रांची : 7 जून 2019 को अखबार में एक खबर छपी- ‘विस्फोटक के साथ तीन हार्डकोर नक्सली रूपेश कुमार सिंह, मिथिलेश कुमार सिंह और मुहम्मद कलाम को शेरघाटी-डोभी पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया है’।
इस प्रकरण का सच इस प्रकार है-
रूपेश कुमार सिंह के परिवारवालों का कहना है कि 4 जून 2019 को 8 बजे सुबह रामगढ़ स्थित आवास से रूपेश कुमार सिंह को लेकर उनके साथी वकील मिथलेश कुमार सिंह और मोहम्मद कलाम औरंगाबाद को निकले थे। दस बजे के बाद उनका मोबाइल स्विच ऑफ हो गया। इसके कारण परिवार वाले तनाव में आ गये। 5 जून को परिवार वालों ने रामगढ़ थाने में गुमशुदगी की रपट भी लिखवाई। उसी दिन रामगढ़ पुलिस ने रूपेश कुमार सिंह का वह मोबाइल जो घर पर था, यह कहकर अपने साथ ले गए कि दो घंटे में लौटा देंगे जो अब तक नहीं लौटाया गया है। दूसरी तरफ पुलिस ने उन्हें खोजने का आश्वासन भी दिया।
6 जून को पुलिस ने उन्हें ढूंढने के लिए स्पेशल टीम बनाने की भी बात की। परिवार वालों ने सोशल मीडिया पर यह खबर फैलाई। उसी दिन दोपहर को वकील मिथिलेश सिंह का कॉल आया कि वे लोग ठीक हैं, घर लौट रहे हैं। लेकिन वे लोग शाम तक नहीं लौटे तो घर वालों की चिंता बढ़ती चली गई। उसी दिन शाम को रामगढ़ पुलिस घर आकर इस बाबत पूछताछ की कि क्या वे लोग घर आए? साथ ही उसने यह भी कहा कि जब वे लोग घर लौटें तो खबर कर देना, पुलिस पूरी मेहनत कर रही है। दूसरे दिन 7 जून की सुबह खबर छपी कि ढोभी मोड़ (बिहार) से 6 जून को हार्डकोर नक्सली सहित तीन को गिरफ्तार किया गया है जिनके नाम रुपेश कुमार सिंह, मिथलेश सिंह और मोहम्मद कलाम हैं।
इस मामले पर कई सवाल खड़े होते हैं। पहला इन लोगों से सम्पर्क 4 जून को 10 बजे से बंद हो गया और जब यह बात 6 जून को सुबह से सोशल मीडिया पर फैली तब 6 जून को दोपहर में इनके वापस लौटने की सूचना आई और उसके बाद फिर मोबाइल ऑफ हो गया। यह खबर घर वालों ने पुलिस को भी दी। पर रात तक ये लोग नहीं पहुंचे, उधर रामगढ़ पुलिस की स्पेशल टीम जो इनकी खोज में निकली थी, आश्चर्य की बात है कि उन्हें भी ये लोग नहीं मिले। दूसरे दिन 7 जून को अखबार में खबर छपी कि उन तीनों को डोभी मोड़ से 6 जून को गिरफ्तार कर लिया गया है। जब उनकी गिरफ्तारी 6 जून को हो गयी थी, तो रामगढ़ पुलिस को क्या इसकी खबर नहीं थी? ऐसा कैसे हो सकता है जबकि रामगढ़ पुलिस उनकी ही खोज में निकली थी। जाहिर है वे उन्हें ढुंढने उधर ही गये होंगे, कहीं और नहीं। यदि जब उन्हें खबर थी तब उन्होंने घरवालों को अंधेरे में क्यों रखा? अगर उन्हें उनकी गिरफ्तारी की सूचना नहीं थी तो क्यों नहीं थी? क्या यह सम्भव है जबकि अखबार वालों को भी सूचना मिल गई.
ये सारी घटनाएं बताती हैं कि इसके पीछे एक गहरी साजिश है जिसके तहत स्वतंत्र पत्रकार व प्रगतिशील लेखक रूपेश कुमार सिंह को फंसाया जा रहा है। रूपेश कुमार सिंह एक पत्रकार व प्रगतिशील लेखक हैं जिनके लेख कई चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं. उनकी रचनाएं जन्जवार, देश-विदेश, फिलहाल, समयांतर, दस्तक, जनचौक, क्रोस फायर, हस्तक्षेप, द वायर इत्यादि पोर्टलों, पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. उन्होंने हर समस्या पर अपनी कलम चलाई है. सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ बेबाकी से लिखा है. उन्होंने छात्र छात्राओं के आंदोलन से लेकर मजदूर आंदोलन, किसान आंदोलन, प्रगतिशील लेखकों, एक्टिविस्टों, प्रगतिशील पत्रकारों व बुद्धिजीवियों पर प्रशासनिक हमलों के खिलाफ भी लिखा है। उन्होंने आदिवासियों पर कारपोरेट हमले और सरकारी दमन के विरोध में भी लिखा है। साथ ही सोशल मीडिया पर बहुत सी जुझारू कविताएँ भी लिखी हैं। उनकी रचनाएं सरकारी दमन की पोल खोल देती हैं। यही वजह है उन्हें फंसाया जा रहा है। परिवारवालों का कहना है कि उनके लैपटॉप व मोबाइल भी पुलिस के पास हैं जिसके साथ वह किसी भी तरह की छेड़खानी कर सकती है।
यह आशंका इसलिये बनती है कि 7 जून को ही सुबह ढोभी थाना से बिहार पुलिस की टीम रामगढ़ पहुंच कर रूपेश कुमार सिंह के छोटे भाई कुमार अंशु और ससुर पत्रकार विशद कुमार को रूपेश के बोकारो स्थित आवास पर छापेमारी करने के नाम पर यह बोल कर ले गयी कि छापेमारी में बरामद होने वाले सामान की सूची पर इनकी गवाही चाहिए और वहां से उन्हें कुछ ही देर में छोड़ दिया जाएगा। मगर दोनों शाम तक नहीं लौटे और दोनों का मोबाइल स्विचऑफ बताने लगा। इस बाबत जब रामगढ़ पुलिस से संपर्क कर जानकारी लेने की कोशिश की गई तो उनका जवाब था कि यह एक छानबीन का तरीका है। वे पुलिस के ही पास हैं, गुम नहीं हुए हैं। फिर रात को लगभग 8 बजे उन दोनों का काल आया कि उन्हें अभी छोड़ा गया है, वे आ रहे हैं।
उन्होंने घर आकर जो बताया वह परिवार वालों के लिए काफी चिंता का विषय है। दोनों ने बताया कि उनका मोबाइल पुलिस ने ले लिया था और उन्हें छोड़ने से पहले बिहार पुलिस ने सादे कागज पर एवं सामानों की सूची बिना दर्ज किये हुए कागज पर उन दोनों यानी कुमार अंशु और पत्रकार विशद कुमार का जबरन हस्ताक्षर करवा लिया है. इतना ही नहीं, इनसे यह भी लिखवाया गया कि वे (पुलिस) जब चाहे जहाँ चाहे उन्हें बुला सकती है और उनका वहां पहुंचना जरूरी होगा। यह हस्ताक्षर और बॉण्ड बोकारो के सेक्टर 12 थाना के थाना प्रभारी के चेम्बर में करवाया गया है।
उस दौरान दोनों कुमार अंशु और पत्रकार विशद कुमार को सेक्टर बाहर थाना के कम्प्यूटर हाल में लगभग आठ घंटे तक बिठाकर रखने के बाद भी उन्हें खाना बगैरह के लिए नहीं पूछा गया। शाम तक भूख से परेशान रहे। दूसरी तरफ़ जब इसकी सूचना बोकारो के विधायक बिरंची नारायण को हुई, तो उन्होंने सेक्टर 12 थाना से संपर्क कर पत्रकार विशद कुमार व अंशु के बारे जानना चाहा तो उन्हें किसी ने यह कह कर टाल दिया गया कि थाना में कोई पदाधिकारी नहीं हैं। इस तरह कई पत्रकार मित्रों ने भी विशद कुमार के बारे जानना चाहा तो उन्हें भी कुछ नहीं बताया गया। इसलिए परिवार के लोग कह रहे हैं कि उन सादे बांड पेपर पर कुछ भी लिखकर फंसाया जा सकता है। आखिर सादे पेपर पर साइन करवाने का क्या मतलब है? क्या पुलिस फिर झूठे नये सबूत तैयार करना चाहती है जैसा कि उन तीनों की गिरफ्तारी के साथ विस्फोटक सामग्री को दिखाया गया है।
रूपेश कुमार सिंह सोशल मीडिया पर चर्चित नाम हैं। उनके लेख व कविताओं को पढ़ कर उनके जनपक्षीय पक्ष को जाना जा सकता है और तब यह बात स्पष्ट होती है कि झूठे नक्सली आरोप के साथ उनकी गिरफ्तारी भी उन तमाम जनपक्षधरों की गिरफ्तारी की तरह है जो पूरे देश में प्रगतिशीलों के साथ चल रहा है। यह बुद्धिजीविओं की पहली गिरफ्तारी नहीं है और न ही आखिरी है। अगर इस तरह के दमन का विरोध न हो तो यह भयानक रूप लेता जाएगा और आपकी आवाज आपके भीतर ही दब कर मर जाएगी। बुद्धिजीवियों के इस बूरे दमन के खिलाफ लोगों को आवाज उठानी चाहिए।
इलिका प्रिय
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