद्धरण देने वाले इन पाखंडियों को सम्भवतः यह ज्ञात नहीं होगा कि शास्त्रों के अनुसार शिष्य के प्रति गुरु का व्यवहार सदैव पुत्रवत् होना चाहिए, बल्कि शिष्य का स्थान व महत्व पुत्र से कहीं अधिक होता है। इसी कारण अनेक इतिहास-प्रसिद्ध गुरुओं तथा अवतारी महापुरुषों ने गुरुपद का उत्तराधिकार अपने पुत्र, पुत्री या निकट सम्बंधी को नहीं वरन् शिष्य को सौंपा, क्योंकि गुरु-शिष्य सम्बंध ज्ञान पर आधारित होता है न कि रक्त-सम्बंध पर। परंतु आज के इन झूठे स्वयंभू गुरुओं की सोच इतनी निम्नस्तरीय होती है कि ये अपने शिष्यों की संख्या लाखों-करोड़ों में होने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें से किसी को भी इस योग्य नहीं समझते और गुरुपद सहित सम्पूर्ण अधिकार अपने पारिवारिकजनों में से ही किसी को सौंप देते हैं।
इनमें कुछ निर्लज्ज तो ऐसे भी हैं जो अपने पुत्र-पुत्री को बाल्यकाल से ही ईश्वरीय अवतार अथवा अनेकानेक जन्मों का सिद्धयोगी व जन्मना महान संत घोषित कर देते हैं। इसके दो लाभ उन्हें दिखते हैं–एक, शैशवावस्था से ही बच्चा आय (चढ़ावेद्) का एक अतिरिक्त साधन बन जाता है और दूसरा, आगे चलकर उसे सुविधानुसार अपने धन व संम्पत्ति सहित गुरुआई का उत्तराधिकारी बनाने में आसानी हो जायेगी। यही नहीं विवाहोपरांत इनकी पत्नी को गुरुमाता का पद व मान-सम्मान स्वाभाविक रूप से दिलाया जाता है। इस प्रकार इनके सभी पारिवारिक सदस्य जन्मजात परमज्ञानियों अथवा अवतारी महापुरुषों की श्रेणी में सम्मिलित करा दिये जाते हैं। फिर इन्हें धीरे-धीरे विभिन्न शास्त्रों के उद्धरणों सहित प्रवचन आदि देने का प्रशिक्षण दिया जाता है। ऐसे लोगों पर अंग्रेजी की एक कहावत शब्दशः चरितार्थ होती है–‘devil quotes the scriptures but he can not show you the light’ (शैतान शास्त्रों को उद्धृत तो कर सकता है, परंतु वह आपको आत्म-प्रकाश का दिग्दर्शन नहीं करा सकताद्)।
इस प्रकार निरे अज्ञान में डूबे इन ठगों का अपना जीवन नारकीय बना रहता है। धर्म-विरुद्ध आचरण करने वाले ऐसे पाखंडी गुरु स्वयं ग्रहस्थ तथा वैवाहिक जीवन का भरपूर रस-भोग लेते हुए अपने शिष्य-समुदाय में से चुने हुए कुछ स्वामीभक्त किस्म के लोगों को गेरुवे वस्त्र पहना कर संन्यासी या संन्यासिनी का रूप दे देते हैं, जिनमें अधिकांश युवा होते हैं। स्पष्टतः जीवन का कम अनुभव रखने वाले ऐसी कम आयु के लोगों की दिन-रात धन-संग्रह तथा इसी प्रकार के अन्य श्रम-साध्य सेवा कार्यों के लिए इन्हें आवश्यकता जो होती है। पुरातन काल के गुरुकुलों तथा आश्रमों के उदाहरण देकर इन्हें जीवन-यापन के निमित्त साधारण-सा भोजन, हल्के-फुल्के वस्त्र तथा रहने के लिए साधारण-सी जगह दी जाती है। बीमार पड़ने पर इनको सामान्य-सी दवाइयां तो दिला दी जाती हैं, परंतु गंभीर स्थिति में अधिक धन खर्च होने की दशा में इन्हें अपने घर-परिवार में वापस भेज दिया जाता है। वहाँ जाकर ये मरें या जीवें फिर कोई नहीं पूछता। जबकि इनमें से अधिकांश निर्धन परिवारों से आते हैं।
इस प्रकार जिन्हें दिन-रात सेवा कार्यों में खपाये रखने पर भी वेतन या जेब-खर्च के तौर पर कभी एक फूटी कौड़ी तक न दी गई हो, उनके बीमार पड़ने या मरणासन्न अवस्था में उनको खाली हाथ घर लौटा देना कितना अमानवीय है, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। जबकि इससे पूर्व अपने 30-40 या इससे भी अधिक वर्षों तक के निःस्वार्थ सेवाकाल के दौरान भाई-बहन के विवाह, माता-पिता की अस्वस्थता या किसी प्रियजन की मृत्यु आदि ऐसे अनेक महत्वपूर्ण अवसर आये थे, जब अपने घर जाने की अनुमति माँगने पर भी सेवक-सेविका को अटूट तथा एकनिष्ठ गुरुभक्ति के नाम पर जाने नहीं दिया गया था। कुछ ऐसे भी मामले देखने में आये हैं कि शिष्य ने गुरुभक्ति के नशे में अपनी पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में अपना हिस्सा अन्य परिवारीजनों के बीच बाँट दिया और उनमें भी आगे पुनः बँटवारा हो गया या किसी ने बेच दिया। अब दशकों बाद अचानक इसकी घर वापसी से कितने प्रकार के संकट उस परिवार व अन्य सम्बंधित पक्षों को आ घेरेंगे, इसकी कल्पना मात्र से कोई भी संवेदनशील व्यक्ति व्यथित हो उठेगा।
शिष्य-समुदाय को पुरातन काल के शास्त्रों से चुने हुए उद्धरण दे-देकर निरंतर यह समझाया जाता है कि इस देव-दुर्लभ मानव चोले को सफल बनाने के लिए देहधारी ‘श्रीगुरु महाराजजी’ की तन-मन-धन से सेवा करना शिष्य का परमकर्तव्य होता है। इनके मन में बहुत गहराई तक यह बिठा दिया जाता है कि ‘गुरुदेव की असीम अनुकंपा को प्राप्त करना ही योगसिद्धि का प्रथम सोपान है। अतः वे जो भी आज्ञा दें उसका प्राणपणपूर्वक पालन करना अनिवार्य है। एक कर्तव्यनिष्ठ शिष्य को चाहिए कि गुरु महाराज जो करते हैं, उसकी तरफ बिल्कुल भी ध्यान न देवे क्योंकि वे निराकार ब्रह्म की साकार मूर्ति हैं, अतः उसका कल्याण इसी में है कि वे जो कहते हैं, उसका पालन करे, बस।’
प्रायः देखा गया है कि ऐसे प्रपंची गुरुजन अपने प्रवचनों में आध्यात्मिक ज्ञान का बखान करते हुए देवी-देवताओं, जादू-टोने, झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, कर्मकांड आदि को झूठा बताते नहीं थकते, परंतु अपने निजी जीवन में समय-समय पर आवश्यकतानुसार इनका आश्रय लेने में इन्हें कोई हिचक अथवा लज्जा का अनुभव नहीं होता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन मिथ्याचारियों को न तो अध्यात्म का कोई व्यावहारिक ज्ञान ही होता है और न इन्हें स्वयं अपने ऊपर ही विश्वास रहता है।
वर्तमान समय में अधिकांश गुरुओं को स्वांग भरने में न तो कोई संकोच होता है और न लज्जा ही आती है। ये बड़ी निर्लज्जतापूर्वक सार्वजनिक रूप से मंच पर विशेष रूप से बनवाये गये झूले पर झूलते और राजाओं तथा देवी-देवताओं की तरह मुकुट, वस्त्र, आभूषण आदि धारण करते देखे जाते हैं। इन वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे तक बड़ी सावधानीपूर्वक पहुँचाने, सहेज कर रखने तथा धारण कराने के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है। इस प्रकार के नाटकीय प्रदर्शन का महत्व, उपयोगिता और आवश्यकता क्या है, इसे कोई नहीं बताता। इनका यह कृत्य कोरे नाटक के अतिरिक्त और क्या है, इसे वे ही जानें।
कुछ लंपट गुरुओं को अपनी पुत्री समान युवा शिष्याओं का दैहिक शोषण करने में तनिक भी संकोच अथवा लज्जा का अनुभव नहीं होता। उनके इस अनैतिक तथा धर्म और मर्यादा-विरुद्ध आचरण में उनके क्रीतदास उनका सहयोग करते हैं। ऐसे कतिपय कुकर्मियों को विज्ञान तथा तकनीकी विकास के वर्तमान समय में रंगे हाथों पकड़ कर न्यायालयों द्वारा दंडित किया गया है अथवा उनके विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में वाद लंबित हैं। ऐसे कुमार्गगामी लंपटों के सम्बंध में रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने काकभुशुंडी-गरुड़ संवाद के माध्यम समझाया है–
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने।।
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।।
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं।।
(उत्तरकांड–99/1 व 2द्)
अर्थात्–परायी स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर, मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म तथा जीव को एक बताने वालेद्) और ज्ञानी बने रहते हैं, मैंने ऐसे कलियुग का चरित्र देखा है। वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं।
अध्यात्म जैसे परमपवित्र और गुह्य ज्ञान के क्षेत्र में केवल कंठ से ज्ञानी बन कर घुस आये ऐसे ठगों की कथनी और करनी का भेद इनके महलनुमा पंच-सितारा आश्रमों से भी खुल जाता है। जिनमें भोग-विलास की सभी आधुनिकतम सुविधाएं, सामग्रियां तथा सेवकों का दल-बल प्रचुर परिमाण में हर समय उपलब्ध रहता है। तप और त्याग की बातें करते नहीं अघाते इन कथित तपस्वियों के भोजन, वस्त्र, रहन-सहन, हीरा आदि बहुमूल्य रत्नजटित स्वर्णाभूषण, महंगे मोबाइल फोन, लैपटॉप, उच्चतम श्रेणी में रेल तथा हवाई जहाज की यात्राएं, लाखों-करोड़ों की कारों के बेड़े, पूर्णतः वातानुकूलित आवास व कार्यालय आदि सबसे बिना प्रयास उपलब्ध हुए धन का निर्लज्ज प्रदर्शन दिखाई देता है।
अहर्निश सांसारिक विषय-भोगों में आकंठ डूबे रहने वाले और जनसामान्य से भी अधिक पाप-पंक में लिपायमान इन नरकगामी कीटों द्वारा श्रद्धालुओं को उपदेश देने हेतु आयोजित होने वाले सार्वजनिक कायर्क्रमों में मंच को भव्यता देने तथा साज-सज्जा पर ही लाखों-करोड़ों रुपये पानी की तरह बेधड़क खुले हाथों बहा दिये जाते हैं और कभी-कभी तो हजारों वर्गमीटर में बनाये गये पूरे पंडाल को ही वातानुकूलित कर दिया जाता है। संभवतः वर्तमान समय के ऐसे ही कुकर्मियों का पूर्वाभास संत तुलसीदासजी को हो गया था, तभी उन्होंने लिखा–
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही।।
(रामचरितमानस–उत्तरकांड–100 ख-1द)
अर्थात्–संन्यासी बहुत धन लगा कर घर सजाते हैं, उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गये और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।
(वही–उत्तरकांड–100 ख)
अर्थात्–वेद-सम्मत और वैराग्य तथा ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, उस पर मोहवश मनुष्य नहीं चलते और अनेकों नये-नये पंथों की कल्पना करते हैं।
इस प्रकार के झूठे, लंपट तथा धर्म के धंधेबाज ठग गुरु बन कर अनेक तरह के आडंबर रचते हुए भोले-भाले श्रद्धालुजनों के आस्थाभाव का अपने इंद्रियजन्य भोग-ऐश्वर्य तथा मानसिक सुख के निमित्त दोहन करने के लिए उनके मन-मस्तिष्क और विवेक पर अपना आधिपत्य जमा लेते हैं। इसके निमित्त उन्होंने ‘धर्म’ की मनमानी परिभाषाएं गढ़ कर अनेक प्रकार के मत-मतांतर और पंथ बना लिये हैं, जिनसे विवेकपूर्वक विचार करते हुए प्रत्येक मनुष्य को सावधान रहने की आवश्यकता है, क्योंकि एक कवि ने ठीक ही कहा है–‘ए भलेमानसो! ऊपरी वेश को देखकर कहाँ भटक रहे हो? यदि तुम सच्चे गुरु की खोज में हो तो भारद्वाज पक्षी से पूछो, उल्लू से नहीं, ज्ञानी-साधक से पूछो, ज्ञानोपदेश का धंधा करने वाले से नहीं।’
इस प्रकार जहाँ एक ओर लोक-प्रचलित आडंबरधारी स्वार्थी गुरुओं से सावधान रहने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी तरफ इसी मानव-समुदाय के बीच सामान्यजनों की तरह जीवन-यापन कर रहे सच्चे सद्गुरु को अपने ही पारमार्थिक हितलाभ के लिए ढूँढना आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के हृदय में आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु उत्कट इच्छाशक्ति का होना परमावश्यक है। जिस प्रकार कोई सामान्य कार्य करने के लिए भी इच्छा का होना अनिवार्य होता है, ठीक इसी तरह आत्मज्ञान देने वाले गुरु की ढूँढ-खोज के निमित्त भी दृढ़ निश्चय का होना आवश्यक होता है। जब तक किसी को प्यासे की तरह पानी की और डूबते हुए के समान एक श्वास की जैसी प्रबल आवश्यकता आत्मज्ञान की महसूस नहीं होगी, तब तक उसे ठीक-ठीक न तो जिज्ञासु ही माना जा सकता है और न उसे सच्चे गुरु की प्राप्ति ही हो सकेगी।
आध्यात्मिक ज्ञान व्यक्ति की मूल चेतना का परब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने की साधना है। अतः इसके लिए साधक के भीतर ज्ञान की प्रतिपल ऐसी पिपासा, ऐसी बेचैनी, ऐसी भूख का होना अनिवार्य है, जिसके न होने से उसे अपने जीवन की निस्सारता का अनुभव हो। ऐसी दशा होने पर ज्ञानदाता सद्गुरु स्वतः उसके सम्मुख प्रकट होकर उसका मार्ग-दर्शन करने प्रस्तुत हो जाते हैं।
श्यामसिह रावत
वरिष्ठ पत्रकार
उत्तराखंड
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