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पत्रकारों के पेट पर सरकार ने मारी लात, सरकारी सरंक्षण में अरबों का घपला

महेश झालानी-

जयपुर : राज्य सरकार के संरक्षण में पिछले कई वर्षों से सैकड़ो पत्रकारों के पेट पर लात मारी जा रही है । फिर भी प्रदेश व केंद्र की संवेदनशील सरकार मूक दर्शक होकर पत्रकारों की तबाही का चुपचाप मंजर देख रही है।

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प्रदेश के मुख्यमंत्री ने स्वयं राष्ट्रदूत का उदाहरण देते हुए प्रदेश के मीडिया माफिया का कच्चा चिट्ठा खोला था । इसी माफिया की वजह से प्रदेश में अनगिनत पत्रकार बेरोजगार होकर कंगाली के कगार पर है । राज्य सरकार माफिया की करतूत जानने के बाद भी रहस्यमय ढंग से मौन है । नतीजतन मीडिया संस्थानों की दादागिरी में तेजी से इजाफा हो रहा है।

चलो आज मीडिया माफिया की करतूत का विस्तार से वर्णन करता हूँ ताकि आम जनता को ज्ञात हो सके कि अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने का दम्भ भरने वाला मीडिया किस तरह काले कारनामो के जरिये न केवल सरकार के खजाने को लूट रहा है बल्कि श्रमजीवी पत्रकारों के हक को डकारने में भी पीछे नही है।

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कायदे से राज्य का जन सम्पर्क विभाग तथा अन्य सरकारी महकमे मसलन बोर्ड, निगम, पालिका, आयोग, विश्विद्यालय तथा प्राधिकरण आदि उस समाचार पत्र को विज्ञापन जारी नही कर सकते है जो मजीठिया वेज बोर्ड के मुताबिक अपने कर्मचारियों को वेतन नही देते है । लेकिन अन्य राज्यो की तरह राजस्थान में वेतनमान के नाम पर जबरदस्त लूट और फर्जीवाड़ा है । सरकार सोई हुई है और मीडिया वाले कर रहे है लूट का तांडव।

अखबार वाले विज्ञापन के लिए तो अपनी प्रसार संख्या लाखों में बताते है । लेकिन जब कर्मचारियों को वेतनमान देने का मामला आता है तब इन अखबारों की संख्या सिमट कर हजारों में रह जाती है । वेतन और भत्ते देने से बचने के लिए अनेक समाचार पत्रों ने पत्रकारों को पे रोल पर नही दिखा कर फर्जी कम्पनी बनाकर उन्हें दिहाड़ी का मजदूर बना रखा है।

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यदि कोई पत्रकार इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की गुस्ताखी करता है तो सिक्युरिटी वाले उसे जबरन बाहर का रास्ता दिखा देते है । इसी के चलते अब तक सैकड़ो पत्रकार नौकरी से हाथ धो बैठे है । दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन संगठनों की इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की जिम्मेदारी है उसके पदाधिकारी दुम हिलाने को विवश है । फर्जीवाड़े का यह तमाम खेल जन सम्पर्क विभाग और श्रम विभाग की मिलीभगत से हो रहा है।

केन्द्र सरकार ने आज के दिन यानी 11 नवम्बर, 2011 को अधिसूचना जारी करके जस्टिस मजीठिया वेबबोर्ड की सिफारिशों को लागू करने के निर्देश सभी समाचार पत्रों को दिए थे । लेकिन उक्त अधिसूचना की सिफारिशों को राजस्थान ही नहीं देश भर के किसी भी अखबार ने पूर्ण रूप से लागू नहीं किया । एकाध समाचार पत्र अपवाद हो सकते हैं।

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जहाँ तक राजस्थान का सवाल है, यहां किसी भी समाचार पत्र ने मजीठिया वेजबोर्ड लागू नहीं किया है । राज्य सरकार की उदासीनता की वजह से पत्रिका, भास्कर, पंजाब केसरी, दैनिक नवज्योति आदि के खिलाफ पांच सौ से अधिक पत्रकार व गैर पत्रकार कर्मी श्रम न्यायालय, राजस्थान हाईकोर्ट में वेजबोर्ड के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।

जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड की अनुशंषा पर वर्ष 2008 में 30 फीसदी अंतरिम राहत दिए जाने की अधिसूचना जारी की थी । यह आदेश बाध्यकारी था, लेकिन किसी भी समाचार पत्र ने तीस फीसदी अंतरिम राहत नहीं दी । पत्रिका में जस्टिस मणिसाना आयोग की सिफारिशों को लागू किया था और उसके मुताबिक वेतनमान दिए भी, लेकिन मजीठिया वेजबोर्ड को सिर्फ कागजों में लागू किया । किसी को भी वेजबोर्ड का लाभ देना अखबारों ने मुनासिब नही समझा । अंतरिम राहत भी अखबार वाले डकार गए।

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देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों यथा जागरण, हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, पत्रिका, भास्कर ने मजीठिया वेजबोर्ड के गठन और उसकी सिफारिशों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करके चुनौती दी थी। सिविल रिट पीटिशन 246/2011 में सभी रीटों को एक साथ शामिल करके सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई।

सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को ऐेतिहासिक फैसले में सभी समाचार पत्र संस्थानों को आदेश दिया था कि मजीठिया वेजबोर्ड संबंधी केन्द्र सरकार की अधिसूचना के अनुसार वेतनमान दिया जाए । सुप्रीम कोर्ट से हारने के बाद भी किसी भी समाचार पत्र ने वेजबोर्ड लागू नहीं किया, ना ही अंतरिम राहत दी और ना ही दिया एरियर । बल्कि वेजबोर्ड नहीं देना पड़े, इसके लिए अनेक तरकीबें ढूंढी गई।

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मीडिया संस्थानों ने डरा धमकाकर पत्रकारों से कोरे कागजों पर जबरन साइन करवाए गए। पत्रकारों व कर्मचारियों ने उक्त दबाव बनाकर करवाए गए हस्ताक्षरों के बारे में लिखित शिकायतें भी श्रम विभाग, श्रम न्यायालय में की । लेकिन श्रम न्यायालय ने कोई कार्रवाई नही की । जिससे मीडिया संस्थानों के हौसले बुलंद हो गए।

केन्द्र सरकार की 11 नवम्बर, 2011 की अधिसूचना और सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पालना नहीं होने पर राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर समेत देश भर के प्रमुख समाचार पत्रों के खिलार सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिकाएं दाखिल की। राजस्थान से करीब तीन सौ से अधिक पत्रकारों व कर्मियों ने याचिका दाखिल की।

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उक्त अवमानना याचिकाओं का पता लगने पर पत्रिका, भास्कर समेत सभी समाचार पत्रों ने पत्रकारों व कर्मचारियों को प्रताडित करना शुरु कर दिया और उन्हें नौकरी से बर्खास्त करने लगे। दूरदराज के राज्यों में तबादले कर दिए। कर्मचारियों की छंटनी शुरु कर दी। तरह तरह से प्रताडित किया। सुप्रीम कोर्ट ने उक्त अवमानना याचिकाओं को निस्तारित करते हुए सभी राज्यों के श्रम विभागों को आदेश दिए कि छह माह में वेजबोर्ड संबंधी प्रकरणों का निस्तारण किया जाए।

उक्त आदेश के बाद श्रम विभाग में वेजबोर्ड लागू करवाने के लिए पत्रकारों व अन्य कर्मियों ने सैकड़ों की तादाद में परिवाद दाखिल किए, लेकिन मीडिया संस्थानों के दबाव में राजस्थान के श्रम विभाग ने एक भी प्रकरण में पत्रकारों व कर्मचारियों को राहत नहीं दी और प्रकरणों को श्रम न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया । राज्य सरकार की मीडिया माफिया से सांठगांठ की वजह से उक्त मामले श्रम न्यायालय और हाईकोर्ट में आज भी लंबित है।

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प्रदेश की सरकार पत्रकार हितों के प्रति उदासीन रही । जबकि मीडिया संस्थान सरकार पर हावी रहे । श्रम विभाग ने ना तो सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार मीडिया संस्थानों में कार्यरत पत्रकारों व दूसरे स्टाफ के वेतन-भत्तों की समुचित जांच की और ना ही वेजबोर्ड के मुताबिक वेतनमान मिला, उसकी पालना की । कोर्ट ने मीडिया संस्थानों की उन दलील को सही नहीं माना है, जिसमें ऑन रोल व अन्य कर्मचारियों को फर्जी तरीके से गठित की गई सेवा प्रदाता कंपनियों में बताकर वेजबोर्ड देने से बचने की जुगत बैठाई थी।

राज्य सरकार को चाहिए कि श्रमजीवी पत्रकारों की हितों की रक्षा के लिए उन्ही अखबारों को विज्ञापन जारी करे जिन्होंने वेजबोर्ड के नियमों की पालना की है । जिन्होंने गलियारा ढूंढ कर पत्रकारों के हितों पर डाका डाला है, उन्हें न केवल अविलम्ब ब्लैकलिस्ट किया जाए बल्कि उनके खिलाफ फर्जी तरीके से प्रसार संख्या दर्शा कर विज्ञापन हड़पने का मुकदमा दर्ज करना मुनासिब होगा।

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