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सियासत

ज़रूरी है लोगों का मीडिया-साक्षर होना

क्या आपका बच्चा टीवी और इंटरनेट से घंटो चिपका रहता है? वह प्रतिदिन इन पर कितने घंटे बिताता है? क्या आपको पता है वह इंटरनेट पर क्या-क्या देखता है, टीवी पर कौन-कौन से प्रोग्राम उसके फेवरट हैं। ऑनलाइन चैटिंग और व्हाट्सएप्प पर वह किससे और क्या क्या बातें करता है?

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क्या आपका बच्चा टीवी और इंटरनेट से घंटो चिपका रहता है? वह प्रतिदिन इन पर कितने घंटे बिताता है? क्या आपको पता है वह इंटरनेट पर क्या-क्या देखता है, टीवी पर कौन-कौन से प्रोग्राम उसके फेवरट हैं। ऑनलाइन चैटिंग और व्हाट्सएप्प पर वह किससे और क्या क्या बातें करता है?

माफ़ करियेगा मैं किसी साइबर क्राइम सेल से नहीं हूँ और न ही ये सवाल आपसे किसी रिसर्च के सिलसिले में पूँछ रही हूँ। मैं तो सिर्फ आपको सचेत करने के लिए इतने सारे सवाल रख रही हूँ। क्यूंकि आज मीडिया में ऑल इज़ वेल नहीं है बल्कि समाज पर आज सबसे बड़ा हमला मीडिया की तरफ से हो रहा है। वह भी हमारे घरों में घुस कर जबकि इसी खुशफहमी में रहते हैं कि आधुनिक संचार साधनो का अधिकतम इस्तेमाल कर हमारे लाडले बहुत स्मार्ट बन रहे हैं। हम बड़े गर्व से पड़ोसियों को या रिश्तेदारों को बताते हैं की हमारे होनहार ने इतनी सी छोटी सी उम्र में ही मोबाइल, इंटरनेट चलाना सीख लिया। इतना ही नहीं जल्द ही वह अपने से बड़ो के कान भी काटेगा। यह सब मैं आपको डराने के लिए नहीं कह रही और ना ही इसमें कोई अतिश्योक्ति है। अब तो इस तरह के उदहारण आपको आपके परिचितों के बीच ही मिल जाएंगे कि छोटे-छोटे बच्चे नए-नए विडिओ गेम्स, प्ले स्टेशन और महंगे होटल में अपने बर्थडे पार्टी की डिमांड करते हैं।

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अगर आप ध्यान से अपने बच्चे की दिनभर की गतविधियों को देखें तो आप इस बात से सहमत होंगे की आपका बच्चा मीडिया एडिक्ट होता जा रहा है। आज बच्चे वर्चुअल वर्ल्ड में इस तरह खोये रहते हैं कि उन्हें अपने आस पास की जीती जागती दुनिया का भान ही नहीं रहता है। माँ-बाप अगर उन्हें टोंकते हैं तो उनका रिएक्शन बहुत शार्प होता है। इस तरह की खबरें भी सुनने को मिल जाती हैं कि माँ-बाप द्वारा सेल फोन न दिये जाने पर बच्चा एक हफ्ता स्कूल ही नहीं गया। सोशल साइट्स के अधिक इस्तेमाल पर मम्मी पापा द्वारा रोक लगाई गई तो बच्ची ने आत्महत्या कर ली। अक्सर हम ऐसी खबरों को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन यह आइसबर्ग की टिप की तरह बस थोड़ा सा दिखता है जिससे समस्या की भयावहता का पता ही नहीं लगता।

सच देखा जाय तो मिडिया का दखल हमारी जिंदगी में बच्चों जवानों से लेकर बड़ों तक इस कदर हो गया है कि हम क्या खाएं, क्या पहने, घूमने कहाँ जाएँ, कैसी जिंदगी जिए यह सब हम नहीं बल्कि बड़ी चालाकी से मीडिया तय करता है और हमें इसका पता तक नहीं चलता। मीडिया लगातार विज्ञापनों के ज़रिये हमको इस तरह से ब्रांड कॉन्शियस बनाता है की बिना इन्हें अपनाये लगता ही नहीं की हम समाज में सम्मानपूर्वक जी सकते हैं। समाज में स्वीकार्य होने की ये प्राथमिक शर्त बन गयी है।

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बड़ी बेशर्मी से मीडिया के लोग ही अब खुलेआम यह कहने लगे हैं की मीडिया कोई मिशन नहीं है बल्कि यह अंन्य व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय भर है और हमें मीडिया को इसी रूप में लेना चाहिए। ज़ाहिर है कि हर व्यवसाय में मुनाफ़ा सबसे महत्त्पूर्ण है। मुनाफे के लिए चाहे कितने समझौते करने पड़ें सब स्वीकार है। इसीलिए टीवी चैनलों पर गंडे-तावीज का विज्ञापन दिखाया जाता है, कहीं हनुमान जी, लक्ष्मी जी के यंत्रों को बेचा जा रहा है तो कहीं तथाकथित बाबाओं के हाई-फाई सत्संग को। सिर्फ इसलिए कि चैनलों की इन सबसे अच्छी कमाई हो जाती है।

ऐसे हालात में यह सवाल भी उठना लाज़मी है कि इस दलदल से निकलने का कोई रास्ता है भी या नहीं। क्या सरकार द्वारा कानून बनाकर मीडिया पर अंकुश लगाया जा सकता है? इसका छोटा सा जवाब है नहीं। अब तक के बने तमाम प्रगतिशील कानूनो की हालत तो हम देख ही रहे हैं। इसके अलावा कोई भी सरकार मीडिया से बैर मोल लेना नहीं चाहेगी क्यूंकि उनके बीच एक अलिखित सा समझौता रहता है और फिर यह मीडिया ही तो सरकार की इमेज बिल्डिंग का काम करता है। बीच बीच में महंगाई, रेल किराया वृद्धि, पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दामों पर जनता का गुस्सा दिखा कर, इन मुद्दों पर एक्सपर्टों के पैनल में चर्चा कराकर यह सरकार सेफ्टी वाल्व का काम करता है ताकि जनता का आक्रोश विद्रोह की हद तक ना जा सके।

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कड़वा सच यह है की मीडिया के हमलों से हमें सिर्फ और सिर्फ मीडिया ही बचा सकता है। यानी मीडिया के हम जितने करीब जाएंगे, उसको पहचानेंगे, आलोचनात्मक नज़रिये से देखेंगे उतना ही मीडिया के प्रति हम सजग होते जाएंगे। हमें यह भी देखना होगा की मीडिया के पीछे कौन लोग हैं, मीडिया पर नियंत्रण किनका है, परदे के पीछे के ये दृश्य जैसे- जैसे हमारे सामने स्पष्ट होते जाएंगे मीडिया का आतंक कम होता जाएगा। हमें यह भी समझना होगा ख़बरों का चयन किस तरह से और किन बातों को ध्यान में रखकर किया जाता है, ख़बरों की पैकेजिंग कैसे करते हैं, सच को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है और किन ख़बरों को प्राथमिकता दी जाती है। 

मीडिया का जब यह तिलिस्मी संसार हमारे सामने खुलता है तब मीडिया का असली चेहरा सामने आता है। तभी हम मीडिया के द्वारा प्रस्तुत सामग्रियों का तार्किक विश्लेषण कर सकते हैं, कौन सी ख़बर हमारे लिए उपयोगी है और कौन सी नहीं इसका आंकलन कर सकते हैं और अपनी अभिव्यक्ति भी मीडिया के ज़रिये कर सकते हैं। इसे ही आज की शब्दावली में मीडिया साक्षरता, मीडिया शिक्षा, मीडिया अध्ययन जैसे नामों से जाना जाता है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि मीडिया से तात्पर्य सिर्फ समाचार पत्र-पत्रिकायें, सिनेमा, टीवी, रेडियो, इंटरनेट ही नहीं है बल्कि संवाद के अनेक आधुनिक साधन जैसे- मैसेजिंग और चैटिंग के लिए- वी-चैट, व्हाट्सएप्प, वाइबर आदि और साथ ही परंपरागत साधन भी आते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है- निरक्षर सिर्फ वे ही नहीं हैं जो पढ़ना लिखना नहीं जानते बल्कि वे पढ़े लिखे लोग भी हैं जो मीडिया साक्षर नहीं हैं।

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भावना पाठक के ब्लॉग ‘भोंपू’ से साभार। http://bhonpooo.blogspot.in/

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