संगम तीरे न होने का दुख

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भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह उन दिनों आई-नेक्स्ट अखबार के कानपुर एडिशन के लांचिंग एडिटर हुआ करते थे. 18 जनवरी 2007 को प्रकाशित यह लेख आई-नेक्स्ट में ही एडिट पेज पर छपा था. पेश है वही आलेख, हू-ब-हू…

संगम तीरे न होने का दुख

यशवंत सिंह

अच्‍छा खासा जी-खा रहा हूं. फिर भी खुद को दुखी पा रहा हूं. दुख-सुख रोज की बात है पर अबकी कुछ नए तरह की शुरुआत है. ये ताजा दुख क्‍यूं है? आपने भी सुना होगा, जो मिल जाए कम है, जो न मिले उसका गम है. और यही इस दुनिया का सरल सा नियम है. फिलहाल जो मेरा गम है, उसकी वजह वो सुंदर संगम है.

संगम तीरे बसी दुनिया के सुर-लय-ताल के संग न जी पाने का मलाल है. इसके पहले भी पुण्‍य मौकों पर नहान के लिए लाखों लोगों की जुटान संगम तीरे हुआ करती थी. वहां की खबरें पता चलती थीं, तस्‍वीरें दिखा करती थीं, पर उनको लेकर मन में वो धमाल न था, जो आजकल है.

तब शायद छोटे-छोटे सुखों से मन भरा न था, बड़े-बड़े दुखों से दिल डरा न था. रुपया-पैसा, कैरियर-बिजनेस, खाना-पीना, मौज-मस्‍ती, सफलता-तरक्‍की, घर-मकान, बीबी-बच्‍चे, लड़ाई-झगड़ा, पढ़ना-सीखना, आत्‍ममिवश्‍वास-सम्‍मान, फक्‍कड़ी-घुमक्‍कड़ी, सेक्‍स-संगीत… जैसे ढेरों सुख-दुख, कभी आस तो कभी पास थे, कभी आम तो कभी खास थे. पर इनसे मन भरा न था.

ओशो याद आते हैं, भागो नहीं, भोगो फिर उबरो. बिना भोगे भाग निकले तो मन शांत न रहेगा. जितना भोगोगे उतना सीखोगे, जितना उबरोगे, उतना सहज रहोगे. कुंठित मन लेकर साधुता नहीं पाई जाती. इच्‍छाएं दबाकर सहजता नहीं पाई जाती. प्रलोभन का शिकार मन फकीरी में नहीं रम सकता, और बड़ा मुश्किल है उबर पाना, इच्‍छाओं के पार देख पाना.

कितना साफ कहते हैं कबीर, दुनिया के कारोबार के बारे में, मायामोह के बारे में जिसमें जो फंसा वो फिर अंत तक धंसा…

कबीर माया मोहनी, जैसे मीठी खांड।
सतगुर की कृपा भई, नहीं तो करती भांड़।।

(सतगुरु की कृपा से माया जैसी सम्‍मोहन गुड़ के मीठे स्‍वाद से मैं उबर सका अन्‍यथा इसके चक्‍कर में भांड़ की तरह कई रुप धरकर इस संसार में खुद को नष्‍ट करता रहता)

और

चलती चक्‍की देखकर दिया कबीरा रोए।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए।।

(बहुत मुश्किल है संसार के प्रलोभनों से बचकर निकल पाना, मायामोह की चक्‍की के पाटों से साफ-साफ बचकर कोई नहीं निकल पाता, दुखी हूं इससे, जार-जार रोता हूं)

छोटे सपने, छोटे सुख, छोटी सफलताएं, छोटी लालसांए, छोटे प्रलोभन… इनसे एक-एक कर गले मिलकर, इन्‍हें अपने आप विदा करने से जो सुख है, उसी के चलते बड़े सपनों, बड़ी लालसाओं, बड़े प्रलोभनों,  बड़ी सफलताओं को पाने, और उनकी ओर जाने का रास्‍ता बन पाता है. जब तक ये सब छोटे हैं, तब तक आदमी व्‍यक्तिवादी है, अपने लिए जिंदा है, अपने स्‍वार्थ के लिए चक्‍कर काटता रहता है, दिमाग लड़ाता रहता है. यह भी जरूरी है. तभी तो वह इनकी हकीकत समझ पाता है. बिना जीवन संघर्ष के इस दुनिया की सच्‍चाई सामने नहीं आती और सोच बड़ी नहीं बन पाती और, जब सोच बड़ी होगी तो इससे सबका भला होगा. अपने आस-पड़ोस समाज, प्रांत, देश और दुनिया के लिए सोचेंगे और जिएंगे. मन-मस्तिष्‍क का विस्‍तार-फैलाव होगा तभी हम पूरी मनुष्‍यता के काम आएंगे.

ऐसा लगता है मुझे, संगम तीरे समझ तीरे समझ में आती होगी वह बड़प्‍पन जिसमें अपना होना दूसरों के सुखी होने में निहित है. अपने वजूद को पूरी मनुष्‍यता के दुखों को खत्‍म करने में लगाने की समझ आती होगी. खुद को यूं ही नष्‍ट न कर देने की लालसा पैदा होती होगी.

सच्‍ची कहूं हम सब भरे पेट वाले चकमक रंग-रंगीली दुनिया के लोग, जो एक-एक प्रोडक्‍ट का स्‍वाद वाह-वाह कहते उठा रहे हैं, जब संगम तीरे पहुंचेंगे तो उन लोगों से पहले नए सच को समझ सकेंगे, जो अभी बाजार के दायरे में ही नहीं आए हैं, और बाहर खड़े होकर बाजार को चुंधियाई निगाह से निहार रहे हैं, मौका मिलते ही उसमें घुसने के लिए धक्‍कमधुक्‍का किए हैं. तभी तो, बुद्ध बड़ी आसानी से अपने महल और अपनी सुंदर पत्‍नी-बच्‍चे को छोड़कर आवारापन-बंजारापन वाला जीवन जीने चुपके से निकल लिए और घूमते-टहलते-साधना करते-सोचते एक दिन एक झटके में खोज लिया- मनुष्‍य के दुखों का कारण और उससे उबरने की राह.

वो और लोग थे, उनका दौर कुछ और था. अब तो हर आदमी में है दस-बीस आदमी, हर दु:ख में हैं दस-बीस दु:ख. हर सुख में हैं बस चंद क्षणों का सुख… कब आया और कब हो गया फुर्र.

संगम इसीलिए याद आ रहा है, कि वहां जाकर शांत और सुखी से दिखने वाले अपन लोगों के जीवन में असली सुख और शांति इंज्‍वाय कर रहे साधु-संत लोगों को निहारने और उन्‍हें बूझने का मौका मिलता. रेत में पालथी मारकर ध्‍यान और योग करता.

खुली और शुद्ध हवा में जी भर अंदर तक खींचकर सांस लेता. प्रकृति के करीब जीता, उसका प्‍यार मिलता… सुख और मोक्ष की खोज में विभिन्‍न पंथों, अखाड़ों मठों और संप्रदायों के लोगों के साधना पथ को जानने का मौका मिलता.

वाकई, संगम तीरे मुनष्‍यता-साधुता और सहजता का विश्‍व कप हो रहा है. इसमें विभिन्‍न विचारधाराओं और देश विदेश की टीमें अपनी पूरी ताकत और ऊर्जा के साथ भाग ले रही हैं. यहां न कोई हारता है और न जीतता है. यहां महान मनुष्‍यता को प्राण वायु मिलती है. तभी तो हम भारतीय सनातन काल से भौतिक और आध्‍यात्मिक दुनिया के सुखों-दुखों के बीच संतुलन साधते संपूर्ण जीवन जी पाते हैं. और, तभी खुश होकर कबीर गुनगुनाते हैं-

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पाछे-पाछे हरि फिरें, कहत कबीर-कबीर।।

इस बार मन में इच्‍छा जगी है तो उम्‍मीद है, अगले नहान में संगम तीरे जरूर तनेगा अपन का भी तंबू. इस बार दूर से ही प्रणाम.



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