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सियासत

वो दौर भी आया, जब राधे मां को हर सामान्य विज्ञापन के नीचे छोटी सी जगह मिलने लगी

राधे मां पर कुछ भी लिखने से पहले ये बता दूं कि मैं राधे मां की कहानी पिछले कई साल से फॉलो कर रहा हूं। एक बार ये देखने बोरीवली तक पहुंच गया था कि आखिर ये राधे मां है कौन? इस कौतूहल की दो बड़ी वजह थीं। पहली तो ये कि वो मुंबई शहर के सबसे बड़े होर्डिंग्स पर वो दिन रात चमकती थी। मुझे ये सवाल परेशान करता था कि ये जो भी हैं वो शहर में इतने बड़े पैमाने पर विज्ञापन कैसे दे पाती हैं।

राधे मां पर कुछ भी लिखने से पहले ये बता दूं कि मैं राधे मां की कहानी पिछले कई साल से फॉलो कर रहा हूं। एक बार ये देखने बोरीवली तक पहुंच गया था कि आखिर ये राधे मां है कौन? इस कौतूहल की दो बड़ी वजह थीं। पहली तो ये कि वो मुंबई शहर के सबसे बड़े होर्डिंग्स पर वो दिन रात चमकती थी। मुझे ये सवाल परेशान करता था कि ये जो भी हैं वो शहर में इतने बड़े पैमाने पर विज्ञापन कैसे दे पाती हैं।

पहले कौतूहल से कई साल पहले पर्दा उठ गया। तब पता चला था कि दरअसल राधे मां उन्हीं गुप्ता जी के घर में रहती हैं जो शहर के विज्ञापन वाले होर्डिंग्स का बिज़नेस करते हैं। उनका मूल धंधा तो मिठाई बनाने और बेचने का था लेकिन नई पीढी आई तो उसे बिल बोर्ड, साइन बोर्ड में व्यापार नज़र आया और उन्होंने शहर में बड़ी जगहों पर अपना काम शुरू कर दिया।

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ये व्यापारिक गणित ही था जो राधे मां को शहर के होर्डिंग्स पर जगह देता था। जो लोग विज्ञापन का बाज़ार जानते हैं वो समझते हैं कि कैसे साल में एक दौर आता है जब होर्डिंग्स पर विज्ञापन कम मिलते हैं। ऐसे दौर में गुप्ता जी ने अपने मीडिया संसाधनों का इस्तेमाल किया और होर्डिंग्स खाली छोड़ने की बज़ाए राधे मां की फोटो चिपकाने लगे। उनकी माता की चौकी और भंडारे के विज्ञापन उन खाली दिनों में खूब दिखते।

फिर वो दौर भी आया जब राधे मां को हर सामान्य विज्ञापन के नीचे छोटी सी जगह मिलने लगी। शायद ये वो दौर था जब राधे मां के भक्त इन विज्ञापनों से खूब बढ़ने लगे थे। राधे मां के कार्यक्रमों में शामिल होने के लिये सीधे टल्ली बाबा से संपर्क करने को कहा जाता था। ये टल्ली बाबा नाम ही ऐसा है कि उनको किसी और मार्केंटिंग की जरूरत ही नहीं।

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टल्ली बाबा अपनी माता की चौकियों के उम्दा मैनेजर साबित हुए। गुप्ता जी की मिठाई का कारोबार पीछे छूट गया, अब वो राधे मां से पहचाने जाने लगे। शहर में कई लोग राधे मां का ठिकाना यानी गुप्ता जी का घर बताने लगे। अब विज्ञापन का धंधा चमकने लगा था और जैसे जैसे विज्ञापन चमके त्यों त्यों राधे मां बढ़ती चलीं गईं।

जैसे हर मीडिया के कारोबार में होता है कि प्रोडक्ट बेचने वाले के रूप रंग और दिखने का ख्याल रखा जाता है। वही ध्यान राधे मां के मामले में रखा गया। वो कैसे आयेगी, कैसे दिखेगी इसका फैसला राधे मां कम, वो लोग ज्यादा रख रहे थे जो उन्हें ‘मैनेज’ करते हैं। जब दिखने का सवाल पूरा हो गया तो बड़ा सवाल आया कि बोलना भी प्रभावशाली होना चाहिये।

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बाबाओं- माँओं के बाज़ार में राधे मां बोलने की कला में बड़ी मिसफिट थीं। तो तय हुआ कि मां तो सिर्फ दर्शन देंगी। बोलने का काम छोटी मां और टल्ली बाबा को दे दिया गया। यानी आस्था के कारोबार में छोटी सी आउटसोर्सिंग हुई।

जाहिर सी बात है कि अब तक ब्रांड की कमज़ोरियों को पूरा ढक लिया गया था। जिस दौर में हर बाबा- मां, आस्था से लेकर संस्कार पर आने के लिये लाखों खर्च करने को तैयार हों वहां राधे मां के मैनेजर कभी अपने प्रवचनों के लिए इन चैनलों के पास नहीं गए। बोलने की कमी को पूरा करने के लिए संगीत का सहारा भी लिया गया।

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बॉलीवुड वालों से विज्ञापन वालों के रिश्ते अच्छे हुए तो राधे मां के दरबार में गायकों की कमी नहीं रही। मां दर्शन देती, टल्ली बाबा और छोटी मां संवाद संभालते, बॉलीवुड गाना गाता और भक्त झूमते। मां सीधे भक्तों के बीच नज़र आए इसलिए वो भी बीच बीच में नाच लेतीं। पैकेजिंग बढ़िया हो चुकी थी।

ब्रांडिग और बिज़नेस ठीक चल रहा था कि अचानक से दो तीन साल पहले एक न्यूज़ चैनल को राधे मां में टीआरपी नज़र आई। अब क्या था जो विज्ञापन अब तक राधे मां के प्रचार प्रसार के लिये इस्तेमाल हुआ वही उन पर उलटा पड़ने लगा।

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उस चैनल के बड़े अधिकारी से फोन पर मैंने बात भी की थी। तब पता चला था कि मां का डांस और चौकी का दर्शक ‘लुत्फ’ उठा रहे हैं। अब राधे मां सामूहिक मनोरंजन के लिए इस्तेमाल होने लगीं।

ताज़ा विवाद राधे मां पर किसी दहेज प्रताड़ना के केस से जुड़ा है। वो इस केस में सातवें नंबर की आरोपी हैं। लेकिन मीडिया की दिलचस्पी कुछ ऐसी है कि मानो वही पहली और आखिरी वहीं हैं। इसका ये मतलब कतई नहीं है कि राधे मां कानून का सामना न करें।

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जो भी केस राधे मां पर हैं उन सबको खंगाल कर देख लें कोई गंभीर आपराधिक मामला पहली नज़र में नहीं दिखता लेकिन जब ब्रांडिग के गणित उल्टे पड़ते हैं तो खेल कैसे हाथ से निकल दूसरे के पास चला जाता है इस उदाहरण अब राधे मां हैं। इस उल्टे गणित में अब दूसरे लोग तय करते हैं कि राधे मां में जनता की दिलचस्पी कब तक है? कब तक व्हाट्स अप और फेस बुक पर राधे मां कुछ नया मनोरंजन दे सकती हैं।

जब ये सब ख़त्म हो जाएगा तो यकीन मानिये न्यूज़ चैनलों को राधे मां के पीड़ितों की चिंता खत्म हो जाएगी। गुप्ता जी को बिज़नेस और ब्रांडिग की समझ है इसलिये कई खाली पड़े होर्डिंग्स पर से राधे मां की तस्वीर उतार ली गई है.. जहां थी उसे खरोंच दिया गया है।

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