मैं करीब चालीस साल से हिन्दी अखबारों से जुड़ा हूँ। 1970 के आसपास मैने कार्टून बनाने शुरू किए, जो लखनऊ के स्वतंत्र भारत में छपे। मेरा पहला लेख भी स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय पेज पर तभी छपा। उसका विषय था 18 वर्षीय मताधिकार। उन दिनों मताधिकार की उम्र 18 साल करने की बहस चल रही थी। इस लेख के लिए मैने कई दिन ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी में बैठकर सामग्री जुटाई कि किस-किस देश में 18 साल के लोगों को वोट देने का अधिकार है। पढ़ते-पढ़ते मुझे जानकारी मिली कि स्विट्ज़रलैंड में तो महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार उसी साल 1971 में मिला। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के मुकाबले इस किस्म की पढ़ाई मुझे रोचक लगी। उन दिनों मेरा पूरा दिन ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी या अमेरिकन लाइब्रेरी, अमीरुद्दौला लाइब्रेरी, नरेन्द्रदेव लाइब्रेरी और अमीनाबाद की गंगा प्रसाद वर्मा लाइब्रेरी में बीत जाता था। राजनाति शास्त्र विभाग में एमए की एक या दो क्लास सुबह निपटाने के बाद दिनभर खाली मिलता था।
अशोक जी उन्ही दिनों दिल्ली से भारतीय सूचना सेवा से निवृत्त होकर लखनऊ आए थे। मैने सम्पादक के नाम एक पत्र लिखा कि मैं आपके लिए कार्टून और भारतीय संदर्भ की चित्रकथा बनाना चाहता हूँ। इस पर स्वतंत्र भारत के समाचार सम्पादक चन्द्रोदय दीक्षित का पत्र आया कि किसी रोज दफ्तर आकर मिलो। मैं स्वतंत्र भारत के दफ्तर गया जहाँ चन्द्रोदय जी ने अशोक जी से मुलाकात कराई। मैं नियमित रूप से स्वतंत्र भारत आने लगा। 1973 में मैने एमए परीक्षा पास कर ली तो एक दिन अशोक जी ने पूछा, तुम्हारा क्या करने का इरादा है? उस वक्त तक मैं नहीं जानता था कि मेरा क्या इरादा है। उन्होंने कहा, फिलहाल हमारे यहाँ काम शुरू कर दो। वह 16 सितम्बर 1973 का दिन था। मैने कहा, ठीक है मैं कल से आ जाऊँगा। तब दीक्षित जी बोले कल से क्यों आज से ही आ जाओ, आज मंगलवार है। अच्छा दिन है। तीन बजे आ जाना मिड शिफ्ट में। उसके बाद के तमाम दिनों की घटनाएं मुझे ऐसी याद हैं जैसे कल की बात हों।
20 अगस्त 1979 को अशोक जी के निधन के बाद मुझे पहली बार असुरक्षा-बोध हुआ। स्वतंत्र भारत में रहकर मैने बहुत कुछ सीखा। 1982 में लखनऊ में टाइम्स ऑफ इंडिया आने की चर्चा शुरू हुई। डॉ केपी अग्रवाल पायनियर लिमिटेड छोड़कर बेनेट कोलमन एंड कम्पनी में चले गए। अंततः 1983 में टाइम्स लखनऊ आ ही गया। राजेन्द्र माथुर के साथ काम करने का लोभ मुझे वहाँ ले गया। 1 अक्टूबर को वहाँ जॉइन किया। 17 अक्टूबर को दशहरे के रोज़ औपचारिक रूप से नवभारत टाइम्स का लखनऊ संस्करण लांच किया। वह औपचारिक लांच मात्र था। अखबार बाज़ार में नहीं गया। वास्तव में अखबार नवम्बर में निकला। उस दौरान माथुर जी के साथ रात के एक-दो बजे तक भार्गव की चाय की दुकान पर बैठकर बात करने का मौका मिला।
9 अप्रेल 1991 को जब राजेन्द्र माथुर का निधन हुआ, लखनऊ के नवभारत टाइम्स में हड़ताल चल रही थी। यह हड़ताल 18 मार्च से शुरू हुई थी और अगस्त तक चली थी। देश के किसी अखबार में इतनी लम्बी हड़ताल शायद कभी नहीं हुई होगी। मई में लोकसभा चुनाव होने वाले थे। अयोध्या का मामला खतरनाक मोड़ पर था। माथुर जी का निधन मेरे लिए गहरा धक्का था। नवभारत टाइम्स का लखनऊ संस्करण अंततः 18 जून 1993 को बंद हो गया। मुझे अक्टूबर में जयपुर के संस्करण में भेज दिया गया। मेरा मन जयपुर में नहीं लगा। श्री घनश्याम पंकज से बात करके मैने स्वतंत्र भारत के कानपुर संस्करण प्रभारी के रूप में काम हासिल किया। वहाँ से 1 जून 1995 को जिस दिन मैं लखनऊ संस्करण में तबादला होकर आया, उसी दिन मायावती और मुलायम सिंह का वह ऐतिहासिक संघर्ष शुरू हुआ जिसकी परिणति गेस्ट हाउस कांड के रूप में हुई।
स्वतंत्र भारत की प्रकाशक पायनियर लिमिटेड कम्पनी कानपुर की प्रसिद्ध स्वदेशी कॉटन मिल्स के मालिक जयपुरिया घराने से जुड़ी थी। मेरे देखते-देखते स्वदेशी कॉटन मिल्स शानदार कम्पनी से बीमार में बदल गई। 1991 में इसे बल्लारपुर पेपर मिल्स के ललित मोहन थापड़ ने खरीदा। वे पायनियर को दिल्ली ले गए। हिन्दी के अखबार के साथ वही हुआ जो अक्सर अंग्रेजी अखबार के सहयोगी हिन्दी अखबार को होता है। 1995 में मैं जब स्वतंत्र भारत लखनऊ में आया तभी उसके बिकने की बातें होने लगीं और अंततः फरवरी 1996 में वह बिक गया। जिन्होंने खरीदा वे पूँजी से कच्चे थे और अखबार का अनुभव भी उन्हें नहीं था। 1997 के अंतिम महीनों से कर्मचारियों के वेतन की अनियमितता शुरू हुई जो सुधरी नहीं। 1998 के 17 अगस्त को बड़ी विचित्र स्थितियों में मैने स्वतंत्र भारत छोड़ा। इसके कुछ महीने पहले मेरी बात सहारा टीवी के नए सम्पादकीय हैड इन्द्रजीत बधवार से हो गई थी। बाद में उनके साथ उदयन शर्मा भी आ गए। मई 1998 में दिल्ली में दोनों से मुलाकात करने के बाद मैने तय कर लिया कि अब दिल्ली जाएंगे।
16 अगस्त 1998 के स्वतंत्र भारत के नगर संस्करण में कुछ ऐसा हुआ कि 17 अगस्त को मैंने और नवीन जोशी ने एक साथ इस्तीफा दे दिया। इसके पहले के दो दशक में अखबार के उद्योग को लेकर मेरे मन में जो धारणाएं बन रहीं थीं, उनके अंतर्विरोध बड़ी तेजी से स्पष्ट हो रहे थे। सिद्धांत और व्यवहार में जबर्दस्त खाई नज़र आने लगी। एक सितम्बर, 1998 को मैं सहारा टीवी में शामिल हो गया। नया माहौल और कुछ नए दोस्त मिले। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। पर चैनल शुरू नहीं हो पाया। एक साल गुज़र गया। तभी अगस्त 1999 में श्री आलोक मेहता का हिन्दुस्तान से अप्रत्याशित बुलावा आया। उन्होंने शोभना जी से मुलाकात कराई और 26 अगस्त को मैने नाइट एडिटर पद पर काम शुरू कर दिया। हिन्दुस्तान में काम करना बेहद तनाव भरा था। अभी काम शुरू किया ही था कि छह महीने के भीतर आलोक जी के हटने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फरवरी 2000 में श्री अजय उपाध्याय सम्पादक बनकर आए और आलोक जी जल्द चले गए।
हिन्दुस्तान के मेरे अगले दो साल परेशानी और नए ज्ञान के थे। परेशानियाँ हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग के साथ ऐतिहासिक कालक्रम में जुड़ चुकीं थीं। मैं जिस समय उसमें शामिल हुआ, तब अखबार की गति धीमी होने के अलावा अजब थी। वैसा मुझे उसके पहले कहीं देखने को नहीं मिला। अलबत्ता मैनेजमेंट में बदलाव के साथ वहां मुझे सिक्स सिग्मा से परिचित होने का मौका मिला। विनीत शर्मा क्वालिटी विभाग के हैड बनकर आए। पूरे संस्थान से 12 लोग सिक्स सिग्मा सीखने के काम में लगाए गए। सिक्स सिग्मा काम की गुणवत्ता सुधारने की शैली का नाम है। इसे जीई और मोटोरोला जैसी कम्पनियों ने अपनाया। जैक वैल्च इसके प्रमुख प्रणेताओं में से एक हैं। मेरे विचार से इस तरीके से काम करने वाली संस्था अपने लक्ष्यों को पाने में फेल हो ही नहीं सकती। बहरहाल वह सीखना भी सीखना ही था। सारी व्यवस्थाएं बिखर गईं। उसे शुरू किया था राजन कोहली ने जो ज्यादा चले नहीं।
अजय उपाध्याय दो साल हिन्दुस्तान में रहे। उनके सामने जो चुनौती थी, उसका सामना करने के लिए जिस ताकत और सपोर्ट की उन्हें ज़रूरत थी, वह शायद उपलब्ध नहीं था। मैं शायद इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि तमाम बातों को मैं जानता नहीं। कभी अवसर मिला तो उसे लिखना ज़रूर चाहूँगा, क्योंकि मुझे बहुत सी बातें सीखने को मौका तभी मिला।
मैं मार्च 2002 के आखिरी हफ्ते में अपनी एलटीए की छुट्टी लेकर लखनऊ गया था। शायद 30 या 31 मार्च को नवीन जोशी ने मुझे बताया कि अजय जी हट रहे हैं। श्रीमती मृणाल पांडे सम्पादक बनकर आ रहीं हैं। वे 1 अप्रेल को जॉइन करेंगी। मैं 2 अप्रेल को छुट्टी से वापस आया तो मृणाल जी जॉइन कर चुकीं थीं। मृणाल जी से मेरा पुराना परिचय नहीं था और वे हिन्दुस्तान में पहले काम कर चुकी थीं। उनके पुराने परिचितों में तमाम सहयोगी थे। हिन्दुस्तान में मैं उनके आने के पहले से एक बात पर ध्यान देता था कि यह संस्था काफी बड़ी है, उसमें काम करने वालों और प्रबंध करने वालों की दिलचस्पी हिन्दी प्रकाशनों और हिन्दी पत्रकारों पर बेहद कम है। उस समय तक हिन्दुस्तान प्रसार और गुणवत्ता में काफी पिछड़ चुका था।
सम्पादकीय विभाग पर ट्रेड यूनियन का जबर्दस्त दबाव था। हिन्दी सम्पादकीय विभाग में यूनियन की मीटिंग होती थी। सम्पादकीय विभाग में प्रमोशन के दो-तीन तरीके थे। एक, किसी बड़े राजनेता के मार्फत ऊपर पैरवी कराओ, दो सम्पादक पर साम, दाम, दंड लागू करके दबाव बनाओ। और तीसरा आमफहम तरीका था कि यूनियन से सिफारिश कराओ। ये नियम हिन्दी सम्पादकीय पर लागू होते थे। शायद प्रबंधन ने भी अंग्रेजी अखबार को अच्छे तरीके से चलाए रखने के लिए हिन्दी सम्पादकीय विभाग की गुणवत्ता से समझौता कर लिया था। सम्पादकीय विभाग में प्रवेश का तरीका था पहले किसी भी विभाग में जगह बना लो, फिर सम्पादकीय में प्रवेश लो। गुणवत्ता को लेकर कोई आग्रह नहीं था। इस मोर्चे पर पराजय लगभग स्वीकार कर ली गई थी।
1971 में जब मैने लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए (राजनीति शास्त्र) की कक्षा में प्रवेश लिया तब मेरे साथ विजयवीर सहाय और वीर विनोद छाबड़ा ने भी प्रवेश लिया। विजयवीर के बड़े भाई रघुवीर सहाय तब दिनमान के सम्पादक थे। वीर विनोद के पिता श्री राम लाल उर्दू के लेखक थे। मॉडल हाउस में विजयवीर का घर था, चारबाग में रेलवे की मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में विनोद रहता था। हमारा एक और मित्र था रवि प्रकाश मिश्र। उसका गोलागंज में घर था। वह हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध मिश्र बंधुओं का पौत्र है।
इन महान व्यक्तियों के बीच मैं बड़ा साधारण सा था। इनके साथ रहने पर मुझे बड़ा अच्छा लगता था। हालांकि क्लास में मेरे सबसे पहले दोस्त चन्द्र नाथ सिंह यानी सीएन सिंह थे, जो बाद में प्रतापगढ़ से लोकसभा चुनाव भी जीते। इन सबसे ऊपर मेरे दोस्त थे राजेन्द्र प्रसाद सिंह। जौनपुर के रहने वाले राजेन्द्र प्रसाद सिंह कान्यकुब्ज कॉलेज में बीए की पढ़ाई के दौरान मेरे एक मात्र मित्र थे। कक्षा में मेरा परिचय दो-एक लोगों से था, पर दोस्त वही थे। उन्होंने एमए पूरा नहीं किया। रेलवे की असिस्टेंट स्टेशन मास्टर वाली परीक्षा में पास हो गए तो उन्हों कहा, अब बस !
एमए में मुझसे एक साल सीनियर वीरेन्द्र यादव थे। उस वक्त हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफेसर प्राण नाथ मसलदान होते थे। अपने वक्त के प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री। डॉ लक्ष्मण प्रसाद चौधरी, डॉ राजेन्द्र अवस्थी, डॉ उमा बोरा, डॉ लक्ष्मी दत्त ठाकुर, डॉ शाति देवबाला, डॉ एस एम सईद, डॉ आरएन पांडे और मिस संतोष भाटिया के नाम मुझे याद हैं। हालांकि वह दौर लखनऊ विश्वविद्यालय की बदहाली का दौर ही था, पर शायद आज से बेहतर था। 1971 इंदिरा गांधी की शानदार जीत का साल था। बांग्लादेश की स्थापना का साल भी वही था। मुझे याद है इंदिरा गांधी उस रोज लखनऊ आई हुईं थीं। वहीं से उन्होंने बंग बंधु शेख मुजीब से फोन पर बात की थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय में मुझे पत्रकार बनने का माहौल मिला और प्रेरणा मिली। संयोग से मैने अपनी बीए की पढ़ाई के दौरान कार्टून बनाने की कला सीख ली थी। मेरे कार्टून लखनऊ के स्वतंत्र भारत में छपे भी थे। मैं वहाँ किसी को जानता नहीं था। बस डाक से भेज दिए और छप गए। उसके बाद मुझे हर वहाँ से कभी सात रुपए 40 पैसे का कभी नौ रुपए 90 पैसे का मनीऑर्डर आने लगा। बाद में जब मैं स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग में शामिल हुआ तब अशोक जी ने उन लेखकों के मानदेय में मनीऑर्डर की राशि भी जुड़वानी शुरू की जो दफ्तर आकर पेमेंट नहीं लेते थे। उसे हम पेमेंट के नाम से ही जानते थे।
स्वतंत्र भारत सम्पादकीय विभाग में बाल कृष्ण अग्निहोत्री व्यक्ति नहीं अपने आप में संस्था थे। वे सारे लेखों की प्रूफ रीडिंग करते थे। साप्ताहिक पत्रिका के लिए अग्रिम लेख माँगकर फोरमैन श्री शेषमणि शर्मा, श्री राम इकबाल शर्मा या श्री जयकरन को देते। नाम के पहले श्री लगाने की यह परम्परा मुझे स्वतंत्र भारत में मिली थी। इसे नवभारत टाइम्स में जाकर खत्म किया। बताते हैं एक ज़माने में जेब काटने के आरोप में श्री लल्लू लाल पकड़े गए लिखा जाता था। यह अटपटा लगता है, पर हमसे शुरू में कहा जाता था कि जब तक अदालत से आरोप सिद्ध न हो व्यक्ति अभियुक्त होता है। हम कभी नहीं लिखते थे कि हत्यारा पकड़ा गया। इसकी जगह लिखते थे हत्या के आरोप में फलां को पकड़ा गया।
उस ज़माने में खबरें लिखने में तटस्थता बरतने पर ज़ोर दिया जाता था। शीर्षक लिखने में अपना मत आरोपित करने से बचने पर ज़ोर भी होता था। सीनियर लोग नए साथियों को घंटों समझाते थे। सम्पादकीय विभाग में आने के बाद मैने जीवन में पहली बार अजब फक्कड़, अलमस्त और मनमौजी लोग देखे। उनमें रमेश जोशी भी एक थे। स्वतंत्र भारत में ही नहीं पायनियर में भी। बाद में मैने पी थेरियन की किताब ‘गुड न्यूज़, बैड न्यूज़’ पढ़ी तो वे अनेक नाम याद आए जिनके करीब से मैं गुज़र चुका हूँ।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी के ब्लाग से साभार.