लखनऊ : समाजवादी चिन्तन सभा के अध्यक्ष दीपक मिश्र ने समाजवादी पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव पर पलटवार करते हुए कहा कि वे झूठ बोल रहे हैं कि मुझे नहीं जानते। उन्हीं के हस्ताक्षर से मैं समाजवादी पार्टी की प्रबुद्ध प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना था। मेरी चार पुस्तकों के विमोचन के वे साक्षी हैं। “छोटे लोहिया“ जनेश्वर मिश्र ने उन्हें बुलाकर मेरी जिम्मेदारी सौंपी थी। एक प्रतिष्ठित टीवी को दिए गए साक्षात्कार में श्री रामगोपाल जी ने ये कह कर कि वे दीपक मिश्र यानि कि मुझे नहीं जानते, सार्वजनिक रूप से झूठ बोला है। श्री मिश्र ने कहा कि रामगोपाल जी या तो झूठे हैं या फिर “स्मृति-लोप“ (भूलने की मनोवैज्ञानिक बीमारी) से ग्रस्त हो चुके हैं। समाजवादी पार्टी को रामगोपाल जी दोहरा नुकसान पहुँचा रहे हैं। उन्होंने विचारधारा को मजबूत करने वाली गतिविधियों को अवरूद्ध कर पार्टी में गिरोह-बंदी की और गैर-समाजवादी तत्वों को प्रतिबद्ध समाजवादी कार्यकर्ताओं की जगह तवज्जो दी।
उन्होंने रामगोपाल से आग्रह किया बार-बार नेताजी का सार्वजनिक रूप से अपमान करना बंद करें। पार्टी का वैसे ही काफी नुकसान हो चुका है। उनके राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए पार्टी हर राज्य में हारी, यहाँ तक उत्तर प्रदेश में प्राप्त मतों के दृष्टिकोण से तीसरे स्थान पर पहुंच गई। रामगोपाल जी अपनी मेधा का प्रयोग साम्प्रदायिक ताकतों व भ्रष्ट तत्वों से लड़ने की बजाय समाजवादी विचारधारा के प्रतिबद्ध सेनानियों व कार्यकर्ताओं को कमजोर, अपमानित व अवहेलित करते रहे। श्री मिश्र ने आरोप लगाया कि रामगोपाल जी ने पार्टी को बढ़ाने की बजाय पार्टी में खुद को बढ़ाते रहे। उन्होंने करोड़ों कार्यकर्ताओं व भाई अखिलेश के भविष्य को अंधकारमय करने में कोई-कसर नहीं छोड़ी। चार पृष्ठ के पत्र में दीपक मिश्र ने कई सवाल खड़े किए हैं। दीपक ने रामगोपाल के साथ अपनी तस्वीर जारी करते हुए कहा कि उनके झूठ से पर्दा उठाने के लिए ये तस्वीरें काफी हैं। गलती व षडयंत्र रामगोपाल जी करते हैं, कीमत पूरी पार्टी को चुकानी पड़ती है। श्री मिश्र ने कहा कि वे रामगोपाल जी का काफी सम्मान करते हैं, इसलिए उन पर निजी टिप्पणी नहीं करेंगे किन्तु लोहिया-जेपी-जनेश्वर की विरासत को बचाने की लड़ाई लड़ते रहेंगे। रामगोपाल जी इस आरोप कि “उन्होंने अपना वोट सपा को नहीं दिया है“, का खण्डन करते हुए दीपक मिश्र ने कहा कि उन्होंने इतने अपमान के बावजूद भी सपा के पक्ष में कई सभाएं की और सपा के किसी प्रत्याशी के विरूद्ध मतदान करने की अपील नहीं की जबकि रामगोपाल जी ने सपा के अधिकृत प्रत्याशी श्री शिवपाल सिंह यादव के विरुद्ध सार्वजनिक रूप से वोट न देने की अपील की थी और रामगोपाल जी के बूथ पर दो वोट नोटा को गए थे।
रामगोपाल यादव जी को भेजा गया पत्र इस प्रकार है…
श्रद्धेय रामगोपाल जी,
सादर अभिवादन।
श्रीमन्,
देश के एक प्रतिष्ठित समाचार-चैनल को साक्षात्कार के दौरान आपने कहा कि “दीपक मिश्र“ को नहीं जानते। यह देख और सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। यद्यपि आप “कुछ“ कह रहे थे और आपका लहजा “कुछ“ और कह रहा था। मुझे पार्टी से असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, अनैतिक और अतिरंजित कार्यवाही करते हुए निकाला गया, जितनी पीड़ा तब पहुंची उससे अधिक कष्ट आपका साक्षात्कार देख-सुन कर हुआ।
मान्यवर, ऐसा प्रतीत होता है कि आप या तो “स्मृतिलोप अथवा मतिभ्रम“ विकार से ग्रस्त हो चुके हैं या फिर जानबूझ कर सच नहीं बोल रहे है, क्योंकि मैं आपका बेहद सम्मान करता हूँ इसलिए आपको झूठा नहीं कह सकता। विधाता भी चाहे तो इतिहास नहीं बदल सकता। इतिहास को नकारने की झमता ईश्वर ने अभी तक किसी को नहीं दी। चाहे वो त्रेतायुग के स्वयं “राम“ और द्वापर के “गोपाल“ ही क्यों न हो, किन्तु लगता है कि यह ताकत प्रकृति व परमेश्वर ने कलियुग में आदरणीय “रामगोपाल“ जी आपको दे दी है। यह समाजवादी पार्टी का गौरवशाली इतिहास है कि आपने ही दीपक मिश्र यानि मुझे प्रबुद्ध प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय अध्यक्ष अपनी कलम से बनाया था। 23 मार्च 1913 को आपकी पीएचडी-थीसिस पुस्तक के रूप में समारोहपूर्वक विमोचित हुई तो आपने 50 हजार लोगों की मौजूदगी में कहा था कि “दीपक मिश्र से आग्रह करता हूँ कि पुस्तक पढ़कर त्रुटियों से आपको अवगत करायें।“ मेरी चार पुस्तकों के विमोचन के आप साक्षी रहे हैं। सैकड़ों मुलाकातें हैं जिसके समाजवादी पार्टी-परिवार से जुड़े कई लोग गवाह हैं। “छोटे लोहिया“ जनेश्वर मिश्र ने आपसे मेरा परिचय कराते हुए मुझे संरक्षित रखने का निर्देश दिया था। आपने मेरा ख़्याल समाजवादी पार्टी की तरह रखा, दोनों जद्दोजहद करते रहे और आप आपने वातानुकूलित कक्ष व कार की खिड़की तक से नहीं देखा। आपने न केवल मुझे अपितु छोटे लोहिया जनेश्वर जी के वचनों को भी नकारते हुए लांछित कर दिया है।
महोदय, आप स्मृतिलोप से ग्रस्त हैं या मिथ्यावादी (झूठे) हैं, आप जानें, किन्तु दोनों ही परिस्थितियों में समाजवादी पार्टी, सपा के करोड़ो मतदाताओं, लाखों कार्यकर्ताओं एवं भाई अखिलेश का भविष्य चौपट होना तय है। जब आपने बाबू मोहन सिंह को अपमानित किया था, तब उन्होंने मर्माहत होकर एक बात कही थी कि आपको समाजवाद से कोई सरोकार नहीं हैं। जिसदिन नेताजी कमजोर पडे़ंगे, आप उन्हें छोड़ देंगे। आप के समाजवादी सरोकारों पर टिप्पणी करना मुझे उचित नहीं, मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ। किन्तु प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्, मोहन सिंह जी की आशंका को सही साबित करते हुए जैसे ही नेताजी कमजोर हुए, आपने उन्हें छोड़ दिया। आपकी “एकोऽहम् द्वितीयोनास्ति“ की मनोवृत्ति के शिकार कई लोग हुए, इस बार मेरे जैसा ईमानदार एवं प्रतिबद्ध समाजवादी हुआ। उम्मीद है भाई अखिलेश नहीं होंगे। 5 मई को एक टीवी डिबेट में मैंने भ्रष्टाचार के प्रतीक-पुरूष यादव सिंह को बचाने वाले परसेप्शन को आत्मघाती बताया था, मेरे साथ बैठे एक अन्य दल के प्रवक्ता ने कहा कि अब रामगोपाल जी आपको पार्टी से निकाल देंगे। मैंने उनका वहीं प्रतिवाद किया कि रामगोपाल जी समाजवादी हैं, उनका “यादव सिंह“ से “क्या कनेक्शन“ हो सकता है किन्तु 7 मई को मुझे वास्तव में सपा से बिना कारण बताए और अनुशासन समिति द्वारा सुनवाई किए बिना निष्कासित कर दिया गया। मैंने समाजवादी पार्टी के लिए जितना लिखा व लड़ा है जितनी गोष्ठियाँ, बैठकें एवं यायावरी की है शायद ही इस सदी में किसी ने किया हो। 20 साल के सार्वजनिक जीवन में 20 ईंट और 20 रुपया भी अपने घर नहीं दिया। लोहिया की कसौटी पर किसी ईमानदार प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता के बारे में आप जैसे बड़े पद पर काबिज व्यक्ति का अपमानकारी भावभंगिमा में ऐसे शब्द बोलना गलती नहीं “पाप“ की श्रेणी में आता है। मुझे पार्टी से निष्कासित करना वैसी ही गलती है जैसी गलती 10 जुलाई 1955 को लोहिया जी को तत्कालीन तथाकथित समाजवादी दल ने निकालकर की थी। चन्द लम्हों की खताओं पर सदियों आँसू बहते रहे।
“इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई
हम डूबके समझे हैं दरिया तेरी गहराई
ये ज़ब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।“
मैं आपका सम्मान करता हूँ कि इसलिए कदापि नहीं कहूँगा कि आप “नेताजी“ के भाई न होते तो कभी स्वयं को समाजवादी नहीं कहते। मैं मनसा-वाचा-कर्मणा समाजवादी था, हूँ और रहूँगा। मान्यवर, मैं आपकी मेधावी माया व मायावी मेधा को नमन करता हूँ किन्तु इस सच को कैसे नकारूँ कि जब से आप दल में ताकतवर हुए हैं, दल विचारधारा एवं विस्तार के दृष्टिकोण से संकुचित होता गया है। लोग कहते हैं कि आप कार्यकर्ताओं को कीड़ा-मकोड़ा समझते हैं, गिरोहबंदी कर पार्टी को कमजोर कर रहे हैं किन्तु मैं आपका सम्मान करता हूँ इसलिए मैं कदापि नहीं बोलूँगा। मैंने लगातार समाजवादी पार्टी का प्रचार किया, किसी पार्टी-प्रत्याशी को हराने के लिए धन की पोटली नहीं खोली जैसा कि “कुछ लोगों“ ने जसवंतनगर में किया। आप ने आम कार्यकर्ताओं को कहाँ-कहाँ अपमानित किया है और समाजवादी वैचारिकी व पार्टी को किस तरह नुकसान पहुँचाया है, उस पर अगला पत्र अगली बार लिखूंगा, यह पत्र सिर्फ साक्षात्कार में बोले गए झूठ से पर्दा उठाने के लिए था।
अस्तु, आपसे विनम्र निवेदन है कि सार्वजनिक रूप से ऐसी हल्की व झूठी बातें कह कर आप वैयक्तिक रूप से अपनी ही गरिमा का अवमूल्यन न करें। मैं आपका सम्मान करता हूँ, आप नेताजी के भाई हैं इसलिए यह नहीं कहूंगा कि एक गिरोह बनाकर आप भाई अखिलेश को दल के वफ़ादारों व समाजवादियों से दूर करते जा रहे हैं जिसकी परिणति लगातार पराजयों के रूप में सामने आ रही है। 1952 से लेकर आज तक उत्तर प्रदेश में कभी भी समाजवादी पक्ष प्राप्त मतों के दृष्टिकोण से तीसरे स्थान पर नहीं रहा और कभी भी समाजवादी दल साख के संकट से नहीं गुजरा। दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब ऐसा हो रहा है और वह भी तब जब आप सबसे महत्वपूर्ण पद पर विराजमान है। मैंने तो समाजवादी पार्टी का प्रचार किया है, वोट भी दिया है और दिलवाया है। क्या आपने जसवंतनगर चुनाव में समाजवादी पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी श्री शिवपाल सिंह यादव को वोट दिया है? जवाब आप दें न दें, सबको पता है। जहाँ तक मेरी जानकारी है कि सैफई बूथ पर जहाँ के आप मतदाता हैं, दो मत “नोटा“ को मिले थे। जनश्रुति है कि इसमें से एक वोट आपका था। आपकी एक उंगली मेरी तरफ है तो बाकी तीन…….।
“आईना जब कभी भी उठाया करें,
पहले देखा करें फिर दिखाया करें।“
हे महामना, आप हम सभी का जितना चाहें अपमान करें किन्तु नेताजी का अपमान करना बंद कर दें। आपने मुझे प्रबुद्ध प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था, मैंने काम किया जिसकी प्रशंसा आपने स्वयं की फिर आपने विंग ही भंग कर दी। मैंने एक शब्द नहीं बोला क्योंकि आप बड़े हैं, मैं आपका सम्मान करता हूँ लेकिन जब नेताजी ने कारण स्पष्ट करते हुए जब आपको हटाया तो उनके विरूद्ध प्रतिकूल टिप्पणियाँ करने लगे। आपने बड़ों का सम्मान करने की समाजवादी रवायत को कलंकित कर दिया किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा क्योंकि आप बड़े हैं और मैं आपका सम्मान करता हूँ।
श्रीमन, वाचिक वफ़ादार आप जितने नेताजी के प्रतीत होते थे उतने ही भाई अखिलेश के भी दिख रहे हैं। उम्मीद है कि जो आपने नेताजी के साथ किया वो अखिलेश जी के साथ नहीं करेंगे। वैसे भी इतिहास आपको समाजवादी विचारधारा को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाले व्यक्ति के रूप में रेखंकित करेगा।
“आग लेकर हाथ में तू जलाता है किसे,
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जाएगा।
प्यार की धरती अगर नफ़रतों में बाँटी गई,
रोशनी के शहर में सिर्फ धुआँ रह जाएगा,
बस सिसकते आसुओं का कारवाँ रह जाएगा।।
आप बड़े हैं, मैं आपका सम्मान करता हूँ इसलिए शायरी में “तू“ शब्द के लिए माफी चाहता हूँ क्योंकि शायरी के व्याकरण के अनुसार “तू“ ही लिखा जा सकता है। समाजवादी पार्टी सामाजिक सद्भाव व स्नेहासिक्त संबंधों की पार्टी के रूप में विख्यात रही है। अस्तु, तीन प्रसंगों के पश्चात पत्र को विराम दूँगा। जब 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी, नेताजी ने सभी युवाओं को बुलाकर युवा आनुषांगिक संगठनों को पुनर्बहाल किया तब हम सभी ने मिठाइयाँ बाँटी। लड्डू गले से पेट तक नहीं पहुँचा आपने सबको भंग कर दिया। चालाकीपूर्वक यह संदेश दिया कि “न खाता न बही, जो आरजी कहें सही।“
आपने अपने पैरों से लाखों युवाओं का राजनीतिक भविष्य ही नहीं नेताजी व भाई अखिलेश के इकबाल को भी बार-बार रौंदा है। जब श्री अखिलेश ने बतौर एक मुख्यमंत्री एक एसडीएम को निलंबित किया तो आपने निलंबन पर मुख्यमंत्री की कार्यवाही पर सवाल खड़ा करते हुए नोएडा के अधिकारी का साथ दिया। परिणाम स्वरूप एसडीएम की बर्खास्तगी पर इतनी चर्चा हुई और तत्कालीन मुख्यमंत्री भाई अखिलेश का रसूख कम हुआ। आपका नोएडा, गाजियाबाद प्रेम जगजाहिर है, क्यों है, यह अगले पत्र में शोध कर लिखूंगा। आपने पहले नेताजी के नाम पर अपनी तानाशाही दल पर थोपी अब भाई अखिलेश के नाम पर…….। जब हम लोग बसपा की तत्कालीन तानाशाह सरकार से कार्यकर्ताओं से लड़ रहे थे। मुझे हवालात में निरूद्ध कर दिया गया था। सर्द रात में बिछाने व ओढ़ने के लिए अखबार के सिवा कुछ नहीं था। उस समय आप बसपा के एक राष्ट्रीय महासचिव की प्रशंसा के गीत गा रहे थे। शेष अगले पत्र में…. इत्यलम्