कनूप्रिया-
जो आज भारत पर गर्व करते हुए कहते हैं कि दुनिया भर की IT companies के CEOs देख लीजिये ये है भारत की उपलब्धि. उन्हें भूलना नहीं चाहिये कि वो लोग किस काल में और किन यूनिवर्सिटीज़ में पढ़े. अगर भविष्य की पीढ़ियाँ देखनी हों, तो गलगोटिया यूनिवर्सिटी की तरफ़ देखें और फिर गर्व करें भारत पर, ये महज 10 ही सालों का हासिल है.
एक और तर्क उछाला जाता है नौकरियाँ तो हैं मगर युवाओं के पास skil ही नहीं है. क्यों नहीं है? इसके लिये ऐसे लोग ख़ुद को व्यवस्थित, अनुशासित बताते हुए दावा करते हैं कि आजकल की नई पीढ़ी मोबाइल में डूबी रहती है, नशे की शिकार है, धर्म को कुछ मत कहिये वो तो संस्कारित करने को होता है, हम तो सब कुछ देते हैं, सारे गैजेट्स हैं जिनके पास, मुँह खोलते ही सब मिल जाता है, ये पीढी है ही ऐसी.
ऐसे लोगों का मानना है कि नई पीढ़ी के unskilled होने की, उत्साहहीन होने की सारी जिम्मेदारी ख़ुद उन्हीं के आलस्य पर है, यानी उनके DNA में ही गड़बड़ है. और अगर वो किसी काम के बगैर हैं तो खुद उनकी गलती है. वरना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुछ प्रतिशत जो सफल हैं वो भी तो इसी पीढी के हैं, उन्हें देखिये.
इनके हिसाब से उस वातावरण की कोई खामी नहीं जो उनके लिये बनाया जा रहा है, उन शिक्षा संस्थानों की नहीं जहाँ उन्हें मोटी फीस भेजकर अपने कर्तव्य से छुट्टी मानी जा रही है, उन शिक्षकों की मानसकिता का नहीं जो ख़ुद मानते हैं कि हमारे यहाँ गणेश जी की सर्जरी वाला विज्ञान हुआ करता था, उन किताबो का नहीं जो कहती हैं कि भारत का प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सावरकर था.
जो आज अपने लिये हिन्दू राष्ट्र चुन रहे हैं वो अपनी पीढ़ियों के लिये गलगोटिया यूनिवर्सिटी भी चुन रहे हैं. सम्भव है आपके पास अपनी पीढ़ी के लिये विदेश भेजने के लिये पैसे हों और उनके भविष्य की कोई चिंता न हो, सम्भव है आपकी तैयारी हो कि वो बाहर ही settle हो जाएँ, तो आपको हिन्दू राष्ट्र किसके लिये चाहिये? किस कुंठा के लिये?
मेरा मानना है कि ज़्यादातर हिन्दू राष्ट्र वाले ऐसे हैं जिनका वीज़ा लगने की देर है, उन्हें सच मे इस देश से कोई लेना देना नहीं, वो अपनी कुंठाओं के मरीज हैं इससे अधिक कुछ नहीं, अगर होते तो उन्हें गलगोटिया यूनिवर्सिटी के बच्चों की स्थिति देखकर देश के भविष्य की चिंता ज़रूर हो गई होती.
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