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सियासत

संविधान पर खतरे के भय ने सरकार के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं!

केपी सिंह-

18वीं लोकसभा के गठन के लिए चल रहा चुनाव लगभग पूरा हो चुका है। इस चुनाव में मोदी सरकार सलामत रह पाती है या विपक्ष उसका ताज हथियाने में कामयाब होता है इस प्रश्न का उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन मोदी और उनके सहयोगी दावा कुछ भी करें लेकिन इस बार हर जगह उनकी जमीन खिसकती नजर आयी है। इसमें मुख्य रूप से जिस मुद्दे ने बड़ी भूमिका अदा की वह संविधान बदलने की चर्चाओं का रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने जैसे ही इस मुद्दे के कारण अपनी पार्टी के लिए प्रतिकूल परिस्थितियां बनने का आभास पाया उसके बाद उन्होंने पुरजोर सफाई दी कि विपक्ष इसे लेकर निराधार अफवाह फैला रहा है। यही नहीं उन्होंने कांग्रेस पर इस मुद्दे का ठीकरा यह कहते हुए फोड़ने की कोशिश की कि तथ्य गवाह हैं कि संविधान में सबसे ज्यादा संशोधन खुद कांग्रेस ने किये हैं और अब वही संविधान की सबसे बड़ी खैरख्वाह होने का स्वांग रच रही है। लेकिन इन बातों से उनका संकट मोचन नहीं हो पाया और संविधान बदलने की चर्चा धीरे-धीरे बड़ी सत्ता विरोधी लहर में बदलती गई।

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राजनीतिक दल पता नहीं दोहरेपन का चोला ओढ़ने के लिए क्यों अभिशप्त हो जाते हैं। संविधान बदलने का ही मुद्दा लें तो भाजपा लंबे समय से इसके लिए जनमत संगठित करने को प्रयत्नशील रही है। अटल सरकार ने सन 2000 में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश बैंकटचलैया की अध्यक्षता में बाकायदा संविधान समीक्षा आयोग गठित किया था जिसका उद्देश्य शासन की वर्तमान संसदीय प्रणाली को खत्म कर अमेरिका की तरह की अध्यक्षीय प्रणाली को लागू करवाना था। उस समय यह माना जाता था कि अल्पसंख्यक विरोधी छवि के कारण भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने के लिए हमेशा दूसरे दलों की वैसाखियों की जरूरत रहेगी जिसके चलते जब तक सांसदों द्वारा प्रधानमंत्री का चुनाव करने की वर्तमान व्यवस्था बरकरार रहेगी तब तक गठबंधन की मजबूरी के कारण भाजपा के प्रधानमंत्री को सहयोगी दलों की ब्लैकमेलिंग झेलनी पड़ेगी। दूसरी ओर तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य में मुख्य विपक्षी दल की नेता जहां विदेशी मूल के मुद्दे से घिरी होने के कारण सीमाओं में कैद नजर आ रही थी वहीं राष्ट्रीय स्तर पर नेताओं में अटल जी के निर्विवाद सबसे बड़े कद की स्वीकार्यता आसान थी। इसलिए अध्यक्षीय प्रणाली भाजपा को सूट करने वाली थी जिसमें अटल जी सरलता से राष्ट्रªपति चुनकर अपेक्षाकृत स्वतंत्रतापूर्वक शासन चला सकें। लेकिन इस दौरान भाजपा को आगाह किया गया कि संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर में परिवर्तन का अधिकार किसी सरकार को न होने की उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था के मद्देनजर शासन प्रणाली को बदलना संभव नहीं होगा और इसके लिए हठधर्मिता दिखाने पर भाजपा को संकट का सामना करना पड़ सकता है। इन चेतावनियों के बाद भाजपा ने संविधान समीक्षा के इरादे को ठंडे बस्ते में फैंक दिया।

मोदी युग आते-आते भाजपा अकेले दम पर बहुमत जुटाने में कामयाब हो गई फिर भी उसने पूरी सहूलियत के लिए एक बार फिर संविधान में मौलिक परिवर्तन का विचार बनाया। इसके लिए वर्तमान सरकार ने भी जनमत जुटाने की कवायद की जिसके तहत उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ और तत्कालीन विधि मंत्री किरन रिजिजू के ऐसे बयान सामने आये जिनमें बल दिया गया कि संसद का बहुमत संविधान में कुछ भी बदलने में सक्षम है। चूंकि भारतीय संविधान लोगों की आकांक्षाओं को सर्वोच्च दर्जा देता है इसलिए उसमें बदलाव की इच्छा होने पर मौलिक ढ़ांचे का सिद्धांत आड़े नहीं लाया जा सकता। तत्कालीन विधि मंत्री किरन रिजिजू जब लगातार अपने इस दुराग्रह को दोहराने लगे तो उच्चतम न्यायालय की भृकुटियां उन पर तन उठी। अंततोगत्वा मामला इस हद तक बढ़ा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को रिजिजू की विधि मंत्रालय से विदाई में ही खैरियत नजर आयी। इस बीच वन नेशन वन इलेक्शन के लिए उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। ऐसे ही और बदलाव उन्होंने प्रस्तावित करने शुरू किये जिससे एक बार फिर संविधान की मौलिकता को बदलने का प्रयास उनके द्वारा किये जाने की धारणा जोर पकड़ गई। लोकसभा चुनाव की आहट के बीच जब अनन्त हैगड़े और भाजपा के कुछ अन्य नेता जब संविधान बदलने के लिए मुखर हुए तो पहले से विदका हुआ जनमानस नये सिरे से चैकन्ना हो उठा। उसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया भांप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने सहयोगियों की बात की ताइद करने का साहस दिखाने की बजाय प्रतिरक्षात्मक हो गये।

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इस विमर्श पर आगे बढ़ने के पहले हम इसके सैद्धांतिक पक्ष का विवेचन कर लें तो बेहतर होगा। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और संवैधानिक प्रकृति भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए संवैधानिक जड़वाद को उचित नहीं कहा जा सकता। बस इतना है कि संवैधानिक स्थिरता भी लाजिमी है जिसमें किसी छेड़छाड़ की इजाजत रोजमर्रा में नहीं दी जा सकती। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब यह गिनाने बैठ जाते हैं कि कांग्रेस के समय संविधान में कितने संशोधन हुए तो यह एक गंभीर मंथन का सरलीकरण है। भारतीय संविधान में जहां तक शासन की नियमावली का सवाल है उसमें भारतीय संघ अधिनियम 1935 को ज्यों का त्यों पेस्ट कर दिया गया है। इसलिए हमारी संविधान सभा का इसे रचने में कोई बड़ा योगदान नहीं है और इसे आवश्यकताओं के अनुरूप चाहे जब बदलने में किसी तरह का धर्म संकट नहीं हो सकता। संविधान की आत्मा जिसे कहते हैं वे संविधान निर्माताओं की और खासतौर से बाबा साहब अम्बेडकर की उच्च स्तरीय प्रतिबद्धतायें हैं जो सार्वभौम मानवाधिकार के सिद्धांतों के अनुरूप हैं। इनमें परिवर्तन के लिए औचित्य को विस्तृत रूप में प्रदर्शित करना होगा ताकि निहित स्वार्थ अपनी किसी मनमानी को सफल करने के लिए संविधान में परिवर्तन कराने में सफल नहीं हो सकें।

संविधान में मौलिक परिवर्तन जैसे कुछ प्रयास समय-समय पर हुए हैं जिन्हें याद कर लिया जाये तो स्थिति और स्पष्ट हो सकती है। इन्दिरा गांधी ने जब राजाओं के प्रीवीपर्स समाप्त करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदम उठाये तो ये संविधान में कुछ हद तक बेसिक परिवर्तन होते हुए भी उसकी आर्थिक व सामाजिक न्याय की अपेक्षा के अनुरूप था यानी संविधान की आत्मा इन परिवर्तनों में और प्रकट रूप में फलीभूत देखी गई थी। इसके बाद जनता पार्टी की सरकार आयी तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के दर्शन पर अमल की उसकी वचनबद्धता के निर्वाह के लिए संविधान बदलने की स्थितियां फिर बनी। मधुलिमय की अध्यक्षता में जनता पार्टी के घोषणा पत्र को लागू करने के उपायों को सुझाने के लिए समिति गठित की गई। संपूर्ण क्रांति के तहत इस समिति को दल बदल विरोधी कानून का प्रारूप तैयार करवाना था और मतदाताओं को लोगों की अपेक्षा के अनुरूप काम न करने पर रिकाल का अधिकार उन्हें देना था। पर मधुलिमय ने यह पाया कि सुनने में ये व्यवस्थायें जितनी आकर्षक लगती हैं उतनी हैं नहीं क्योंकि इन व्यवस्थाओं को लागू करने से लोकतंत्र जितना मजबूत नहीं होगा उतना उसकी हत्या के लिए निहित स्वार्थों को मजबूत हथियार मिल सकता है। बाद में राजीव गांधी सरकार ने दल बदल विरोधी कानून लागू करवाया। राजीव गांधी सरकार ने संविधान में एक और बड़ा सकारात्मक बदलाव नगर निकायों व ग्राम पंचायतों के चुनावों को संवैधानिक दर्जा देने और इनमें दलितों के अलावा पिछड़ों व महिलाओं को आरक्षण सुनिश्चित करना था।

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संविधान बदलना एक निरंतर प्रक्रिया है। जैसे अध्यक्षीय यानी राष्ट्रपति प्रधान शासन प्रणाली की प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है और व्यक्तिगत रूप से अटल जी की तुलना में मोदी के लिए यह बहुत ज्यादा उपादेय है क्योंकि उनकी हिमालयी लोकप्रियता के सामने विपक्ष का कोई नेता किलो मीटरों दूर तक नजर नहीं आता। निश्चित रूप से मोदी इस व्यवस्था को लागू करवाने के इच्छुक भी होंगे लेकिन अगर उनमें कपट न होता तो विपक्ष के संविधान बदलाव पर हमलावर होने के बाद वे डिफेंसिव होने की बजाय अध्यक्षीय प्रणाली के देश के लिए लाभ को आगे लाने का उपक्रम करते ज्यादा संभावना इस बात की थी कि इसमें उनको प्रबल समर्थन मिलता और विपक्ष को मुंह की खानी पड़ती। पर उनकी दाड़ी में हमेशा तिनका लगा रहता है इसलिए उनमें यह साहस नहीं हो सका। पर यह निश्चित जानिये कि अगर मोदी को तीसरा कार्यकाल मिला तो अगले कार्यकाल के अंतिम दिनों तक हमारी शासन व्यवस्था को राष्ट्रपति प्रधान बनाकर मानेंगे। उन्होंने वन नेशन वन इलेक्शन की जो समिति बनाई है उसकी सिफारिशें भी उनके अगले कार्यकाल में लागू हो जायेंगी और यह भी किसी सीमा तक संविधान के बदलने का उदाहरण होगा।

संविधान बदलने की आशंका के साथ जातिगत जनगणना और जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी के सिद्धांत के अनुरूप आरक्षण को नये सिरे से व्यवस्थित करने की मांगें जुड़ी हुई हैं। सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता के लिए ऐसा करना सरकार का बाध्यकारी कर्तव्य भी है। वैसे तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनावी मंचों पर छाती ठोंककर कह रहे हैं कि वे दलितों और पिछड़ों के आरक्षण को खत्म नहीं होने देंगे जबकि हकीकत कुछ और है। उनके समय लेटरल इंट्री जैसी व्यवस्थायें लागू की गई जिसमें आईएएस बनाने के लिए आरक्षण पर विचार की कोई गुंजाइश नहीं है। सरकारी विभागों की जगहों का वे निजीकरण कर रहे हैं लेकिन यहां भी उन्होंने आरक्षण की शर्त लगाने की आवश्यकता नहीं समझी है। कई विभागों की भर्तियों में अघोषित रूप से आरक्षण उन्होंने खत्म करवा दिया। दूसरी ओर राहुल गांधी का आरोप है कि भारत सरकार 90 सचिव चलाते हैं जिनमें केवल तीन पिछड़ा वर्ग से हैं। अगर राहुल की बात गलत है तो प्रधानमंत्री इसका खंडन करें। अगर सही है और उनकी नीयत में कोई खोट नहीं है तो वे मंच से वायदा करें कि अगली बार से इस भूल को सुधारा जायेगा और पिछड़ों को भारत सरकार में उनकी संख्या के अनुपात में पोस्टिंग दी जायेगी। पर वे ऐसा करने को तैयार नहीं है इसीलिए लोग यह मान रहे हैं कि विपक्ष ने सरकार पर संविधान बदलने के लिए प्रयास करने का जो आरोप लगाया है उसमें पूरी तरह दम है। संविधान सामाजिक न्याय के लिए जो प्रतिबद्धता घोषित करता है मोदी सरकार उससे मुकरना चाहती है क्योंकि धर्म के नाम पर वह एक ऐसी विचारधारा से बंधी हुई है जिसमें समता और बंधुत्व की बजाय औपनिवेशिक परंपराओं को लागू किया जाता है। इसलिए संविधान की सुरक्षा का मतलब शब्दशः उसे बनाये रखने की हठधर्मी सोच न होकर उसके मूल तत्वों से जिनमें सामाजिक न्याय शामिल है छेड़छाड़ न होने देना है।

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