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सुख-दुख

पत्रकारिता की दुनिया में मेरा प्रवेश ओमप्रकाश जी के जरिए हुआ

Sanjay Tiwari : हालांकि मैं उनका सबसे नकारा चेला था फिर भी जिसे पत्रकारिता जैसा कुछ कहते होंगे उस दुनिया में प्रवेश तो ओमप्रकाश जी Om Prakash Singh के जरिए ही हुआ. खांटी समाजवादी पृष्ठभूमिवाले ओमप्रकाश सिंह ने हालांकि बोलकर कभी कुछ सिखाया नहीं लेकिन जो भारत स्वराष्ट्र समाचार उन्होंने शुरू किया था वहां से सालभर भगाया भी नहीं. करीब करीब सालभर पेटपर पलकर उनके साथ काम करते रहे. उसके बाद २२-२३ साल की उम्र में किसी और साप्ताहिक के अति उत्साही संपादक बन गये जिसका सिर्फ दो अंक ही प्रकाशित हो पाया.

<p>Sanjay Tiwari : हालांकि मैं उनका सबसे नकारा चेला था फिर भी जिसे पत्रकारिता जैसा कुछ कहते होंगे उस दुनिया में प्रवेश तो ओमप्रकाश जी Om Prakash Singh के जरिए ही हुआ. खांटी समाजवादी पृष्ठभूमिवाले ओमप्रकाश सिंह ने हालांकि बोलकर कभी कुछ सिखाया नहीं लेकिन जो भारत स्वराष्ट्र समाचार उन्होंने शुरू किया था वहां से सालभर भगाया भी नहीं. करीब करीब सालभर पेटपर पलकर उनके साथ काम करते रहे. उसके बाद २२-२३ साल की उम्र में किसी और साप्ताहिक के अति उत्साही संपादक बन गये जिसका सिर्फ दो अंक ही प्रकाशित हो पाया.</p>

Sanjay Tiwari : हालांकि मैं उनका सबसे नकारा चेला था फिर भी जिसे पत्रकारिता जैसा कुछ कहते होंगे उस दुनिया में प्रवेश तो ओमप्रकाश जी Om Prakash Singh के जरिए ही हुआ. खांटी समाजवादी पृष्ठभूमिवाले ओमप्रकाश सिंह ने हालांकि बोलकर कभी कुछ सिखाया नहीं लेकिन जो भारत स्वराष्ट्र समाचार उन्होंने शुरू किया था वहां से सालभर भगाया भी नहीं. करीब करीब सालभर पेटपर पलकर उनके साथ काम करते रहे. उसके बाद २२-२३ साल की उम्र में किसी और साप्ताहिक के अति उत्साही संपादक बन गये जिसका सिर्फ दो अंक ही प्रकाशित हो पाया.

देखते देखते एक दशक से ज्यादा का वक्त बीत गया. इस एक दशक में ओमप्रकाश जी ने भी बड़ी दुनिया देखी और मैंने भी. हम लोग फिर कम ही मिले. मुझे ये पत्थरकारिता करनी भी नहीं थी इसलिए मिलने मिलाने का कोई ऐसा योग संयोग भी कहां बनता? लेकिन न जाने कैसे घूमफिरकर इसी दुनिया में वापस आ गये. और जब वापस आये तो वह सबकुछ बहुत काम आया जो मैंने सीखने के लिए कभी सीखा नहीं था और ओमप्रकाश जी ने सिखाने के लिए कभी सिखाया नहीं था.

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गुरू चेला तो क्या कहें लेकिन मेरी नजरों में वे हमेशा कलम के जादूगर रहे हैं. लेखन की रिपोर्ताज शैली शायद मैंने उन्हीं से सीखी बिना सीखे हुए जो कि बाद में संजय तिवारी की शैली बन गयी. शब्दों को दिमाग से जोड़ने की बजाय दिल से जोड़ने की विद्या भी शायद उन्हीं के कारण मेरे भीतर पैदा हुई होगी. फिर पत्रकारिता के लिए भूखे पेट रहने की कला भी उन्हीं को देखकर सीखी होगी कि कैसे अपने ही अखबार में विज्ञापन और समाचार में जंग हो जाए तो समाचार का साथ दो, विज्ञापन को तो किसी और अखबार में भी जगह मिल जाएगी.

स्मृति से तो शायद ही कभी ओमप्रकाश जी ओझल होते लेकिन अब फेसबुक पर मिल गये तो कभी कभी उनको पढ़ने का मौका मिलने लगा है. पत्रकार की पढ़ाई और समझ का दायरा क्या हो सकता है यह ओमप्रकाश जी को पढ़ते हुए समझ सकते हैं. धर्मयुग और जनसत्ता के जंगजू रहे ओमप्रकाश सिंह अब फेसबुक पर कलम की जंग का ऐलान कर दिया है. अपने सभी ग्रहों, पूर्वाग्रहों और नवग्रहों के साथ.

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वेब जर्नलिस्ट संजय तिवारी के फेसबुक वॉल से.

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