पिछले दो दशकों से लगातार हिंदी में देश के विभिन्न राज्यों से ग्रामीण पत्रकारिता कर रहे शिरीष खरे की पुस्तक ‘एक देश बारह दुनिया’ पिछले दिनों राजपाल एंड सन्स, नई-दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इसमें शिरीष ने देश के सात राज्यों से बारह अदृश्य संकटग्रस्त क्षेत्रों की मैदानी सच्चाई बयां करने वाले विवरणों को रिपोर्ताज विधा में संजोया है। यह पुस्तक देश-देहात में पिछले एक-डेढ़ दशकों से चल रही त्रासदी, उम्मीद और उथल-पुथल के बीच उस असली हिंदुस्तान को छूती है जिसका सीधा सरोकार गांवों और वंचितों से है।
कोरोना-काल के इस दौर में जब दुनिया डिजीटल पर आना चाहती है, तब बतौर पत्रकार शिरीष इस डिजीटल दुनिया से कटी भारत की आधे से अधिक आबादी की सच्ची कहानियों को लेकर हाजिर हुए हैं।
अपनी पुस्तक के बारे में बातचीत करते हुए शिरीष कहते हैं, “यह न मेरी पत्रकारिता बल्कि विचारों का सफरनामा भी है। इसमें मैंने समाचारों को तरहीज देने की बजाय हर एक जगह का विस्तार से वर्णन करते हुए उसे एक व्यापक परिदृश्य में खींचने का प्रयास किया है।”
इस पुस्तक में शिरीष ने मेलघाट, कमाठीपुरा, कनाडी बुडरुक, आष्टी, मस्सा, महादेव बस्ती, संगम टेकरी, बरमान घाट, बायतु, दरभा घाटी, मदकू द्वीप और अछोटी जैसे अनजाने और अनसुने भारतीय गांवों या उनसे संबंधित स्थानों से ऐसे दृश्य खींचे हैं, जिनकी अक्सर अनदेखी की जाती रही है।
अपनी पत्रकारिता के अनुभवों को लेकर शिरीष का मानना है कि जैसे-जैसे गांव और शहर करीब आ रहे हैं, वैसे-वैसे दोनों के बीच भेदभाव और उपेक्षा की खाई चौड़ी होती जा रही है। वर्ष 2002 से जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तब से ग्रामीण और शहरी लोगों के बीच परस्पर एक-दूसरे को जानने से जुड़ी जिज्ञासाएं अधिक हुआ करती थीं। जब वह पहली बार गृह राज्य की राजधानी भोपाल से लौटकर अपने छोटे गांव मदनपुर लौटे थे तो वहां एक आदमी ने उनसे यह जानना चाहा था कि एक भोपाल में कितने मदनपुर समा जाएंगे- 20, 25, 50, 100 या 200।
इस प्रश्न के उत्तर में आज मदनपुर जैसे कई गांव भोपाल की तरह बड़े शहरों की तरफ भागते जा रहे हैं। इन बीस सालों के दौरान खुद उन्हें पत्रकारिता में पहली चुनौती भोपाल के भारी ट्रैफिक वाली सड़कों को पार करना रहा। उसके बाद उन्होंने भोपाल से दिल्ली, मुंबई, जयपुर और पुणे जैसे शहरों में काम किया और गांवों पर केंद्रित रहते हुए एक हजार से ज्यादा न्यूज स्टोरीज कीं। एक तरफ, गांवों से मजदूर मुंबई और सॉफ्टवेयर इंजीयरिंग की पढ़ाई करने वाले बच्चे अमेरिका जैसे देशों की ओर जा रहे हैं, दूसरी ओर गांवों को लेकर हीन-भावना का ग्राफ भी उनके भीतर तेजी से बढ़ रहा है। इस बीच भौतिक बाधाएं तो टूटी हैं, लेकिन गांवों और ग्रामीणों को लेकर अनदेखी पहले से ज्यादा बढ़ रही है।
इस तरह, अवसरों के सारे केंद्र शहरों में रखने की वजह से भारत के आत्मनिर्भर रहे गांव शहरों पर निर्भर होते जा रहे हैं। खेती में संकट के चलते छोटे किसान से शहरों में मजदूर बन रही एक बड़ी आबादी चाहकर भी गांव नहीं लौट पा रही है। एक उत्पादक समुदाय तेजी से उपभोक्ता वर्ग में तब्दील हो रहा है। लेकिन, सबसे अहम बात यह है कि नीतियों और योजनाओं से जुड़ी बातों को बदलने की दिशा में अब कोई बात तक करने को तैयार होता नहीं दिख रहा है।
राजस्थान पत्रिका और तहलका में लंबे समय तक सेवाएं दे चुके शिरीष इन दिनों पुणे में प्राथमिक शिक्षा और स्वतंत्र लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में वर्ष 2019 में अगोरा प्रकाशन से इनकी पुस्तक ‘उम्मीद की पाठशाला’ प्रकाशित हो चुकी है। शिरीष को वर्ष 2013 में भारतीय गांवों पर उत्कृष्ट रिपोर्टिंग के लिए भारतीय प्रेस परिषद ने सम्मानित किया था।