अपने हालिया विदेशी दौरे वाले लेख में स्वयं को स्टार एंकर कहने वाले एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार कमोबेश वही कर रहे हैं जो दूसरे लोग, दूसरे दल या दूसरे पत्रकार कर रहे हैं। पक्षपात, विरोधाभास, मामलों को जरूरत से ज्यादा तूल देने, मुद्दों के मनमाने चुनाव, किसी पर मनमाना ठप्पा लगाने, निरर्थक बहसों आदि के मामले में वे किसी भी तरह दूसरे कुछ पत्रकारों से अलग नहीं हैं। आप मानें या न मानें, लेकिन निम्नलिखित बातों पर एक बार विचार करके जरूर देखें।
अति
जिस प्रकार कुछ समूहों ने जेएनयू में देशविरोधी नारों के बाद विरोधियों को देशद्रोही कहने में अति कर दी है, उसी प्रकार रवीश कुमार ने भी 19 फरवरी की रात अपने चैनल के स्क्रीन को काला करके अति कर दी। निशाना जरूर उनके ही पत्रकार साथी थे, लेकिन वास्तव में रवीश ने यही बताने की कोशिश की कि देश में आपातकाल आ गया है। स्वयं रवीश के समर्थन में पत्रकारों ने लिखा है कि उनके इस प्रस्तुतीकरण ने आपातकाल की याद दिला दी। यानी खुद रवीश के समर्थक कह रहे हैं कि आपातकाल आया तो नहीं है, लेकिन रवीश कुमार ने इसकी याद दिला दी। यह अति नहीं तो और क्या है? क्या देश में आपातकाल आ गया है? क्या केवल एक व्यक्ति की गिरफ्तारी और कोर्ट परिसर में कुछ उन्मादियों के कानून हाथ में लेने भर से देश में आपातकाल आ गया है? जी नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कोई भी तटस्थ विचारों वाला व्यक्ति आपातकाल या अघोषित आपातकाल की बात से सहमत नहीं हो सकता।
ठप्पा
जिस प्रकार कुछ समूहों ने देश विरोधी नारों के बहाने पूरे जेएनयू को निशाने पर ले लिया, उसी प्रकार रवीश कुमार ने पटियाला हाउस कोर्ट मारपीट मामले और कुछ लोगों की निरर्थक बयानबाजी (विरोधियों को देशद्रोही बताने वाली) के बहाने देश के उन सभी लोगों को लपेट लिया जो जेएनयू में देशविरोधी नारों से दुखी हैं और इस मामले में कार्रवाई चाहते हैं। रवीश कुमार जेएनयू में देशविरोधी नारों से दुखी सभी लोगों पर यह ठप्पा लगाने की कोशिश करते दिखे कि वे सभी जरूर भाजपाई या आरएसएस के सदस्य या समर्थक ही होंगे। उन्होंने जेएनयू पर किए गए अपने कार्यक्रमों में कहने की कोशिश की कि देशभक्ति कोरी भावुकता है और लोग भावुक न हों। जेएनयू वाले तो अपने ऊपर लगे आरोपों से भावुक हो जाएं, दुखी हो जाएं, रोष प्रकट करें, जेएनयू के किसी छात्र को कोई अॉटोवाला बैठाने से इनकार कर दे (यह सच होगा, इसमें भी संदेह है) तो रवीश कुमार भावुक हो जाएं, लेकिन देशविरोधी नारों को सुनकर देश के लोगों को भावुक होने की जरूरत नहीं है। देश की सीमाओं पर तैनात जवानों को भावुक होने की जरूरत नहीं है। रवीश ने 2104 के लोकसभा चुनावों में भी यही किया था और भाजपा या नरेंद्र मोदी को वोट देने वाले सभी लोगों को भाजपाई, आरएसएस या सांप्रदायिकता के खाने में डाल दिया था, जबकि हकीकत यह थी कि भाजपा, आरएसएस के घेरे के बाहर से मिले अतिरिक्त वोटों के बिना मोदी को इतनी बड़ी जीत मिलना असंभव था।
तूल
सबसे पहले तो यह हुआ कि रवीश कुमार या उनके चैनल ने जेएनयू में देशविरोधी नारों पर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने या उनके चैनल ने इसकी खास रिपोर्टिंग भी नहीं की। लेकिन इसके बावजूद भी जब मामला गरमा गया तो रवीश का आरोप है कि कुछ चैनल वालों ने इस मामले को तूल दे दिया। उनका आरोप है कि कुछ चैनल वाले लोगों को देशभक्ति के नाम पर भावुक बना रहे हैं और मामले को तूल दे रहे हैं। लेकिन रवीश याद करें कि दादरी कांड या हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के मामले में स्वयं वह क्या कर रहे थे?
कैसे वे अखलाक की हत्या के बाद (नेशनल चैनलों में शायद सबसे पहले वही वहां पहुंचे थे) गांव में घूम-घूमकर और हत्या वाले कमरे में कैमरा चलवाकर सनसनी फैला रहे थे। कैसे उन्होंने इस मामले को तूल दिया और इस रूप में तूल दिया कि जिस राज्य में हत्या हुई, वहां का मुख्यमंत्री तो मजे ले रहा था, जबकि देश का प्रधानमंत्री आरोप झेल रहा था।
यह मामले को तूल देने का ही असर था कि कुछ साहित्यकार भावुक हुए और उन्होंने अपने पुरस्कार वापस कर डाले। जिस प्रकार दादरी में उन्मादी भीड़ ने बिना कुछ सोचे-समझे अखलाक पर अपना फैसला सुना दिया, उसी प्रकार कुछ साहित्यकारों ने मोदी सरकार पर अपना फैसला सुना दिया।
रोहित वेमुला मामले में भी रवीश ने यही किया। उन्होंने इसे अपने अनुकूल दलों की तरह ही दलित उत्पीड़न से जोड़ दिया। उन्होंने लगातार कई दिन तक इस विषय पर मूल मुद्दे से अलग हटकर कार्यक्रम किए और विरोधियों को घेरने की पुरजोर कोशिश की।
रवीश कुमार और उनके समर्थक कहेंगे कि रवीश तो अपना पत्रकार धर्म निभा रहे थे। वे पीड़ित पक्ष की तरफ खड़े थे। बिल्कुल सही बात है। उनका स्टैंड बिल्कुल सही था, लेकिन तूल देना और मुद्दे से भटकने का काम तो उन्होंने भी दिया। सनसनी तो उन्होंने भी फैलाई, बेवजह का फैलाव तो उन्होंने भी किया। ऐसे में यदि कोई दूसरा पत्रकार जेएनयू कैंपस में देशविरोधी नारों के बाद यह तय करता है कि मुझे एक स्टैंड लेना चाहिए और देशविरोधी नारों के विरोध में खड़ा होना चाहिए। इसके साथ ही देश के लोगों को बताना चाहिए, बल्कि बार-बार बताना चाहिए कि जेएनयू में कुछ मुट्ठीभर लोग पिछले कुछ वर्षों से क्या कर रहे हैं तो इसमें क्या गलत है? जहां तक तूल देने की बात है तो जैसे रवीश कुमार आरोपियों का वर्ग (भाजपा, कांग्रेस या अन्य पार्टियां) देखकर मामले को तूल देते हैं या दबाते (मालदा, बंगाल में बम, केरल में भाजपाई की हत्या जैसे मामले) हैं, उसी प्रकार दूसरे पत्रकार भी कर रहे हैं।
जहां तक कन्हैया को न्याय मिलने की बात है तो दोनों ही पक्ष धैर्य नहीं दिखा पा रहे हैं। कुछ चैनल कन्हैया को पहले ही देशद्रोही साबित करने पर तुले हैं तो रवीश और कुछ अन्य उसे क्लीनचिट देने में जुटे हैं। जब कानूनविद भी कह रहे हैं कि इस प्रकार का देशद्रोह का आरोप अदालत में नहीं टिक पाएगा तो रवीश कुमार का कन्हैया को क्लीनचिट देने का प्रयास करना कहां तक उचित है। कन्हैया के समर्थक कह रहे हैं कि सुबूत दिखाओ। अरे भाई सुबूत तो अदालत के सामने दिखाए जाते हैं, इसलिए हमें धैर्य रखना चाहिए। कन्हैया के खिलाफ सुबूत होगा तो उसे सजा होगी और सुबूत नहीं होगा तो वह हीरो बनकर बाहर आएगा, यह निश्चित है।
विरोधाभास
कुछ समय पहले रवीश कुमार ने एक लेख में लिखा कि टीवी से रिपोर्टर और खबरें न जानें कहां गायब हो गई हैं। लेकिन इस लेख के उलट स्वयं उनके चैनल में रात आठ से दस बजे तक खबर नाम की कोई चीज नहीं दिखाई देती। केवल बहस दिखाई देती है और उसमें भी विरोधी ही उनके निशाने पर होते हैं। यही काम तो दूसरे पत्रकार कर रहे हैं, फिर रवीश कहां अलग हुए। इतना ही नहीं एनडीटीवी पर तो यह भी होता है कि रवीश के साथी जिस विषय पर आठ से नौ बजे तक बहस करते हैं, अक्सर रवीश भी उसी विषय पर नौ से दस बजे तक बहस करते हैं। वे दो घंटे तक विषय भी नहीं बदलते, हां मेहमान जरूर बदले होते हैं। ऐसे में खबर के न दिखाई देने का रोना रवीश कुमार का विरोधाभास नहीं है तो क्या है।
कुछ महीने पहले रवीश कुमार “पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ..” जैसा कुछ जुमला लेकर आए थे। इसमें वह कहते थे कि जिस किसी भी पार्टी या नेता पर कोई आरोप लगता है तो वह अपने कृत्य के बचाव में सामने वाले के पुराने या दूसरे कुकृत्य गिनाने लगता है। लेकिन विडंबना देखिए कि स्वयं रवीश भी इसी रास्ते पर जब-तब चलते देखे जाते हैं। हालिया जेएनयू प्रकरण में वे कम्युनिस्ट पार्टी और देशविरोधी नारे लगाने वालों की तरह ही बचाव में ठीक वैसा ही तर्क दे रहे हैं। वे कह रहे हैं कि भाजपा जब कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाने में असहज नहीं है तो जेयूनयू में देशविरोधी नारों पर हंगामा क्यों? वे कह रहे हैं कि जब कश्मीर में रोजाना देशविरोधी नारे लग रहे हैं तो जेएनयू के नारों पर हंगामा क्यों? सवाल यह है कि क्या देशविरोधी नारों का गलत होना केवल भाजपा या आरएसएस से जुड़ा है? क्या देशविरोधी नारों से केवल भाजपा या आरएसएस को ही एतराज है? क्या इनसे इतर लोगों को देशविरोधी नारों से दुख नहीं पहुंचा है। यदि भाजपा कश्मीर में कुछ गलत कर रही है तो क्या भाजपा से इतर लोग भी जेएनयू में देशविरोधी नारों पर आपत्ति न जताएं? यदि कश्मीर में देशविरोधी नारे लगते हैं तो क्या देश के बाकी हिस्से में भी देशविरोधी नारे जायज ठहराए जा सकते हैं? क्या रवीश कुमार नहीं जानते हैं कि कश्मीर की स्थिति देश के बाकी हिस्सों से अलग है?
सत्ता विरोध
पत्रकारिता की दृष्टि से हमेशा ही उसे बढ़िया पत्रकार, अखबार या चैनल माना जाता है जो सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखता है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि कोई पत्रकार, अखबार या चैनल इसके लिए सत्ताओं में से किसी एक का चुनाव करता है तो फिर उसका दोगलापन छिपा नहीं रह पाता है। जिले या राज्य के पत्रकार के सामने तो एक ही सत्ता सामने होती है, इसलिए उसका एक सत्ता को चुनना या निशाना बनाना स्वाभाविक होता है, लेकिन दिल्ली में बैठे राष्ट्रीय अखबारों, चैनलों और पत्रकारों के सामने पूरे देश में कई सत्ताएं होती हैं। ऐसे में यदि वे विरोध करने के लिए किसी एक सत्ता का चुनाव करते हैं और बाकी सत्ताओं को छोड़ देते हैं तो उनकी कथित जुझारू पत्रकारिता की पोल खुल जाती है। ऐसे में उनका सत्ता विरोध निजी खुन्नस ही ज्यादा नजर आता है। अगर आप निष्पक्षता का दावा करते हैं और अगर आपका सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रवैया है तो हर प्रकार की सत्ता के प्रति होना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि मोदी के प्रति तो आप आलोचनात्मक रवैया रखें, लेकिन नीतीश कुमार या ममता बनर्जी के प्रति नरम हो जाएं।
बिहार चुनाव में रवीश कुमार ने लोकसभा चुनाव की ही तरह रैलियों की रिपोर्टिंग से चुनाव की शुरुआत की। वहां उन्हें बोलना पड़ा कि भाषण कला और भीड़ की दृष्टि से मोदी बीस पड़ रहे हैं। इस पर रवीश ने पैंतरा बदला। उन्होंने रैली कवर करना छोड़कर बदलते बिहार पर रिपोर्टिंग शुरू कर दी। यह परोक्ष रूप से नीतीश कुमार का समर्थन करना ही था। बदलते बिहार वाली रिपोर्टिंग लोगों को यह बताने का प्रयास थी कि भले ही कोई बिहार को पिछड़ा कह रहा हो, जंगलराज की बात कर रहा हो, लेकिन बिहार तो बहुत तरक्की कर गया है। जाहिर है जब तरक्की कर गया है तो यह काम नीतीश कुमार ने ही किया है। जाहिर है यह नीतीश ने ही किया था, लेकिन चुनाव के वक्त यह कहना रवीश का निरा पक्षपात था। स्वयं नीतीश की रैलियों में रवीश के कार्यक्रम के आधार पर जिक्र होता था कि बिहार में कैसे लड़कियां बेखौफ साइकिल दौड़ा रही हैं।
दरअसल सकारात्मकता और नकारात्मकता के साथ दिलचस्प पहलू यह है कि यदि आप सकारात्मकता खोजने चलते हैं तो वह आपको भारी नकारात्मकता के बीच भी दिख ही जाएगी। इसी तरह यदि आप नकारात्मकता खोजने चलेंगे तो भारी सकारात्मकता के बीच आपको नकारात्मकता भी मिल ही जाएगी। 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त रवीश कुमार ने मोदी की गुजरात सत्ता में नकारात्मकता खोजना तय किया, जबकि 2105 के बिहार चुनाव में उन्होंने नीतीश की बिहार सत्ता में सकारात्मकता खोजना तय किया। यह उनका चुनाव था, इसमें हम कुछ नहीं कर सकते, पर यह जरूर कह सकते हैं कि जब सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखना है तो फिर ऐसा दोहरापन क्यों?
बंगाल के मालदा कांड पर हमने रवीश कुमार का एक भी कार्यक्रम नहीं देखा। बंगाल में रह-रहकर घरों में हो रहे बम विस्फोटों पर हमने रवीश कुमार को बंगाल भागते नहीं देखा। केरल में कम्युनिस्टों द्वारा विरोधियों की श्रृंखलाबद्ध हत्याओं पर हमने रवीश का कोई कार्यक्रम नहीं देखा। केरल के मुख्यमंत्री के खिलाफ इतना बड़ा मामला हो गया, हमने रवीश कुमार का कोई कार्यक्रम इस पर नहीं देखा। बेंगलुरू कैसे आईटी हब के साथ-साथ रेपिस्टों और गुंडों का हब बन गया है, इस पर हमने रवीश का कोई कार्यक्रम नहीं देखा। केजरीवाल के विज्ञापनों या उनके मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर हमने रवीश का कोई कार्यक्रम नहीं देखा। बिहार में बढ़ रहे अपराधों पर हमने उनका कोई कार्यक्रम नहीं देखा। लोगों को बड़ी खुशी होती यदि जिन मुद्दों (कश्मीरी पंडित आदि) पर जी न्यूज या अन्य चैनल कथित सांप्रदायिक या राष्ट्रवादी रिपोर्टिंग कर रहे हैं, उन्हीं मुद्दों पर रवीश कुमार या उनका चैनल तथ्यपरक और सही रिपोर्टिंग करके दिखाता।
ये मुद्दे छोटे नहीं हैं। ये सभी विभिन्न राज्यों की सत्ताओं से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, सत्ताओं को हिलाने वाले मुद्दे हैं, लेकिन रवीश की मर्जी, हम कौन होते हैं उनसे कार्यक्रम करवाने वाले, लेकिन ऐसे ही अपने हिसाब से मुद्दे चुनने का काम बाकी पत्रकार भी तो कर रहे हैं। कमोबेश यही रवीश भी कर रहे हैं तो फिर वह कहां से अलग हुए?
राजनीति की जानकारी या राजनीति में दखल रखने वालों की बातें छोड़िए, सामान्य व्यक्ति भी टीवी देखते समय यह जान जाता है कि कौन सा टीवी चैनल किस पक्ष में है। स्वयं अपनी पत्नी का उदाहरण देता हूं। पत्नी की राजनीति में रुचि नहीं है, लेकिन खबरें देखने के दौरान वह बड़े सहज भाव से मुझसे दो-तीन बार पूछ चुकी है कि
“ये मोदी के समर्थक (रजत शर्मा) हैं क्या?”
और यह भी कि
“इनको (रवीश कुमार) मोदी से चिढ़ है क्या?”
इससे पता चलता है कि सब अपने-अपने हिसाब से पत्रकारिता कर रहे हैं। कुछ चैनल सत्ता के नजदीक हैं तो कुछ विरोध में। एनडीटीवी और ज्यादा आक्रामक दिखने की कोशिश संभवतः इसलिए कर रहा है कि यदि उसके खिलाफ वित्तीय अनियमितता के मामले में कोई कार्रवाई होती है तो यह दिखाया जा सके कि चूंकि हम सरकार के खिलाफ खबरें दिखा रहे थे, इसलिए सरकार ने मीडिया का गला घोंटने का प्रयास किया है। और इसलिए भी कि इस प्रकार के संभावित आरोप से बचने के लिए सरकार कार्रवाई ही न करे।
लव कुमार सिंह
पत्रकार और लेखक
मकान नंबर 45, सैक्टर 1
शास्त्रीनगर
मेरठ-250004
Jitendra kumar
February 22, 2016 at 5:24 am
जिस चैनल और पत्रकार को देश की जनता किनारा लगा दिया, trp का अंतिम पायदान में पहुंचा दिया ,लेकिन वह रवीश कुमार अपने आपको कानून और संविधान से ऊपर समझता है पूरे मीडिया जगत का अपने को ठेकेदार समझता है की वह जिसे कहेगा सोकूलर या संप्रदायक है , असली बात यह है कि कमाने का जो विदेशी अवैध फंड बंद होने के बाद तिलमिलाया हुआ है और किसकी गोद में बैठा है यह सब जानता है ,जिस आपातकाल का वह बार-बार जिक्र करता है वह तो अभी नजर नहीं आता लेकिन जो आपातकाल का जिम्मेवार है उसकी गोद में बैठकरआपातकाल आपातकाल चिल्ला रहा . मैं भी एक पत्रकार हूं और मुझे देश का कानून और संविधान का पालन करने में गर्व होता है अब समय आ गया है कि ऐसे पत्रकारों का हाया बायकाट किया जाए.
लव कुमार सिंह
February 23, 2016 at 3:42 am
जितेंद्र कुमार जी, अगर आप पत्रकार हैं तो मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया शालीन भाषा में असहमति जताएं। तू-तड़ाक न करें। मेरा मानना है कि रवीश कुमार को आज का रवीश कुमार बनाने में तू-तड़ाक और गालियों का भी काफी योगदान है। तू-तड़ाक और गाली-गलौच से आपकी असहमति का पक्ष कमजोर पड़ता है। इस तू-तड़ाक और गाली-गलौच ने ही सोशल मीडिया का सत्यानाश करके रख दिया है।
Indian
February 23, 2016 at 6:53 pm
मैं रवीश जी को काफी समय से सुनता हूं । और पसंद भी करता हूं । किन्तु जब उन्हें कोई मनमाफिक जवाब नहीं मिलता तो या तो वे असहनसील हो जाते हैं या व्यंगात्मक, जो बहुत बुरा लगता है । वे मोदी विरोधी हैं यह सब जानते हैं, लेकिन वे कुछ के समर्थक हैं यह जानकर अधिक दुःख होता है । राजनेताओं को गाली देते हुए अक्सर लोग अपनी राजनीति कर रहे होते हैं । जब कुछ लोग पत्रकारिता को चौथा स्तम्भ कहते हैं तो और भी दुख होता है । वास्तव में सब राजनीति कर रहे हैं । आम आदमी पार्टी से पूछा जाना चाहिए कि जनता का पैसा खर्च करते हो यह बताने में कि क्या-क्या किया तो इसका भी प्रचार करो कि क्या-क्या नहीं कर पाये । तब तो प्रचार ईमानदार हुआ नही तो प्रचार में भी भ्रष्टाचार ही समझो । अगर बिजली के बिल आधे हुए तो यह दिल्ली की जनता तो जानती है, तो फिर प्रचार क्या पंजाब के लिए हो रहा है ? वह भी सरकारी पैसे से ? वाह ! इस पर कोई पी आई एल क्यों नही करता ?