विश्व दीपक-
मोनालिसा से सुंदर दमित्री मुरातोव की मुस्कान
रूसी पत्रकार दिमित्रि मुरातोव जैसे लोग इस यकीन को ज़िंदा रखने के लिए काफी हैं कि पत्रकारिता/लेखन का चुनाव एकदम ग़लत नहीं था.
“नोवाया गजटा” के संपादक दिमित्रि मुरातोव ने कल अपना नोबल पुरस्कार बेंच दिया. बोली के बाद उन्हें 103 मिलियन डॉलर से ऊपर की रकम मिली. कुछ मिनट के अंदर ही मुरातोव ने पूरा राशि यूनिसेफ के खाते में डलवा दी.
मुरातेव ने कहा कि रूसी जार पुतिन ने यूक्रेन के बच्चों का भविष्य नष्ट कर दिया है. हम उन्हें उनका भविष्य वापस करेंगे. इस पूरी रकम को यूक्रेन के विस्थापितों की मदद में खर्च किया जाएगा.
मुरातोव रूसी नागरिक हैं लेकिन वो रूसी जार और रशियन माफिया सरगना, पुतिन के खिलाफ लंबे समय से लड़ रहे हैं. हत्यारे पुतिन ने उन पर भी हमला करवाया लेकिन वो किसी तरह बच निकले.
पुतिन अब तक उनके छह साथियों का कत्ल करवा चुका है लेकिन मुरातोव के चेहरे पर जो कल मुस्कान थी – वो देखने लायक थी.
103 मिलियन डॉलर का दान देने के बाद जो मुस्कान मुरातोव के चेहरे पर थी, वह मेरी निगाह में मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान से ज्यादा प्यारी थी.
कभी सोचा है कि भारत में आखिर मुरातोव जैसे लोग क्यूं नहीं हो पाते?
भक्त-मंडली के चौधरी,चौरसियाओं की बात छोड़ दी जाए तो जिन्होंने अपने कंधों पर भारत बचाने की जिम्मेदारी उठा रखी है, उनकी ज़िंदगी का अधिकतर वक्त इस जुगाड़ में व्यतीत होता है कि कहां से, कैसे, कितना हासिल किया जा सके. यह आचरण व्यक्तिगत दिखता है लेकिन इसी जड़ें बहुत गहराई से समाजिक और सांस्कृतिक विनिर्मितियों में धंसी हुई हैं.
भारत का मन अंदर से खोखला, गुलाम और जुगाडबाज़ है. यही वजह है कि मुरातोव या ओरियाना फलाची (राजेन्द्र यादव ने इसके बार में हंस की संपादकीय में लिखा था) जैसे लोग पैदा नहीं होते.