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इंटरव्यू

अंग्रेजी अख़बार ‘मिल्ली गज़ट’ बंद, पढ़िए एडिटर ज़फरुल इस्लाम खान से विशेष बातचीत

एडिटर ज़फरुल इस्लाम खान ने ‘एशिया टाइम्स’ को दिए इंटरव्यू में कहा- ”भारत के मुसलमानों की प्राथमिकताओं में मीडिया शामिल नहीं”

नई दिल्ली : वर्ष 2016 के दिसंबर के अंतिम दिनों में यह खबर मिली कि सत्रह साल से जारी अंग्रेजी पाक्षिक ‘मिल्ली गजट’ ने अपने पाठकों को अलविदा कह दिया। अंतिम अंक ३१ दिसंबर को प्रकाशित हुआ। वास्तव में यह खबर बेहद दुखदहै। ‘मिल्ली गजट’ के संपादक डॉक्टर ज़फरुल इस्लाम खान ने यह अखबार सन 2000 में इस सोच के साथ शुरू किया था कि वे भारतीय मुसलमानों की आवाज़ देश -विदेश तक पहुंचाएंगे जिसे नेशनल मीडिया में कोई जगह नहीं दी जाती। लेकिन मीडिया की इस घाटी में काफी समय तक खाली हाथ यात्रा कब तक संभव है।

एडिटर ज़फरुल इस्लाम खान ने ‘एशिया टाइम्स’ को दिए इंटरव्यू में कहा- ”भारत के मुसलमानों की प्राथमिकताओं में मीडिया शामिल नहीं”

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नई दिल्ली : वर्ष 2016 के दिसंबर के अंतिम दिनों में यह खबर मिली कि सत्रह साल से जारी अंग्रेजी पाक्षिक ‘मिल्ली गजट’ ने अपने पाठकों को अलविदा कह दिया। अंतिम अंक ३१ दिसंबर को प्रकाशित हुआ। वास्तव में यह खबर बेहद दुखदहै। ‘मिल्ली गजट’ के संपादक डॉक्टर ज़फरुल इस्लाम खान ने यह अखबार सन 2000 में इस सोच के साथ शुरू किया था कि वे भारतीय मुसलमानों की आवाज़ देश -विदेश तक पहुंचाएंगे जिसे नेशनल मीडिया में कोई जगह नहीं दी जाती। लेकिन मीडिया की इस घाटी में काफी समय तक खाली हाथ यात्रा कब तक संभव है।

सत्रह वर्ष के बीच कई बार हिंदुस्तानी मुसलमानों को पुकारने के बाद भी जब कोई साथ न आया तो अंततः उन्हें यह दुखद घोषणा करनी ही पड़ी कि अब अधिक यात्रा संभव नहीं है। एशिया टाइम्स ने जरूरी समझा कि इस बारे में मिली गज़ट के संपादक से एक विस्तृत बातचीत की जाये  और यह जानने की कोशिश की जाए कि आखिर उन्हें किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा और समस्याओं के समाधान के लिए उनकी क्या कोशिशें रहीं। पेश है ‘मिल्ली गज़ट’ के संपादक डॉक्टर ज़फरुल इस्लाम खान से अशरफ अली बस्तवी की यह विशेष बातचीत…

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-दिसंबर के अंत में हमें यह दुर्भाग्यपूर्ण खबर मिली कि ‘मिल्ली गज़ट’ अब नहीं प्रकाशित होगा, बंद करने की वजह क्या रही?

-मिली गज़ट बंद करने की कोई एक वजह नहीं रही। समय के साथ साथ वित्तीय घाटा और अन्य समस्याएं बढ़ती चली गईं। सन 2000 में जब हमने इसे शुरू किया था उस समय काम करने वाले लोग 3 हजार में मिल जाते थे लेकिन अब तो 15 हजार में भी नहीं मिल पाते और न लोग इसे खरीद कर पढ़ते हैं, न ही विज्ञापन देते हैं। आखिर इस तरह कब तक चलाया जा सकता था। अलबत्ता हमें अख़बार मुफ्त जारी करने के पोस्टकार्ड जरूर आते रहते थे। हमने अपने अखबार के लिए कभी कोई चंदा नहीं किया। अपने तौर पर कुछ लोगों ने जरूर दिया। बड़ी मदद की। लेकिन ऐसा कोई चंदे का अभियान कभी नहीं चलाया। घाटा जो पहले 30 हजार मासिक था अब डेढ़ लाख तक पहुंच गया था। इसे सहन कर पाना हमारे लिए मुश्किल हो गया था। इसलिए हमने बंद कर देने का फैसला लिया। हालांकि हमें शुरुआती दिनों में ही यह एहसास हो गया था लंबा नहीं चला जा सकता लेकिन हिम्मत जुटाकर आगे बढ़ते रहे। तीन साल पहले हिम्मत हार गए लेकिन कुछ लोगों के आश्वासनों और प्रेरणा की बदौलत जारी रखना उचित समझा। अब मेरी अपनी सेहत भी साथ नहीं देती। इसकी वजह से मेरे कई जरूरी काम भी प्रभावित हो रहे थे। इस दौरान एक समय ऐसा भी आया कि हमने खर्च पर काबू पाने के लिए पेज कम कर दिए लेकिन फिर भी मुश्किल कम नहीं हुई। मैंने हमेशा इस बात की कोशिश की कि मिल्ली गज़ट किसी के अधीन न रहे। एक घटना यह है कि ‘मिल्ली गजट’ शुरू हुए अभी तीन साल ही हुए थे कि कश्मीर से भारतीय सेना द्वारा हमारे पास एक प्रस्ताव आया कि हमारी कुछ अच्छी खबरें अपने यहां प्रकाशित करें जिसका हम 40 हजार रुपया मासिक देंगे, लेकिन हमने तुरंत मना कर दिया। हमने कहा कि हम तो सेना की बर्बरता को भी प्रकाशित करेंगे। कुछ महीने पहले ही हमारे पास एक और ऑफर आया। एक राजनीतिक पार्टी का ऑफर था कि हम मिल्ली गज़ट  में पैसा लगाना चाहते हैं। हमने उसे भी मना कर दिया। मिल्ली गज़ट की 16 से 31 दिसंबर की प्रकाशित कॉपी ही अंतिम कापी है।

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-‘मिल्ली गज़ट’ आप ने कब और किन हालात में शुरू किया था, आप के सामने क्या उद्देश्य थे?

-मैंने सन 2000 में मिल्ली गज़ट निकाला। तब मेरी अच्छी नौकरी थी। सऊदी अखबार ‘अल रियाज़’ में नुमाइंदे के रूप में काम कर रहा था। बहुत अच्छा वेतन था। ‘अल रियाज़’ में नौकरी का यह सिलसिला चार पांच साल तक चला। इस बीच हमने जब गुजरात के मुसलमानों के साथ सरकारी स्तर से की जाने वाली ज्यादतियों सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दों को जोरदार ढंग अल रियाज़ में उठाया तो यहीं से मतभेद शुरू हो गए। फिर एक दिन भारत में तैनात सऊदी राजदूत ने मुझे बुलाकर कहा कि हम भारत से अच्छे संबंध बनाना चाहते हैं और आप रिश्ते खराब करने की कोशिश करते हैं। राजदूत ने कहा कि कोई ऐसी चीज़ न भेजें जो सरकार के खिलाफ हो। यह प्रतिबंध मुझे रास नहीं आया और फिर आगे चलकर यह सिलसिला टूट गया। ‘मिल्ली गज़ट’ निकालने की बुनियादी वजह यह थी कि हमारे समाचार सिर्फ उर्दू में ही रह जाते हैं, अंग्रेजी में नहीं आते। मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि जब भी आप अंग्रेजी अखबार उठाएं तो ऐसा महसूस होता है कि देश की मुस्लिम आबादी सो रही है। क्या उन्होंने कल कुछ नहीं किया? ऐसा तो नहीं हो सकता। किसी ने कोई महत्वपूर्ण कारनामा किया होगा। किसी ने किताब लिखी होगी। किसी को उसकी सेवाओं के लिए पुरस्कार भी मिला होगा। किसी ने कोई शैक्षिक संस्थान स्थापित किया होगा। कुछ गलतियाँ भी की होंगी। लेकिन नेशनल मीडिया को मुस्लिम समस्या से कोई दिलचस्पी नहीं। हाँ, यदि किसी ने तीन तलाक दे दिया तो फिर मुस्लिम नेशनल मीडिया के लिए खबर है। हमने अपने यहां इस तरह की बातें पब्लिश की और अंतिम अंक तक यह काम जारी रहा। कई बार अपने लोगों को भेजकर हम ग्राउंड रिपोर्टिंग भी कराते। कुशीनगर में एक डेलिगेशन लेकर गए तथ्यों का पता लगाया। इंदौर में अपने आदमी को भेजकर रिपोर्टिंग कराई। इम्फाल में अंग्रेजी अखबार द पायनियर ने एक खबर प्रकाशित की कि यहाँ इस्लामी राज्य बनाने की कोशिश हो रही है तो हमने ग्राउंड रिपोर्टिंग की और खुद मणिपुर के पुलिस महानिदेशक ने इस खबर को खारिज किया। हम नेशनल मीडिया की गलत रिपोर्टिंग का पीछा करते हुए तथ्य सामने लाने की कोशिश करते रहे। हमने उर्दू प्रेस से मिली खबरों का अंग्रेजी में अनुवाद करने का काम किया। यही ‘मिल्ली गज़ट’ का उद्देश्य था।

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-आप को ‘मिल्ली गज़ट’ चलाने में क्या कठिनाइयां आईं और आप गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए कैसे काम करते थे?

-हमने कभी महज पेज भरने का काम नहीं किया। हमें अंतिम दिन तक देर रात तक पर्चा फाइनल करना पड़ता था। अक्सर हम अपनी लीड स्टोरी अंतिम चरण में भी बदल देते थे। हमने मुस्लिम मुद्दों को पेश करने की हर संभव कोशिश की। लेकिन हमने पिछले सत्रह वर्षों में देखा कि मुस्लिम समुदाय को इसकी जरूरत नहीं है। आप देखते हैं कि हर हफ्ते अखबार में कोई न कोई तहरीर ज़रूर नज़र आ जाएगी कि मुसलमानों के पास उर्दू मीडिया के अलावा अपना अंग्रेजी या हिंदी अखबार या चैनल हो, लेकिन अगर मुसलमान अखबार खरीद कर नहीं पढ़ेंगे तो कोई अखबार कैसे चलेगा? अगर आज ‘मिल्ली गज़ट’ तीस चालीस हजार कॉपी निकलता तो बंद करने की नौबत न आती। मिल्लत को सोचना चाहिए कि आखिर ‘मुस्लिम इंडिया’, कालीकट से पब्लिश होने वाला ‘मीन टाइम’ क्यों बंद हो गया। सैयद हामिद साहब का ‘नेशन एंड द वर्ल्ड’ की यह स्थिति क्यों हो गई? हां, दूसरे लोग हमारा अखबार सिर्फ यह जानने के लिए खरीदते हैं कि हमने क्या लिखा है। आरएसएस बड़ी पाबन्दी से हमारा अखबार खरीदता रहा।

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-सत्रह वर्ष की यात्रा में कोई ऐसी घटना घटी हो जिसका आप को अफसोस हुआ?

-जी हाँ! दो बार ऐसा मौका आया, जब हमें बेहद तकलीफ हुई। गलतफहमी की वजह से हमारी रिपोर्ट दूसरों की परेशानी को सबब बन गई। हमसे गलतियाँ भी हुईं जिनके लिए हमने लिखित माफी भी माँग़ ली। एक बार ऐसा हुआ कि एक साहब अपना लेख लेकर आए जिसे हमने प्रकाशित कर दिया। बाद में पता चला कि यह उनका निजी मामला था। उनका उद्देश्य किसी पर कीचड़ उछालना था। हमारे लेख की वजह से कुछ लोगों को तकलीफ हुई। हालांकि हमारा किसी को नुकसान पहुँचाने का कोई इरादा नहीं था, जिसके लिए हमने लिखित माफ़ी मांग ली थी। इससे पहले हमने अखबार को तीन बार बंद कर देने का फैसला किया। हमारा मानना ​​था कि दो साल में इसे आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए। विचार था कि एक बार अखबार खड़ा होने के बाद उसे लोगों के हवाले कर देंगे।

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-बंद करने से पहले देश की प्रमुख मिल्ली संगठनों को पेश आने वाली समस्याओं से अवगत कराने की कोई कोशिश की?

-एक साल पहले हमने देश के सभी बड़े मुस्लिम संगठनों के प्रमुखों को पत्र लिखा उन्हें स्थिति से अवगत कराया और यह अनुरोध किया कि जारी रखने के लिए उपाय बताएं,   इसके बारे में कुछ सोचें, कैसे मदद कर सकते हैं, इस पर भी विचार करें। लेकिन अक्सर संगठनों से कोई जवाब नहीं आया। हालांकि पत्र दस्ती भिजवाया था। सिर्फ एक दो की ओर से जवाब मिला लेकिन उनमें भी केवल एक साहब ने कहा कि हम पहले से जारी अपने विज्ञापन की राशि बढ़ा रहे हैं और यह सहयोग स्थायी जारी रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि यह तो मिल्लत पूंजी है, इसे कभी बंद नहीं होना चाहिए। लेकिन इस एक साल के दौरान वह भी पहले से जारी सहायता को धीरे-धीरे कटौती करते गए और फिर बंद कर दिया। यह हमारी स्थिति है। अब इस पर क्या कहा जाए। दरअसल हमारे धार्मिक रहनुमाओं ने जनता को सही मायने में अन्य मिल्ली जरूरतों पर खर्च करने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं किया। हमारे धार्मिक नेतृत्व के पास कोई बड़ी सोच नहीं है। उनको बस इतनी सी चिंता है कि हमारे अपने संगठन बने रहने चाहिए और इसका विस्तार होता रहे। उनके नजदीक इसके अलावा जो भी काम हो रहा है, कोई विशेष महत्व नहीं रखता। उन्होंने मिल्लत को यही समझया है। समस्या यह है कि हमारा धार्मिक नेतृत्व अपने दायरे के बाहर के लोगों को जो अन्य क्षेत्रों में सक्रिय हैं उन्हें किसी की सलाह की कोई जरूरत महसूस नहीं करता। बस अपने लोगों तक ही बात होकर रह जाती है। जाहिर है मिल्लत में हर तरह की प्रतिभा मौजूद है। कोई वैज्ञानिक है, कोई अर्थशास्त्र का ज्ञान रखने वाला है, कोई मीडिया के मैदान से आता है। सभी की पहचान करके उन्हें करीब लाएं और उनसे उस मैदान में सलाह लें। उनकी बात को सुनने की तवज्जो किसी मिल्ली संगठन में नहीं है। सोचने की बात है कि 200 मिलियन होते हुए भी यह मिल्लत इतना कमजोर क्यों है?

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-पिछले दिनों आपने सऊदी अरब में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत के मिल्ली नेतृत्व की कड़ी आलोचना की थी और परिवर्तन को आवश्यक करार दिया था। मामला क्या था ?

-हां, मैंने यह बात कही है कि बुज़ुर्ग नेतृत्व परिवर्तन किए बिना भारतीय मुसलमानों की समस्या का समाधान संभव नहीं है। पश्चिमी देशों में युवा नेतृत्व से हमें सबक लेना चाहिए, अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अब तक के सबसे अधिक उम्र के राष्ट्रपति हुए हैं। वहाँ 43 साल की उम्र के भी राष्ट्रपति रहे हैं। आज से कोई पांच महीने पहले ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मैं 53 साल का हो गया हूँ, मेरी पार्टी के लोग समझते हैं कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ। पश्चिम में जवान नेतृत्व का कल्चर है, जबकि भारत में इसके विपरीत बड़ी उम्र के लोगों को ही आगे रखा जाता है। पश्चिम में अगर कोई बड़ी उम्र का होता है तो खबर बन जाती है जैसा कि इस बार ट्रम्प की खबर बन गई। यह हमारी मिल्लत की ही नहीं बल्कि यह हमारे देश की संस्कृति है। इसका नुकसान यह होता है कि निर्णय लेने में झिझक होती है। कोई जोखिम नहीं लेना चाहता।

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-मिल्ली गज़ट के बाद अब आप की मसरूफियत क्या होगी ?

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-दरअसल ‘मिल्ली गज़ट’ की वजह से समय न मिल पाने के कारण मेरे कई अन्य कार्य भी प्रभावित हो रहे थे। कुछ काम करना चाहता था। जैसे आतंकवाद पर श्वेत पत्र लाना जिसकी घोषणा हमने कई साल पहले किया था लेकिन बीच में मुशावरत के  गोल्डन जुबली समारोह के कारण काम रुक गया था। अब मैं पूरी तरह से श्वेत पत्र पर लग गया हूँ, इंशा अल्लाह अगले चार पांच महीने में आ जाएगा। यह ऐसा उपयोगी साक्ष्य होगा जो मिल्लत को आरोपों से मुक्ति का सबब बनेगा। उसमें पुलिस के अधिकारों का दुरुपयोग,  फर्जी एनकाउंटर्स, हिरासत में होने वाली मौतों, सरकार द्वारा बनाए गए काले कानून पोटा, टाडा, मीसा, एनएसए आदि के विश्लेषण पर आधारित दस्तावेज होगा। इसमें रणवीर सेना, सिल्वा जुडम, कश्मीर में विलेज डिफेन्स समिति के नाम से जो गैर कानूनी काम कराए हैं उनका विश्लेषण होगा जो कम से कम एक हजार पेज का होगा। इस श्वेत पत्र के माध्यम से देश की अंतरात्मा को झकझोरने का काम किया जाएगा। 

मेरे मन में 2005 में ही यह काम आ गया था। अब हमारी पहली प्राथमिकता श्वेत पत्र है और दूसरी वरीयता क़ुरआन के अब्दुल्ला यूसुफ अली के अंग्रेजी अनुवाद के सुधार का है। यह पिछले 30 साल से मन में खटक रहा है। उस पर काम करना है। मेरा एहसास है कि मिल्ली गज़ट भारत के 200 मिलियन मुसलमानों के लिए वह काम नहीं कर पा रहा था जिसकी जरूरत थी। मुसलमानों को हर बड़े शहर से अंग्रेजी और हिंदी के अख़बार, एफ़एम रेडियो, टीवी चैनल खोलने चाहिए। यह कोई मुश्किल नहीं है। मुसलमान कर सकते हैं। लेकिन कम से कम पहले ऐसी सोच तो बनाएं। मीडिया को भी अपनी जरूरत बनाओ। केरल आदि में अच्छा काम हो रहा है। मिल्ली गज़ट का इंटरनेट संस्करण जारी रहेगा। ऑनलाइन पत्रकारिता की पहुंच काफी तेज है। पत्रकारिता के जो बड़े नाम ऑनलाइन पत्रकारिता में आए हैं, वे जहां थे वहां पर उन्हें घुटन होती थी। ये लोग भी उसे स्पॉन्सरशिप से ही चला रहे हैं। बड़ी कंपनियाँ अपनी आय का कुछ हिस्सा सामाजिक रेसपानसबलेटी के नाम पर खर्च करती हैं। मैंने व्यक्तिगत रूप से स्पांसरशिप लेने की कोई कोशिश नहीं की। इसके लिए खुद को तैयार न कर सका कि किसी के सामने हाथ फैलाया जाये लेकिन मैंने सभी को पत्र लिखा था। जो लोग हमारे लिए लिखते थे, अभी भी लिखते रहें।

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यह इंटरव्यू ‘एशिया टाइम्स’ के लिए अशरफ अली बस्तवी ने किया. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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