Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

खुद के लिखे-छपे पुराने लेखों को पढ़ने का सुख बता रहे भड़ास वाले यशवंत

Yashwant Singh :   दो पुराने (आई-नेक्स्ट के दिनों के) लेखों को पढ़ने का सुख…. बहुत कम मौका मिलता है पीछे मुड़कर देखने का. लेकिन जब कभी किसी बहाने देखने का अवसर आता है तो कुछ ऐसी चीजें हाथ लग जाती हैं जिसे देखकर मन ही मन कह उठते हैं… अरे, क्या इसे मैंने ही किया था!

Yashwant Singh :   दो पुराने (आई-नेक्स्ट के दिनों के) लेखों को पढ़ने का सुख…. बहुत कम मौका मिलता है पीछे मुड़कर देखने का. लेकिन जब कभी किसी बहाने देखने का अवसर आता है तो कुछ ऐसी चीजें हाथ लग जाती हैं जिसे देखकर मन ही मन कह उठते हैं… अरे, क्या इसे मैंने ही किया था!

Advertisement. Scroll to continue reading.

खासकर हम पत्रकारों के मामले में अपना पुराना लिखा-किया आर्काइव्ड वाला माल देखकर मन खिलखिल हो जाता है… खुद की पीठ ठोंक हम कह उठते हैं- वाह, क्या लिखा था. परसों ऐसे ही खुद के अपने दो पुराने लेख हाथ लग गए. ये तबके हैं जब आई-नेक्स्ट, कानपुर का संपादक हुआ करता था. इस बच्चा अखबार की लांचिंग के कुछ माह हुए थे और तमाम तरह की व्यस्तताओं के बीच मैंने कैसे दो-तीन पीस लेख लिख मारे, मुझे खुद नहीं पता. लेकिन मुझे ये आलेख पढ़कर जरूर याद आ गया कि मैंने इन्हें तब लिखा था जब रुटीन जीवन से बेहद आजिज व डिप्रेस्ड हो चुका था और किसी आजाद पंछी की तरह उड़ना चाहता था. इसी मनोदशा में लिखा गया लेख है ”संगम तीरे न होने का दुख”. उन दिनों मैं कानपुर में था और बगल में इलाहाबाद में महाकुंभ था. न जा सका था.

दूसरा आलेख तब लिखा था जब नौकरी मांगने आने वालों की भीड़ में ऐसे युवक भी मिलते थे जो बेहद शरीफ, भोले और इन्नोसेंट हुआ करते. उनके इतने निष्पाप होने से मेरा कलेजा हिल जाता, उनके बारे में सोच-सोचकर कि ये हरामी दुनिया कैसे तिल तिल कर इनके दिलों को तोड़ेगी. इसका शीर्षक है ”इतने भले न बन जाना साथी”.

Advertisement. Scroll to continue reading.

पुराने लिखे-छपे प्रिंटेड मालों में से ये दो मुझे सबसे ज्यादा पसंद इसलिए आए क्योंकि इन दोनों को पढ़कर मुझे यकीन हुआ कि मेरे अंदर का आध्यात्मिक विकास बहुत पहले शुरू हो गया था जिसे पूरा प्रस्फुटित-प्रफुल्लित होने का मौका भड़ास ने दिया. जय हो… अपने मुंह मिया मिट्ठू. 🙂

पहला लेख ”संगम तीरे न होने का दुख” 18 जनवरी 2007 को प्रकाशित हुआ और दूसरा ”इतने भले न बन जाना साथी” एक फरवरी 2007 को छपा. आप भी पढ़िए. पढ़ते वक्त अंग्रेजी के शब्द भी दाल में कंकड़ की तरह मिलेंगे, उसे इगनोर करिएगा. आई-नेक्स्ट की शुरुआत में चिरकुट टाइप का ये एक प्रयोग हुआ था, जो शायद थोड़ा बहुत अब भी चल रहा होगा… दोनों आलेखों की तस्वीर तो यहां है लेकिन उससे आप पढ़ न सकेंगे… इन दोनों को फिर से टाइप करा के भड़ास पर अपलोड कराया है… नीचे दिए शीर्षक या छपे लेख की तस्वीर पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं… 

Advertisement. Scroll to continue reading.

xxx

भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह की एफबी वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement