Dayanand Pandey : भारतीय मीडिया [प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक] के सभी के सभी मालिकान चोर, बेईमान और चार सौ बीस हैं। कोई एक भी इस अपराध से बरी नहीं है। लेकिन कोई भी सरकार उन का बाल भी बांका नहीं कर सकती। इस लिए भी कि इन का चोली दामन का रिश्ता है। मीडिया होगा आप के लिए पत्रकारिता का कोई उपक्रम लेकिन मीडिया मालिकों के लिए मीडिया महज़ एक लायजनिंग प्लेटफार्म है।
सो दिलचस्प और शर्मनाक यह भी कि भारतीय मीडिया के 99 प्रतिशत संपादक और संवाददाता भडुए और दलाल हैं।
तथ्य तो नहीं है मेरे पास इस बात का इस लिए यहां किसी का नाम नहीं ले रहे। लेकिन तर्क तो है ही कि अगर आज की टी वी पत्रकारिता में किसी से सवाल पूछने पर किसी पत्रकार की नौकरी जा सकती है तो यह बहुत संतोष की बात है। ऐसा रिस्क लेने वाले लोग अब विलुप्त हो चले हैं।
हम और हमारे जैसे लोग पत्रकारिता की इसी रवायत के चलते विलुप्त हो गए। हाशिए पर भी नहीं रहे। सो ऐसे पत्रकारों के साथ हर हाल खड़ा होना चाहिए और उन्हें नैतिक समर्थन देना चाहिए। इस के अलावा हम और दे भी क्या सकते हैं। हां , यह ज़रूर है कि उक्त पत्रकार की नौकरी खाने वाले उस विज्ञापनदाता और उस चैनल के आका की लानत-मलामत कर उक्त पत्रकार को सैल्यूट करते हैं।
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के वेतन से भी दोगुना , तीनगुना वेतन पाने वाले लोग भारतीय मीडिया में हैं। लेकिन इसी भारतीय मीडिया में तीन हज़ार , पांच हज़ार रुपया महीना वेतन पाने वाले हज़ारों ही नहीं कुछ लाख लोग हैं।
हिंदी न्यूज़ चैनलों में रवीश कुमार और पुण्य प्रसून वाजपेयी दोनों ही शानदार और सर्वाधिक प्रतिभाशाली एंकर हैं। दोनों की शार्पनेस और प्रस्तुति के अंदाज़ के क्या कहने। पर दोनों ही को उन की पक्षधरता, एक पक्षीय होना और पूर्वाग्रह ग्रहण बन कर उन्हें डस लेते हैं, डस कर ले डूबते हैं।
काश कि यह दोनों एंकर निरपेक्ष और निर्द्वन्द्व रहते तो हिंदी न्यूज़ चैनलों का इतिहास भूगोल कुछ और होता। और कि इन का ख़ुद का भी। लेकिन दोनों ही अपनी लोकप्रियता का भरपूर दुरूपयोग करते हैं। इन का एकपक्षीय होना ही इन की विश्वसनीयता को घटा देता है क्या उस को धूल चटा देता है। फिर इन की लोकप्रियता का दर्प और दुराग्रह इन्हें डूबने से बचा नहीं पाता।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय की एफबी वॉल से.