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सुख-दुख

भूखे पेट और कमजोर इम्यूनिटी वालों को जल्दी पकड़ती है छूत की बीमारी!

Rising Rahu : उन दिनों मैं एक मेडिकल कॉलेज के टीबी वार्ड में भर्ती था। टीबी नहीं था मुझे, मगर फेफड़ों में कुछ दिक्कत थी, जिसकी वजह से मैं बीमारियों के सबसे अनचाहे वार्ड में दिन गुजार रहा था। मेरे बगल के वार्ड में एक औरत थी, जिसमें हवा भर गई थी और वह बिलकुल गुब्बारे की तरह फूली हुई थी।

डॉक्टरों ने उसकी देह में कुछ छेद किए। काफी देर उसे पकड़कर यूं दबाया कि उसकी हवा निकले, लेकिन कामयाब नहीं हुए। फिर उन्होंने उसके घर वालों को वही काम करते रहने को कहा। डॉक्टरों ने तभी कह दिया था कि बहुत उम्मीद नहीं है। सुबह तकरीबन पांच बजे जब वार्ड में रोना-पीटना मचा तो मैं समझ गया कि हवा तो नहीं निकली, जान जरूर निकल गई। डेढ़-दो घंटे रोना-पीटना चला, फिर बीमारी की बातें शुरू हुईं, जिनका लब्बोलुआब यही था कि बहुत कष्ट में थी, आखिरकार मुक्ति मिल गई।

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टीबी वार्ड को छूत रोग वार्ड भी कहते हैं। पूरी मेडिकल रिपोर्टिंग के दौरान दिमाग में जो सवाल नहीं कौंधा, वह रात डॉक्टरों की कसरत देखकर कौंध गया। सुबह जब डॉक्टर ड्यूटी पर आए तो मैंने उनसे पूछा कि इतने रोगियों के बीच आप लोग छूत से कैसे बचते हैं? अधिकतर डॉक्टरों को एमबीबीएस फर्स्ट ईयर से लेकर सेकेंड ईयर तक एकाध बार टीबी हो चुकी होती है। लेकिन उन्हें पढ़ाने वाले प्रफेसरों का मानना है कि ऐसा टेंशन के चलते होता है।

बच्चों ने जीने-मरने वाला ऐसा माहौल पहले कभी देखा नहीं होता और पढ़ाई का बोझ भी जबरदस्त होता है। लेकिन उस टीबी वार्ड में तो एमडी की पढ़ाई करने वाले डॉक्टर बैठते थे। बहरहाल, मेरे सवाल करते ही वह डॉक्टर मुझे उसी वार्ड के एक कमरे में लेकर गया। वहां खाने-पीने की ढेर सारी चीजें रखी हुई थीं। ब्रेड-मक्खन, ऑमलेट, उबले अंडे, पीने के लिए दो तीन तरह के जूस और दूध।

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डॉक्टर ने बताया कि अस्पताल का यह अघोषित नियम है कि डॉक्टरों का पेट हमेशा भरा होना चाहिए। मैंने पूछा कि नियम टूट जाए तो? डॉक्टर बोला कि फिर दो बातें होती हैं। एक तो प्रफेसर साहब नहीं छोड़ते। सजा तामील होती है। दूसरे, खाली पेट छूत का रोग नहीं छोड़ता। मैंने पूछा कि क्या इसीलिए ज्यादातर डॉक्टर मोटे होते जाते हैं? उसने कहा कि हो सकता है, पर जरूरी नहीं।

मुझे यह सब बताने वाला डॉक्टर छरहरा था और रात में वही उस औरत की देह दबाकर हवा निकाल रहा था। हालांकि ऐसी बहुतेरी बीमारियां हैं, जो ज्यादा खाने वालों को ही पकड़ती हैं, लेकिन छूत के मामले में अधिकतर चीजें हमारी प्रतिरोधक क्षमता पर डिपेंड करती हैं। छूत ही क्यों, लू या शीत लहर भी खाली पेट वालों पर ही वार करती है। तबसे जब भी मुझे भूख लगती है, तुरंत कुछ खाता हूं, क्योंकि खाने-पीने की लापरवाही ने ही मुझे उस टीबी वार्ड में पहुंचाया था।

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नवभारत टाइम्स में कार्यरत पत्रकार राहुल पांडेय की एफबी वॉल से.

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