Krishna Kalpit : क्या हिंदी अब हत्यारों की भाषा है? हिंदी कवि और अनुवादक मंगलेश डबराल का यही मानना है। अगर मंगलेश डबराल ठीक कह रहे हैं तो फिर कबीर, प्रेमचंद और निराला की भाषा क्या है? मुक्तिबोध, नागार्जुन और विष्णु खरे की भाषा क्या है? क्या अंग्रेज़ी शेक्सपियर की नहीं साम्राज्यवादियों, व्यापारियों और लुटेरों की भाषा है? क्या इटेलियन इतालो काल्विनो की नहीं सिर्फ़ माफ़िया-गिरोहों की भाषा है? क्या जर्मन गेटे की नहीं गोएबल्स की भाषा है? क्या संस्कृत कालिदास और भर्तृहरि की नहीं ब्राह्मणवादियों की भाषा है? क्या उर्दू ग़ालिब और मीर की नहीं आतंकवादियों की भाषा है?
भाषा समाज सापेक्ष होती है। जिस भाषा में कवि कविता लिखता है वह उसी समय हत्यारों की भाषा भी होती है। भाषा पवित्र या अपवित्र नहीं होती। एक ही भाषा में मंत्र भी लिखे जाते हैं और अपशब्द और गालियाँ भी। आख़िर मंगलेश डबराल की मंशा क्या है ? पहले तो मंगलेश डबराल कहते हैं कि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास यानी साहित्य की मृत्यु हो चुकी है । यह बात भी मौलिक नहीं है । फूको के हवाले से हिंदी के एक हास्यालोचक सुधीश पचौरी इन के अंत की घोषणा बहुत पहले कर चुके हैं । उत्तर-आधुनिकों की माने तो साहित्य ही नहीं इतिहास का भी अंत हो चुका है । इस घिसी-पिटी बात के बाद डबराल कहते हैं कि हिंदी अब सिर्फ़ लिंचिंग-गिरोहों की भाषा है जिसमें अब कुछ भी सर्जनात्मक लिखना सम्भव नहीं । यहाँ हिंदी के बहुपुरस्कृत कवि मंगलेश डबराल अपनी अक्षमता भाषा पर थोप रहे हैं । जब भीतर कुछ बचा नहीं तो सिर्फ़ भाषा आपको पाब्लो नेरुदा कैसे बना देगी?
अपने बयान के अंत में मंगलेश डबराल हिंदी में जन्म लेकर शर्मिंदा होते हैं । यही बात वेदना के साथ कही जाती तो अलग बात थी लेकिन यहाँ तो अपनी भाषा के प्रति हिक़ारत और घृणा नज़र आती है जबकि अपने एक साक्षात्कार में वे स्वीकार कर चुके हैं कि हिंदी ने मुझे बहुत कुछ दिया । अब वे अपनी बात से क्यों मुकर रहे हैं?
मंगलेश डबराल ने जिस कारण यह पोस्ट लिखी थी वह पूरा हुआ । इस पर जिस तरह की अच्छी-बुरी और मूर्खतापूर्ण टिप्पणियां आ रही हैं मंगलेश डबराल यही चाहते थे । सावन के मौसम में पिछले कई दिन से वे ट्रोलिंग के सुहावने झूले पर झूल रहे हैं । जब कविताओं से कुछ नहीं हो रहा तो यही सही । दरअस्ल मंगलेश डबराल की रचनात्मकता चुक गयी है और वे इन-दिनों अपनी ही कविताओं के अनुवाद करके काम चला रहे हैं।
यह दिक्कत सिर्फ़ मंगलेश डबराल की ही नहीं, आठवें-दशक के अन्य कवियों की भी है । इन्होंने अपने सामर्थ्य से अधिक बोझ उठा लिया है । ये overrated कवि हैं और अधिकतर कवि अंदर से खाली कनस्तर हैं। समकालीन हिंदी में उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल दो कवि लेखक हैं जिनका अंग्रेज़ी और यूरोपीय भाषाओं में पर्याप्त अनुवाद हुआ है । उदय प्रकाश भी हिंदी को गरियाकर ही हिंदी के बड़े लेखक बने हैं। मंगलेश डबराल उदय प्रकाश के रास्ते पर हैं । अमेरिका से मंगलेश डबराल का जो अंग्रेज़ी अनुवाद में संकलन छपा है उसके सम्पादक का मानना है कि मंगलेश डबराल की कविता translatable यानी अनुवादनीय कविता है । दरअस्ल यह लिखी ही ऐसी भाषा में गयी है कि बेचारे अनुवादकों को अधिक कष्ट न हो।
क्या यह कहने की ज़रूरत है कि मंगलेश डबराल ने जीवन भर हिंदी पत्रकारिता की और हिंदी में कविता लिखकर वे पूरी दुनिया घूम लिये और अनेक बार पुरस्कृत हुये । वाम की मुद्रा बनाकर उन्होनें उत्तर, दक्षिण और पूरब पश्चिम चारों दिशाओं में विचरण किया। दरअस्ल मंगलेश डबराल के कवि का पतन उसी दिन हो गया था जिस दिन दिन उन्होंने अशोक वाजपेयी और रज़ा फॉउंडेशन के आगे बिना शर्त समर्पण कर दिया था और उनकी मित्र-मंडली में मीडियाकर मदन जैसे कवियों का आगमन होने लगा था, जिनकी ख्याति कविता से अधिक दरियागंज के दलालों की-सी है।
ईश्वर मंगलेश डबराल को सद्बुद्धि दे। मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूँ कि उनके बिना हिंदी-भाषा और हिंदी-कविता का कुछ नहीं बिगड़ेगा । वे अपनी अनूदित भाषाओं में जायें और रहें और नोबेल के इंतज़ार में ज़िंदगी बितायें। सपने देखने की अभी तक दुनिया की किसी भी भाषा में किसी भी तरह की कोई रोक नहीं लगी है!
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार कृष्ण कल्पित की एफबी वॉल से.
Virendra Yadav : सच है कि हिंदी लेखकों का एक वर्ग इन दिनों सॉफ्ट हिंदुत्व की तर्ज पर अपने ‘जनेऊ’ को भीतर से निकालकर बाहर लटका लेने में शर्म के बजाय गौरव महसूस करने लगा है। लेकिन इसी दौर में तो हिंदी में ‘आखिरी कलाम’ सरीखा उपन्यास लिखा गया है जो हिंदुत्व, ब्राह्मणवाद, रामचरित मानस, तुलसीदास और अयोध्या का जैसा मिथक भेदन करता है वैसा हिंदी में मूल रूप से लिखे गए किसी समाजशास्त्रीय विश्लेषण में भी नहीं किया गया है।
प्रेमचंद ने कभी ‘जीवन में घृणा का स्थान’ शीर्षक लेख हिंदी में लिखा था ,अफसोस कि हम हिंदी के लेखक घृणा के उस हुनर को भूल गए ।यह सचमुच चिंता की बात है कि जिन प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से शोषित मानव और शोषक मानव के बीच फर्क का साहित्यिक चिंतन दिया था उन्हीं प्रेमचंद को इन दिनों अज्ञेय के हवाले से ‘महाकरुणा’ के लेखक के रूप में सीमित कर गौरवान्वित हुआ जा रहा है।
हिंदी की प्रगतिशील विरासत और प्रेमचंद की परम्परा की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से तो प्रत्यक्ष मुठभेड़ है लेकिन खतरा उन आधुनिकतावादियों से कम नहीं है जो प्रेमचंद,अज्ञेय और निर्मल वर्मा को एक ही तराजू में तौलते हुए हिंदी समाज के मुख्य अंतर्विरोध के प्रति आंख मूंद लेते हैं। हमें हिंदी से नहीं उन हिंदी बौद्धिकों से बौद्धिक मुठभेड़ करनी होगी जो हिन्दी की उस प्रगतिशील और परिवर्तनकारी परम्पराको झुठला रहे हैं जो प्रेमचंद, राहुल, राधामोहन गोकुल जी, गणेश शंकर विद्यार्थी, भगवत शरण उपाध्याय, यशपाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध सरीखों के सृजन और चिंतन से समृद्ध हुई है।
हमें हिंदी की उस परिवर्तनकामी परम्परा को जीवित करना होगा। हिंदी को धिक्कारना गंदले पानी के साथ शिशु को फेंकने के मुहावरे को चरितार्थ करना होगा।
वरिष्ठ आलोचक और साहित्यकार वीरेंद्र यादव की फेसबुक वॉल से.
मुकुन्द हरि : मंगलेश डबराल साहब आपने दीनता और पलायन चुना। इसके लिए हमें आपके प्रति संवेदना नहीं बल्कि ग्लानि और शर्मिंदगी है। हद है कि आपको हिन्दी में लिखने और जन्मने की ग्लानि है? आपने सकारात्मकता को छोड़, नकारात्मकता को चुना। आपने स्वयं का घेराव स्वयं ही करवा लिया। आपके शब्द चयनों के लिए तो क्षमा भी क्षमादान में संकोच करेगी।
दरअसल, मंगलेश डबराल जी ने एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की, जिसमें उनकी बिरादरी माहिर भी है। तीर ने एक लक्ष्य तो वेध दिया लेकिन आगे वही बूमरैंग बनकर उनके पिछवाड़े में घुस गया। इससे बेहतर था वो सीधे अपनी बात कहते। किसी पुत्र के कुपुत्र होने से मां को दोषी नहीं बनाया जा सकता। बाद सिर्फ मंगलेश डबराल की ही नहीं और केवल हिन्दी तक सीमित नहीं है। ये सबके लिए मान्य होगी। सबको अपनी भाषा के लिए कृतज्ञ होना चाहिए और अभिव्यक्ति की छूट के नाम पर ऐसा दोहरा प्रस्तुतीकरण केवल जगहंसाई ही कराएगा।
पत्रकार मुकुंद हरि की एफबी वॉल से.
दीपकतिवारी
July 30, 2019 at 12:18 am
मुझे ऐसी बात बहुत बुरी लगती है जब हम अपने अन्दर विरोध की ताक़त न पाकर (कारण कोई भी हो) किसी ऐसी चीज़ को कारण बताते है जो स्वयं उत्तर न दे सकती और अन्य को आगे आना पड़ता है । डबराल ने वही किया और भाषा को कारण बता दिया जिस पर ज़िन्दगी भर रोटी सेकी । यदि हिन्दी में न लिखते तो अनुवाद कैसे होते और अगर अंग्रेज़ी या अन्य भाषा के विद्वान थे तो उसी भाषा में लिखते अनुवाद की आवश्यकता ही न होती । पर बैसाखी हिन्दी की स्थापना दूसरी भाषा में गाली हिन्दी को । वाह रे तथाकथित बुद्धिजीवी क्या राजनीति चली क्योंकि तुम साहित्य वाक्य चातुर्य तथ्यों में हार गये तो यही सही नाम तो होगा ही चाहे बदनामी ही सही तुम्हें बस नाम ही चाहिये