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साहित्य

घर वह होता है जहाँ हमारे पुरखों की नाल गड़ी हो

राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव कार्यक्रम StayAtHomeWithRajkamal के तहत मंगलवार को ‘स्वाद-सुख’ कार्यक्रम में चर्चा का विषय था- पनीर। घर हो या बाहर, अपनी रसोई, रेस्तरां या ढाबा, पनीर सर्वव्यापी है। शाकाहारी ढाबों की व्यंजन-सूची पनीर से शुरू होकर पनीर पर आकर ही ख़त्म होती है।

आलम यह है कि आप पहाड़ पर चले जाइए या नार्थ ईस्ट। हर जगह रेस्तरां और ढाबों पर लोकल खाना ढूँढने से मिलेगा लेकिन, पनीर सबसे पहले मिल जाएगा। केरल में नारियल के तेल में तला हुआ और खूब सारे मसालों मे डूबा पनीर मसाला मिलता है, जो केरल के खाना पान के तरीकों से बिल्कुल भिन्न है। तमिलनाडु में पनीर 65 बहुत प्रचलित है।

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‘स्वाद-सुख’ कार्यक्रम में लाइव बातचीत करते हुए पुष्पेश पंत ने कहा, “सच यह है कि पनीर शाकाहारियों का नॉन-वेज है। पनीर का चाइनिज़ रूप – चिली पनीर और पनीर मंचूरियन भी खाने वालों के बीच पसंद किया जाता है।“

दुखद यह है कि पनीर के पंजाबीकरण ने देशी पनीर के व्यंजनों को हासिए पर डाल दिया है। देशी पनीर के भिन्न प्रकारों के संबंध में जानकारी साझा करते हुए पुष्पेश पंत ने बताया कि कश्मीर का ‘चामन पनीर’ देशी पनीर में बहुत उल्लेखनीय है। (कश्मीरी में पनीर को चामन कहते हैं) ये चामन बहुत सारे रंगों में देखने को मिलता है, इसमें थोड़ी हरयाली भी होती है। चामन की कलिया और वोजीज चामन कश्मीरियों का पसंदीदा व्यंजन है।

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कश्मीर के दूसरे हिस्से में जो हिमाचल से जुड़ा है और लद्दाख वाले इलाकों में ‘कलाड़ी पनीर’ मिलता है, जो पंजाबी पनीर से बहुत अलग है। इसे दूध की रोटी भी कहते हैं। दरअसल, इसे तवे पर फैलाकर सुखाया जाता है। कलाडी कुल्चा इसका परिष्कृत संस्करण है। सिक्किम, दार्जीलिंग वाले इलाके में ‘चुरो’ नाम का पनीर देखने को मिलता है। वहीं पश्चिम बंगाल में ‘बंदेल पनीर’ खाने को मिलता है। हाल के दिनों में कलकत्ता के पांच सितारा होटलों ने इसे फिर से लाइमलाइट में ला दिया है।

पुष्पेश पंत ने पनीर के संबंध में बातचीत करते हुए कहा कि, “स्वाद-सुख के कार्यक्रम में हम छेना की बात अलग से करेंगे लेकिन जरूरी है कि हम हमारे देशी पनीर को याद कर उसे वापिस से अपने जीवन का हिस्सा बनाएं।“

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घर वह होता है जहाँ हमारे पुरखों की नाल गड़ी हो

घरबंदी की शांत दोपहर, बाहर से आती पक्षियों की आवाज़ में लैपटॉप पर चल रहे लाइव वीडियों की आवाज़ घूल-मिल जाती है। कहानियाँ पाठ, संगीत, भिन्न विषयों पर होने वाले लाइव कार्यक्रम लोगों के रोज़ के जीवन का अहम हिस्सा बन चुके हैं। मंगलवार की दोपहर राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव पर बातचीत करते हुए लेखक शशिभूषण द्विवेदी ने कहा, “लॉकडाउन में सुबह से शाम हो जाती है लेकिन दिन और तारीख़ का पता नहीं चलता। मेरे घर की बालकनी के ठीक सामने रेलवे ट्रैक है। ट्रेन की सीटियों से वक्त का पता चल जाता था। लेकिन अब हर तरफ शांति है। पहिया जो मानव इतिहास का अबतक का सबसे बड़ा अविष्कार माना जाता था अब थम गया है। एक जैविक शत्रु ने हम सभी की ज़िन्दगी बदल दी है।“

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लाइव कार्यक्रम में शशिभूषण द्विदी ने अपने कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ से ‘शालीग्राम’ कहानी का पाठ किया। कहीं कुछ नहीं कहानी संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है।

पोस्ट लॉकडाउन के बाद दुनिया कैसी होगी? महामारी की सबसे बुरी मार झेल रहे प्रवासी मजदूरों के जीवन पर इसका कितना गहरा असर हो रहा है? यह सवाल न सिर्फ़ समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, लेखक बल्कि आम मानस के मन में भी उठ रहे हैं।

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साहित्य और इतिहास के आधार पर विस्थापन से जुड़े कई सवालों की पड़ताल करते हुए लेखक सदन झा ने, राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव के जरिए कहा कि, “हमने देखा लॉकडाउन के बाद लाखों की संख्या में मजदूर अपने घर की ओर लौट रहे थे। परेशान और हताश। जो लोग घर नहीं लौट सकें उनके लिए कहा जा रहा है कि लॉकडाउन के खुलते ही वो अपने घर जाएंगे, अपने लोगों से मिलने। बहुत संभव है कि इस परिस्थिति से बाहर निकलकर जब वो घर जाएंगे तो शायद फिर वो शहर वापस न लौंटे। ऐसे में हमारे शहर का रूप कैसा होगा?”

सदन झा ने साहित्य में विस्थापन की कहानियों पर बात करते हुए बताया कि साहित्य और इतिहास लेखन में प्रवासी मजदूरों के साथ न्याय नहीं किया गया। उन्हें हमेशा आकांड़ों का हिस्सा माना गया। साहित्य में उनकी ख़ुद की सोच को बहुत कम जगह दी गई। विभाजन की पीड़ा से निकले साहित्य में विस्थापन की बात है। साथ ही गिरमिटिया साहित्य भी इनकी बात करता है। लेकिन मुख्यधारा के साहित्य में इसपर बहुत ज्यादा नहीं लिखा गया।

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सदन झा ने घर की अवधारणा पर बात करते हुए कहा कि, “घर वह होता है जहाँ हमारे पुरखों की नाल गड़ी हो। लेकिन मेरे जैसे लोग जिनके परिवार में पिछले दो सौ साल में कई-कई बार विस्थापन हो चुका है, कैसे तय करें कि हमारे पुरखों की नाल कहाँ गड़ी है। हममें से कौन कहाँ से आया है, जब यह स्पष्ट ही नहीं है तो फिर “अन्य” की बात कहाँ से आ जाती है!”

उन्होंने कहा, “हम सब अप्रवासी है। हाल के वैज्ञानिक और ऐतिहासिक शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि हम अफ्रीका से निकलकर यहाँ तक पहुंचे। ऐसे में यह कौन तय कर रहा है कि कौन यहाँ का है, कौन नहीं?”

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प्रस्तुति- सुमन परमार

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