किसी अखबार में खबर छूट जाये तो संवाददाता की दैनिक मीटिंग में जमकर क्लास ली जाती है। अगर अखबार खुद ही खबर पर कैंची चला दे तो उसे क्या कहा जा सकता है। यह घटना या दुर्घटना अखबरों के लिये आम बात है। अखबरों द्वारा खबर के साथ घटना या दुर्घटना एक सोची-समझी राजनीति के तहत की जाती है। अक्सर समाज के वंचितों की खबरों के साथ मीडिया का दोहरा चेहरा सामने आता है। उसकी मर्जी किस खबर को छापे किस को नहीं। हार्ड हो या सॉफ्ट खबर का मापदण्ड एक ही जैसा होता है। एक बार फिर भारतीय मीडिया का वह चेहरा सामने आया जिसके लिए उसे कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। वह है उसका जातिवादी, हिन्दूवादी और दलित-पिछड़ा विरोधी होना?
पटना के बिहार उद्योग परिसंघ के सभागार में बागडोर संस्था के तत्वावधान में शनिवार 30 अगस्त, 2014 को मंडल संसद के दौरान, पिछड़ा वर्ग “क्या खोया क्या पाया” विषय पर बहस का आयोजन किया गया था। मंडल संसद में मंडल कमीशन की सिफारिशों पर बहस में राज्यसभा टीवी न्यूज के संपादक व देश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, बिहार के वित्त मंत्री विजेंद्र प्रसाद यादव, वरिष्ठ पत्रकार और जगजीवन राम शोध संस्थान के निदेशक श्रीकांत, एएन सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान पटना के निदेशक प्रो. डीएम दिवाकर, राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी, पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. एजाज अली, साहित्यकार प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह और बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग के सदस्य जगमोहन यादव सहित कई ने हिस्सा लिया।
जमकर बहस हुई। फोटो जर्नलिस्टों के कैमरे चमके। बहस को कवर करने आये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कैमरों को फोकस किया। प्रिंट मीडिया से आये संवाददाताओं के कलम नोट पैठ पर उगे। चमके कैमरों से आये फोटो व रिपोर्ट कुछ अखबारो के पन्ने पर दूसरे दिन नजर आये। लेकिन प्रमुख अखबारों ने खबर को गोल कर दिया। दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक भाष्कर व टाइम्स आफ इंडिया जैसे बड़े अखबारों के लिए यह खबर नहीं बनी? फोटो तो दूर एक लाइन भी नहीं छापी गयी। जबकि बहस में मौजूद वक्ताओं का परिचय देने की जरूरत नहीं है। स्थानीय के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर वक्ताओं की पहचान है।
सवाल वहीं पर आकर ठहर जाता है। मंडल संसद को जगह नहीं देने के पीछे कुछ अखबारों की द्विज सोच जिम्मेदार है। बिहार के तीन बड़े समाचार पत्र में खबर का नहीं आना, खबर के छूटने से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। क्योंकि वहीं दैनिक जागरण ने मंडल संसद खबर को पृष्ठ नौ पर फोटो सहित चार कालम में, दैनिक प्रभात खबर ने पृष्ठ छह पर फोटो सहित तीन कालम में, जबकि दैनिक आज ने पृष्ठ तीन पर फोटो सहित छह कालम में, दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने पृष्ठ दो पर फोटो सहित पांच कालम में जगह दी।
सामाजिक महत्व की खबर के साथ भेदभाव का यह रवैया समझ से परे नहीं है बल्कि उस मीडिया हाउस की पोल ही खोलता है। जो भी हो, यह मीडिया के लिए स्वस्थ परंपरा नहीं है। सामाजिक मद्दों की ख़बरों पर मीडिया हाउस कैंची चलाते हैं। ऐसे में सामाजिक मद्दों से जुड़े वंचित यानी दलित-पिछड़े उस मीडिया हाउस का बहिष्कार कर दें जो उनकी खबरों को नहीं छापता, उनके सरोकारों की बात नहीं करता तो यकीनन उस मीडिया हाउस के सर्कुलेशन पर असर पड़ जायेगा।
लेखक संजय कुमार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हैं।
savita
September 3, 2014 at 3:00 am
Galt jankari mat dijiye hujur thora paper v padhiye
[email protected]
September 9, 2014 at 11:00 pm
किसी अखबार में खबर छूट जाये तो संवाददाता की दैनिक मीटिंग में जमकर क्लास ली जाती है। अगर अखबार खुद ही खबर पर कैंची चला दे तो उसे क्या कहा जा सकता है। यह घटना या दुर्घटना अखबरों के लिये आम बात है। अखबरों द्वारा खबर के साथ घटना या दुर्घटना एक सोची-समझी राजनीति के तहत की जाती है। अक्सर समाज के वंचितों की खबरों के साथ मीडिया का दोहरा चेहरा सामने आता है। उसकी मर्जी किस खबर को छापे किस को नहीं। हार्ड हो या सॉफ्ट खबर का मापदण्ड एक ही जैसा होता है। एक बार फिर भारतीय मीडिया का वह चेहरा सामने आया जिसके लिए उसे कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। वह है उसका जातिवादी, हिन्दूवादी और दलित-पिछड़ा विरोधी होना?
पटना के बिहार उद्योग परिसंघ के सभागार में बागडोर संस्था के तत्वावधान में शनिवार 30 अगस्त, 2014 को मंडल संसद के दौरान, पिछड़ा वर्ग “क्या खोया क्या पाया” विषय पर बहस का आयोजन किया गया था। मंडल संसद में मंडल कमीशन की सिफारिशों पर बहस में राज्यसभा टीवी न्यूज के संपादक व देश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, बिहार के वित्त मंत्री विजेंद्र प्रसाद यादव, वरिष्ठ पत्रकार और जगजीवन राम शोध संस्थान के निदेशक श्रीकांत, एएन सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान पटना के निदेशक प्रो. डीएम दिवाकर, राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी, पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. एजाज अली, साहित्यकार प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह और बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग के सदस्य जगमोहन यादव सहित कई ने हिस्सा लिया।
जमकर बहस हुई। फोटो जर्नलिस्टों के कैमरे चमके। बहस को कवर करने आये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कैमरों को फोकस किया। प्रिंट मीडिया से आये संवाददाताओं के कलम नोट पैठ पर उगे। चमके कैमरों से आये फोटो व रिपोर्ट कुछ अखबारो के पन्ने पर दूसरे दिन नजर आये। लेकिन प्रमुख अखबारों ने खबर को गोल कर दिया। दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक भाष्कर व टाइम्स आफ इंडिया जैसे बड़े अखबारों के लिए यह खबर नहीं बनी? फोटो तो दूर एक लाइन भी नहीं छापी गयी। जबकि बहस में मौजूद वक्ताओं का परिचय देने की जरूरत नहीं है। स्थानीय के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर वक्ताओं की पहचान है।
सवाल वहीं पर आकर ठहर जाता है। मंडल संसद को जगह नहीं देने के पीछे कुछ अखबारों की द्विज सोच जिम्मेदार है। बिहार के तीन बड़े समाचार पत्र में खबर का नहीं आना, खबर के छूटने से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। क्योंकि वहीं दैनिक जागरण ने मंडल संसद खबर को पृष्ठ नौ पर फोटो सहित चार कालम में, दैनिक प्रभात खबर ने पृष्ठ छह पर फोटो सहित तीन कालम में, जबकि दैनिक आज ने पृष्ठ तीन पर फोटो सहित छह कालम में, दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने पृष्ठ दो पर फोटो सहित पांच कालम में जगह दी।
सामाजिक महत्व की खबर के साथ भेदभाव का यह रवैया समझ से परे नहीं है बल्कि उस मीडिया हाउस की पोल ही खोलता है। जो भी हो, यह मीडिया के लिए स्वस्थ परंपरा नहीं है। सामाजिक मद्दों की ख़बरों पर मीडिया हाउस कैंची चलाते हैं। ऐसे में सामाजिक मद्दों से जुड़े वंचित यानी दलित-पिछड़े उस मीडिया हाउस का बहिष्कार कर दें जो उनकी खबरों को नहीं छापता, उनके सरोकारों की बात नहीं करता तो यकीनन उस मीडिया हाउस के सर्कुलेशन पर असर पड़ जायेगा।