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सुख-दुख

संघियों ने iimc को बर्बाद कर दिया!

ऋषिकेश शर्मा-

IIMC में जो मौजूदा स्थिति है वो जल्द ही यहां पढ़ने वाले छात्रों की मौलिक चेतना को गटक जाएगा। संघियों ने कैसे शैक्षणिक संस्थानों को बर्बाद करने का सोचा है उसका सबसे बेहतरीन उदाहरण इन दिनों IIMC है। फर्जी तरीके से एक अयोग्य व्यक्ति की डीजी के रूप में एंट्री होती है। फिर गांधी पर गलत टिप्पणी करने वाले को यहाँ प्रोफेसर नियुक्त किया जाता है। फिर कुछ अयोग्य लोगों की नियुक्तियां होती हैं जिनका मामला कोर्ट में जाता है।

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6 महीने के भीतर ही सबसे पुरानी फैकल्टीज़ आनंद प्रधान और अनुभूति यादव को साइड कर नए नियुक्ति वाले लोगों को प्रशासन में बैठाया जाता है। कम से कम संस्थान के नब्ज़ को समझने वाले प्रो आनंद प्रधान को डिसिप्लिनरी कमिटी के हेड से हटाकर संघी गिरोह को वहाँ बैठा दिया गया। ताकि आरोप गढ़ना, सजा देना और अपना एजेंडा चलाना और आसान हो जाए। DSW के पद से प्रो अनुभूति यादव की जगह डीजी ने अपना आदमी बैठाकर संस्थान के डेमोक्रेटिक कल्चर को भी भट्टी में झोंक दिया।

अब छात्र यहाँ अपने अधिकारों के लिए भी मुँह नहीं खोल सकते। हर जगह पर चिलगोजों ने अपने बत्तख बैठा रखे हैं। पत्रकारिता के सर्वोच्च संस्थान में पत्रकारों के जगह हर सप्ताह मंत्रियों को बुलाकर सरकार की उपलब्धियां गिनवाई जा रही हैं। अब इस तस्वीर को देखें। छात्रा इस लाइव सेशन में बस इतना कहती है कि अब उसे ऑनलाइन क्लासेज़ चाहिए नहीं तो वो क्लास बॉयकॉट करेगी। फिर इसके बाद मॉडरेटर ने एक साथ 25-30 लोगों को मीटिंग से निकाल दिया।

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क्या इतनी महंगी फीस भरने के बाद इनका ये अधिकार भी नहीं है कि ये संस्थान की सारी सुविधाओं का लाभ ले सकें? क्या इसपर बात करना भी गुनाह हो गया है? हो सकता है मौजूदा छात्रों को केंद्रीय मंत्रियों वाला पोस्टर्स काफ़ी आनंदित करता होगा लेकिन आपको नहीं पता कि ये आपको किस स्तर पर डैमेज कर रहे हैं? डीजी और उनके नए संघी साथियों की इस मार्किट में इतनी भी औकात नहीं कि ढंग की दो नौकरियाँ लगवा सकें।

इसलिये इनके इस प्रभाव से बाहर निकलिये और अपनी चेतना को जागृत करिये। खुद से सवाल पूछिये कि क्या इतनी महंगी फीस देने के बाद आप खाली हाथ वापस लौटना चाहेंगे? अगर नहीं! तो फिर पूछिये कि क्या आपके दोस्तों के साथ जो हुआ वो अन्याय नहीं है? क्या उनकी आवाज़ों में आपकी भी आवाज़ निहित नहीं थी? अगर नहीं तो फिर कोई बात नहीं। अगर हाँ! तो फिर अपने हक की लड़ाई लड़िये और इनको बता दीजिए कि अगर आप संगठित हो जाते हैं तो इनकी क्या औकात रह जाती है?

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बाकी पूरे रिसेप्शन में अपनी पेपर कटिंग चिपकाने वाले से तो बिल्कुल ही मत डरिये। नोटिस बोर्ड पर लोकल अखबारों में छपे उसके बयान की कटिंग उसकी आइडेंटिटी क्राइसिस को चीख-चीखकर बतला रहा है। ये दुनिया के सबसे ज़्यादा डरे हुए लोग होते हैं। कहियेगा तो मैं एक मेल पढ़वाकर आपको यकीन दिला दूँगा। इनके चमचों को तो और लतियाकर रखिये। संस्थान का इतिहास इन्हें एक भी अच्छे कारणों से कभी याद नहीं रखना चाहता। बस इनकी जीभ बूट पॉलिश के लिए सबसे ज़्यादा उपयुक्त होती है। इसलिये आगे बढ़िये और अपने हक की लड़ाई लड़िये…

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