सत्येंद्र पीएस-
राष्ट्रवाद एक अद्भुत और लाइलाज बीमारी है। संयुक्त राज्य अमेरिका में लम्बे समय रहे डॉ प्रभाकर सिंह से एम्स में कल लंबी बात हुई। उन्होंने राष्ट्रवाद के बारे में अपने अनुभव साझा किए।
अमेरिका में बड़े पैमाने पर विस्थापित लोग रहते हैं जिसमें भारतीय भी शामिल हैं। जिन्हें अमेरिका में जगह मिल गई, नागरिकता मिल गई, वह किसी भी हाल में भारत वापस नहीं आना चाहते। लेकिन वह बड़े जोर शोर से “आई लव माई इंडिया” के नारे लगाते हैं।
सोमालिया, घाना, युगांडा टाइप के देशों के लोग अमेरिका में और ज्यादा राष्ट्रवाद मचाते है। वह गृहयुद्ध झेलकर भागे हुए लोग हैं जो अमेरिका में अच्छी जिंदगी जी रहे हैं लेकिन “आई लव माई सोमालिया” की टी शर्ट पहनकर घूमते हैं। यह सभी राष्ट्र्वादी हैं और अपने राष्ट्र को अत्यंत प्रेम करते हैं।
और एक तरफ फिनलैंड जैसे समाजवादी देश हैं, जहाँ राष्ट्रवाद बिल्कुल नहीं है। वहां सेहत, खाने पीने से लेकर बुनियादी जरूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी सरकार उठाती है और वहां के लोग किसी अन्य देश में जाना पसंद नहीं करते। वहां की जनता ने राष्ट्रवाद का इलाज खोज लिया है, सुखी हैं। वहां का हैप्पीनेस इंडेक्स बेहतर है।
भारत में समान नागरिक संहिता और जनसँख्या नीति लागू करने की चर्चा है। यूपी सरकार सिंगल चाइल्ड वालों की सहूलियत बढाने की बात कर रही है।
इन कवायदों के पीछे सरकार का सिर्फ एक मकसद लगता है। 7 साल की नालायकी का ठीकरा जनसँख्या पर फोड़ दिया जाए।
और पब्लिक भी चूतियम सल्फेट नामक केमिकल से बनी है। वह यह मान लेने को तैयार बैठी है कि अभी 7 साल पहले पेट्रोल 65 रुपये लीटर था या दाल 70 रुपये किलो और तेल 90 रुपये किलो था तो जनसँख्या कम थी। मोदी जी के सत्ता में आते ही मीयों ने बहुत बच्चे पैदा कर दिए, इसलिए संकट पैदा हो गया है। इसी के चलते सेलरी नहीं बढ़ रही, इंक्रिजमेंट नहीं हुआ, नौकरियां नहीं मिल रही हैं।
भारत भी सोमालिया बनने की ओर है।
शीतल पी सिंह-
83% हिंदू आबादी के दो से ज्यादा बच्चे हैं, ऐसे मुसलमानों की संख्या 13% है जिनके दो से ज्यादा बच्चे हैं। हिंदुओं में दलित आदिवासी और पिछड़ी जातियों के अधिकतर परिवारों में दो से ज्यादा बच्चे हैं।
बीजेपी अज्ञानता का शिकार करती है लेकिन कानून की जद में बहुसंख्यक जनता आएगी और बात फैली तो इसके राजनैतिक निहितार्थ पलट भी सकते हैं।
आंकड़ों से यह भी साफ है कि आबादी का विस्तार और शिक्षा की कमी के बीच सीधा संबंध है। अशिक्षित अल्पशिक्षित और कुशिक्षित परिवार ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते हैं।
जरूरत शिक्षा का बजट बढ़ाने की है पर उसके ज़रिए राजनीतिक एजेंडा पूरा नहीं होता इसलिए वह लगातार कम होता गया है।
सुनील सिंह बघेल-
जनसंख्या के मोर्चे से सुखद खबर है.. भारत के ज्यादातर राज्यों में प्रजनन दर, जिस में मुस्लिम आबादी प्रतिशत वाले राज्य भी हैं की प्रतिस्थापन दर 2.1 के बराबर या इससे नीचे पहुंच चुकी है।
सरल शब्दों में प्रजनन दर( टीएफआर) का मतलब यह है कि एक स्त्री अपने जीवन काल में कितने बच्चों को जन्म देती है ।
प्रतिस्थापन दर मतलब वह अवस्था जहां आबादी बढ़ने की दर स्थिर होने लगती है। अधिकांश देशों में यह 2.1 है।
आम धारणा के विपरीत जिन राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल, आसाम, केरल, लक्ष्यदीप में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत ज्यादा है वहां भी प्रजनन दर, राष्ट्रीय औसत 1.8-1.9 से कम या बराबर है। अब तक आए 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के आंकड़ों के मुताबिक बड़े राज्यों में सबसे कम प्रजनन दर 68% मुस्लिम आबादी वाले जम्मू कश्मीर की है। सबसे कम प्रजनन दर 1.1 के साथ उत्तर पूर्वी राज्य सिक्किम पहले स्थान पर है ।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (एनएफएचएस-5) के अब तक आए आंकड़े बताते हैं कि प्रजनन दर का सीधा संबंध धर्म से नहीं बल्कि शिक्षा ,स्वास्थ्य सुविधा, विकास और सामाजिक आर्थिक स्थिति से ज्यादा है।
विकसित राज्यों और बीमारू राज्यों के आंकड़ों में अंतर इसकी गवाही दे रहे हैं। बिहार अभी भी सबसे ज्यादा प्रजनन दर लगभग(2.7) वाले राज्यों में है। करीब 20% मुस्लिम आबादी वाले उत्तर प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में प्रजनन दर 2.1 से नीचे जा चुकी है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के चलते अभी भी यह दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है।
1951 से लेकर 2011 के बीच मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर दूसरे धर्मों के मुकाबले ज्यादा रही है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि पिछले 20 सालों में प्रजनन दर में गिरावट भी किसी दूसरे धर्म के मुकाबले काफी ज्यादा है। केरल तमिलनाडु कर्नाटक हिमाचल जैसे राज्यों में तो अगले कुछ सालों में आबादी घटना शुरू हो जाएगी।
प्रजनन दर में गिरावट का सीधा असर जनसंख्या वृद्धि दर पर पड़ता है। यदि टोटल फर्टिलिटी रेट (टीएफआर) मैं गिरावट का दौर इसी तरह जारी रहा तो सन 2047-48 के बाद भारत की आबादी 160 करोड़ के पीक पर पहुंचकर गिरावट शुरू हो जाएगी। इस सदी के आखिर में हम मौजूदा करीब 135 करोड़ से घटकर, 100 करोड़ के आसपास रह जाएंगे।