अजय कुमार, लखनऊ
कांग्रेस के युवराज पूरा देश जीतने के लिये निकले हैं। इसके लिये उन्हें कुछ भी करने से परहेज नहीं है। अपनी तकदीर बनाने के लिये वह देश की तस्वीर बदरंग करने से भी नहीं हिचकिचाते हैं। आज की तारीख में राहुल गांधी अवसरवादी राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बन गये हैं। वह वहां तुरंत पहुंच जाते हैं जहां से मोदी सरकार को कोसा जा सकता है। अभी तक की उनकी सियासत देखी जाये तो वह देश के किसी भी हिस्से में हुई दर्दनाक मौत पर खूब सियासत करते हैं। बुंदेलखंड में भूख से मरते किसानों, मुजफ्फनगर दंगा, अखलाक की मौत, हैदराबाद में एक दलित छात्र की आत्महत्या जैसे मामलों को हवा देने में राहुल को काफी मजा आता है।
संसद में भले ही राहुल नहीं बोल पाते हैं, लेकिन गांव-देहात, आदिवासियों, किसानों के बीच वह खूब बोलते हैं, जहां उनसे कोई सवाल-जबाव करने वाला नहीं होता है। 2014 में भले ही उनके अरमानों पर मोदी ने पलीता लगा दिया हो लेकिन 2014 न सही 2019 में तो पीएम बनने का सपना तो राहुल देख ही सकते हैं। भले ही राहुल की काबलियत पर लोग उंगली उठाते हों, लेकिन जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया है, वहां काबलियत नहीं देखी जाती है। यह परिवार तो यही सोचता और समझता है कि वह देश पर राज करने के लिये ही पैदा हुआ है। ऐसा सोचना गलत भी नहीं है नेहरू-गांधी परिवार की तीन पीढ़िया तो पीएम की कुर्सी पर बैठ ही चुकी हैं तो फिर चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी क्यों नहीं पीएम बन सकते हैं। उनके(राहुल गांधी) पास तो और कोई काम भी नहीं है, जबकि उनके पिता राजीव गांधी तो हवाई जहाज उड़ाते-उड़ाते पीएम बन बैठै थे।
राहुल महाभारत के उस अर्जुन की तरह आगे बढ़ रहे हैं जिसे सिर्फ चिड़िया की ऑख दिखाई देती थी। बस फर्क इतना है कि आज के अर्जुन राहुल गांधी चिड़िया की जगह पीएम की कुर्सी नजर आती है। येन केन प्रकारेण वह इस कुर्सी को हासिल कर लेना चाहते हैं। इसके लिये वह हर हथकंडा अपना रहे हैं। इसके लिये वह अपनी निगेटिव सोच को आगे बढ़ाने से भी गुरेज नहीं करते हैं। उन्हें इस बात की जरा भी चिंता नहीं रहती है कि अब जमाना बदल गया है। किसी नेता को कोई दल जनता के ऊपर थोप नहीं सकता है। मुंबई के प्रबंधन कालेज में राहुल गांधी किस तरह उपहास के केन्द्र बने इसकी अनदेखी भी कर दी जाये तो भी राहुल की योग्यता पर प्रश्न चिंह लगता ही रहेगा। एप्पल के को फाउंडर स्टीव जोंब्स को माइक्रोसेफ्ट का बताने जैसी गलती राहुल अक्सर ही करते रहते हैं। मुंबई के जिस प्रबंधन कॉलेज में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कार्यक्रम को संबोधित किया था, वहां के छात्र-छात्राएं ही उनके संबोधन से संतुष्ट नही दिखे।
कुछ छात्रों ने कहा कि राहुल के भाषण में कुछ ज्यादा ही राजनीति थी। इन छात्रों का कहना था कि राहुल को राजनीति को लेकर अपने विजन पर विस्तार से बोलना चाहिए। जीएसटी पर की गई राहुल की टिप्पणी पर एक छात्र ने कहा कि कुछ चीजें ज्यादा विस्तार से बताई जानी चाहिए थी। जैसे कि यदि जीएसटी विधेयक दो वजहों से अटका है तो सरकार और विपक्ष को इसे आगे बढ़ाने के लिए कोई व्यवस्था तलाशनी चाहिए। एक अन्य छात्र ने कहा कि एक आम आदमी के तौर पर मेरी दिलचस्पी राजनीति में नहीं है। मैं (विधेयक पारित होने में देरी) से निराश हूं। वहीं एक दूसरे छात्र का कहना था कि भारत के नेताओं को ‘‘जैसे को तैसा’’ वाला रवैया छोड़ना चाहिए। कोई देश जैसे को तैसा वाले रवैये से नहीं चल सकता। सवाल-जवाब सत्र में राहुल से सवाल करने वाली एक छात्रा ने कहा कि राहुल गांधी ने मनरेगा और इसकी प्रक्रिया पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया। उन्हें तो हमसे अपने विजन के बारे ज्यादा बात करनी चाहिए थी।
कांग्रेस के युवराज के साथ दिक्कत यह है कि एक पॉव विदेश में और दूसरा पॉव उस जगह रहता है जहां जरा भी वोट की उम्मीद नजर आती है। जो कांग्रेस 60 वर्षो में और राहुल दस वर्षो तक सत्ता में रहते नहीं कर पाये उसके लिये राहुल गांधी केन्द्र की मोदी सरकार को सूली पर लटका रहे हैं। अपने हित साधने के लिये संसद में व्यवधान खड़ा कर रहे हैं। उन सभी मुद्दों को हवा दे रहे हैं जिससे विकास के काम प्रभावित हो सकते हैं। देश में तनाव का माहौल पैदा करने में भी राहुल गांधी की भूमिका लगातार महत्वपूर्ण होती जा रही है। राहुल को न तो कोई टोकने वाला है न कोई रोकने वाला, जिस पार्टी के नेताओं की वफादारी की पहचान दस जनपथ में घुटने टेकने से तय होती हो, वहॉ भला कोई राहुल को कैसे बता सकते हैं कि वह जिस रास्ते पर चल रहें हैं उससे न तो देश का भला होने वाला है न कांग्रेस को कोई फायदा होगा। राहुल सिर्फ दूसरों की आलोचना ही करते रहते हैं। कभी किसी मुद्दे पर अपनी सोच स्पष्ट नहीं करते हैं। चर्चा गंभीर से गंभीर विषय पर चल रही हो, राहुल इसे घूमा फिराकर मोदी, सूट-बूट की सरकार, असहिष्णुता, आरएसएस, दलित, मुसलमान साम्प्रदायिक सोच, न खाऊंगा, न खाने दूंगा के इर्दगिर्द ही ले आते हैं। राहुल की बेतुकी बातों से बीजेपी के नेता और मोदी सरकार ही बेचैन नहीं होते हैं कांग्रेस के भीतर भी दबी जुबान से लोग राहुल की काबलियत पर प्रश्न चिंह लगाते हैं। राहुल की काबलियत पर इतना बढ़ा प्रश्न चिंह लग गया है कि जब वह सही भी होते हैं तो भी लोग उन्हें सही नहीं समझ पाते हैं।
दरअसल, गांधी परिवार के कारण ही कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का गौरव हासिल कर पाई और इसी परिवार के कारण आज कांग्रेस हासिये पर पहुंच गई है। कांग्रेस का अपना कोई काडर नहीं है। गांधी परिवार की नजर में जो व्यक्ति चढ़ गया वह राजा बनकर कांग्रेस में अपनी मनमर्जी चलाता है। राहुल गांधी की पीढ़ा भी यही है कि जिन नये चेहरों को वे आगे लाने की कोशिश करते हैं, पुराने नेता उन्हें पनपने ही नहीं देते। यह स्थिति नेतृत्व के कमजोर होने के कारण उत्पन्न होती है। राहुल को एक दशक से ऊपर का समय सक्रिया राजनीति में आए हुए हो गया है। इस एक दशक में वे उन कांग्रेसियों से मुक्त नहीं हो पाए जो सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द जमा रहते है। अहमद पटेल का जलवा आज भी बरकरार है। उनके गृह राज्य गुजरात में कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पाई है। कांग्रेस में यह परम्परा नई नहीं है। इंदिरा गांधी के जमाने में भी आरके धवन जैसे नेता कांग्रेस को चलाते थे। उस वक्त कांग्रेस दुर्गति से बच पाई तो सिर्फ इसलिए की कोई राजनीतिक दल कांग्रेस को चुनौती देने वाला नहीं था। बात आज के नेतृत्व की कि जाये तो सोनिया गांधी के साथ भाषा की दिक्कत है तो राहुल गांधी तमाम कोशिशों के बाद भी अपनी छवि एंग्री नहीं बना पाए हैं। इसकी वजह भी है।
राहुल गांधी के पास न तो सोच है, न ही ऐसे रणनीतिकार, जो उन्हें देश व्यापी स्वीकार्यता दिला सकें। इसके अलावा राबर्ट वाड्रा, सोनिया और राहुल की कमजोरी बने हुए हैं। मां-बेटे को यह डर सताता रहता है कि राजग सरकार कहीं वाड्रा को जेल नहीं भेज दें? डर स्वाभाविक भी है। वाड्रा कांग्रेस शासनकाल में रातों-रात करोड़ पति कैसे बने गये, इसका जबाव अभी मिलना बाकी है। आरोप है कि हरियाणा से लेकर राजस्थान तक उन्होंने कांग्रेस की सत्ता का दोहन किया। वाड्रा यदि विवाद में रहते हैं तो प्रियंका गांधी कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिये आसानी से आगे नहीं आ सकती हैं।
कई बार यह भ्रम भी पैदा होता है कि सोनिया गांधी चाहती ही नहीं है कि कांग्रेस के पुराने दिन लौटें। राजनीति हमेशा उनके समझ से परे रही। यदि उनमें राजनीति करने और नेतृत्व करने के गुण होते तो डा.मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री ही नहीं होते। कांग्रेस के नेताओं पर कोई नियंत्रण न तो सोनिया गांधी का है और न ही राहुल गांधी का। राज्यों में भी नेतृत्व सामने पहचान का संकट है। राहुल गांधी खुद इसके लिये जिम्मेदार हैं। कांग्रेस के जिन युवा नेताओं का प्रभाव अपने-अपने राज्यों में है, उन्हें नेतृत्व देने का साहस दस जनपथ नहीं उठा पा रहा हैं। सोनिया गांधी को भय सताता रहता है कि नयी पीढी के नेता राहुल गांधी को ओवरटेक न कर जायें। थोड़ी बहुत कसर बाकी थी वह नेशनल हेरेल्ड केस में सोनिया-राहुल का नाम आने से पूरी हो गई। यह ऐसा मसला है जो लम्बे समय तक कांग्रेस के गले की फांस बना रह सकता है।
राहुल गांधी की नासमझी का आलम यह है कि वह एक तरफ देश फतह करना चाहते हैं और दूसरी तरफ उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं है कि उनके संसदीय क्षेत्र अमेठी में संेध लग रही है। यह लापरवाही राहुल की तरफ से तब हो रही है जबकि लोकसभा चुनाव में उनको जीत के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था और भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी ने राहुल कों जबर्दस्त टक्कर देते हुए राहुल की जीत का आंकड़ा काफी कम कर दिया था। कई दशकों से यूपी का अमेठी संसदीय क्षेत्र कांग्रेस पार्टी का अभेद्य किला समझा जाता रहा है, लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाला यह दुर्ग अब दरक रहा है।
इसका नजारा हाल ही में तब देखने को मिला जब दिसंबर 2015 के आखिरी दिनों मे राहुल गांधी दो दिवसीय दौरे पर अमेठी पहुंचे। लेकिन माहौल ऐसा नहीं था, जैसा आज से दस वर्ष पूर्व हुआ करता था। जहां उनके आने की खबर मात्र सें कार्यकर्ताओं और लोगों का हुजूम लगा जाता था। वहां इस बार उनके कार्यक्रम में चंद लोग ही नजर आये। इतना ही नहीं, इसके अलावा भी वह जहां भी गए, जिस गाँव से गुजरे लोगों में वह उत्साह नहीं दिखा। जनसंपर्क के दौरान भी लोग नदारद थे। स्थानीय लोगों के मुताबिक अब राहुल से कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनका कहना था की उन्होंने कई बार राहुल के सामने अपनी समस्याएं रखी, लेकिन उन्हें आश्वासन के अलावा कुछ भी नहीं मिला। हालांकि कुछ कार्यकर्ताओं का कहना है कि राहुल अभी भी अमेठी की जनता के दिलों में रहते हैं, जहां तक कार्यक्रम में भीड़ नहीं जुटने की बात है तो यह कार्यक्रम अचानक बना था इसीलिए लोगों को पता नहीं चल सका। अमेठी की जनता और राहुल के बीच दूरी तो बढ़ ही रही है, अमेठी में राहुल से जुड़े विवाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।
मगर राहुल इन आरोप का सामना करने की बजाये मुंह सिले हुए हैं। अपनी कहना और दूसरे की न सुनने की महारथ रखने वाले कांग्रेस के युवराज अगर अमेठी में अपनी खराब होती छवि को लेकर चिंतित नहीं हैं तो इसकी दो वजह हैं या तो राहुल गांधी ने यह तय कर लिया है कि अब वह अमेठी से अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे (क्योंकि अमेठी में स्मृति ईरानी काफी तेजी से पांव पसार रही हैं) या फिर राहुल के पास उन आरोपों का जबाव नहीं हैं और इसीलिये वह इन मुद्दांे पर बोलकर अपनी और किरकिरी नहीं कराना चाहते हो।
उधर, राहुल के विरोधियों का कहना था कांग्रेस के युवराज को यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई है कि सिर्फ आश्वासन और चिकनी-चुपड़ी बातों से जनता के दिल में जगह नहीं बनाई जा सकती है। एक तरफ राहुल अमेठी को भूल पूरे देश की सुध ले रहे हैं तो दूसरी तरफ केन्द्रीय मंत्री और 2014 में अमेठी में राहुल को कड़ी टक्कर देने वाली स्मृति ईरानी लगातार अमेठी में दौरे पर दौरे कर रही हैं। वह अमेठी आने और यहां आकर राहुल गांधी को आईना दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती हैं। उनके दौरे के दौरान भीड़ भी जुटती है और वह क्षेत्रीय जनता का काम भी कर रही हैं। जनता से संवाद बनाने की कला में राहुल और स्मृति में जमीन-आसमान का फर्क है। राहुल युवराज वाली छवि से उभर ही नहीं पा रहे हैं, जिसका खामियाजा उनको उठाना पड़ सकता है। हद तो तब हो गई जब हाल ही में अमेठी से जिला पंचायत अंध्यक्ष के चुनाव में अमेठी के कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी कृष्णा चौरसिया ने पर्चा वापस लेकर समाजवादी पार्टी को वॉकओवर दे दिया। यही हाल सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में भी रहा जहां उनका जिला पंचायत अध्यक्ष की प्रत्याशी जीत को तरस गईं। जिला पंचायत चुनाव चुनाव में कांग्रेस के 22 में से 21 प्रतियाशियों को हार का सामना करना पड़ा।
अमेठी से लेकर पूरे देश में राहुल जिस तरह की राजनीति कर रहें है उससे पुराने कांग्रेसी काफी चिंतित हैं। इसी लिये पार्टी के बाहर से ही नहीं भीतर से भी चंद नेता राहुल को आइना दिखाने का काम कर रहे हैं। हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को सलाह दी थी कि संसद में भाजपा को जवाब देने के लिए उन्हें ज्यादा आक्रामक होने की जरूरत है। चव्हाण का कहना था कि राहुल को संसद में ज्यादा बोलने के अलावा अपनी भावभंगिमा पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि जनता के बीच उनकी विश्वसनीयता बढ़ सके। संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होता है। ऐसे में राहुलजी को विषयों पर विस्तार से अपनी बात रखना चाहिए। एक वाक्य बोलने से हमेशा काम नहीं चलता है। उन्हें लगातार 45 मिनट से एक घंटे तक बोलना चाहिए। कांग्रेस नेतृत्व के करीबी माने जाने वाले चव्हाण ने कहा कि विपक्ष के नेताओं के लिए संसद ही एकमात्र विकल्प है जहां वे मुद्दों को उठा सकते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि राहुल गांधी को संसद में व्यक्त किए गए विचारों के आधार पर ही जाना जाएगा।
बार-बार फजीहत
मुंबई के प्रबंधन कालेज में सेमिनार से पूर्व नवंबर 2015 में बेंगलुरु के माउंट कार्मल कॉलेज में राहुल का सवाल-जवाब सेशन हुआ था। उनकी उस वक्त भी काफी किरकिरी हुई थी, जब उनके सवालों पर स्टूडेंट्स ने कहा-हां, मोदी सरकार की पॉलिसीज काम कर रही हैं। हालांकि, इसके बाद राहुल ने चर्चा का रुख ही मोड़ दिया। जानिए, आखिर कैसे राहुल और स्टूडेंट्स के बीच सवाल-जवाब हुआ।
राहुल का पहला सवाल-क्या स्वच्छ भारत पर काम हो रहा है ?
स्टूडेंट्स का जबाव-हां।
राहुल का इसी से मिलता-जुलता दूसरा सवाल-मैं तो नहीं देख पा रहा हूं कि स्वच्छ भारत अच्छे से काम कर रहा है। क्या आपको लगता है कि यह काम कर रहा है?
स्टूडेंट्स का फिर से वही जबाव-हां।
राहुल का तीसरा सवाल- मैं एक और सवाल पूछता हूं। क्या मेक इन इंडिया से फायदा हुआ ?
स्टूडेंट्स का फिर से वही जबाव- हां।
राहुल- क्या आपको वाकई ऐसा लगता है ?
स्टूडेंट्स- हां।
राहुल का चौथा स्वाल- क्या देश में यंगस्टर्स को नौकरी मिल रही है ?
स्टूडेंट्स का फिर से वही जबाव- हां।
राहुल निरूत्तर हो गये और बोले- मेरे ख्याल से स्वच्छ भारत काम नहीं कर रहा। मेक इन इंडिया भी काम नहीं कर रहा। देश के लिए बीजेपी का विजन काम नहीं कर रहा। …खैर जो भी हो।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.