इक इनाम दे दे बाबा!

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किसिम-किसिम के इनाम हैं दुनिया में। हर उम्र, हर क्षेत्र, हर विषय, हर काम, हर मौके, हर बहाने, हर फलाने-ढिकाने, चिरकुट-फटीचर, लल्लू-पंजू यहाँ तक कि किसी मरगिल्ले या मरे-बीते के लिए मरणोपरांत भी। इनाम-इकराम, खिताब-किताब, प्रमाण पत्र, पदवी, उपाधि, अलंकरण, गौरव, भूषण, रत्न, वृत्तिका, फैलोशिप, प्रोत्साहन, पुरस्कार और भी ना जाने कितनी और कैसी-कैसी शाबाशियाँ हैं किसी की पीठ थपथपाने या अपनी थपथपवाने को। मगर साहबो, जमाना आज हाइटेक हो गया है। आजकल यह सब पाने को किसिम-किसिम की जुगतें हैं, जुगाड़ हैं, लोभ है, लालच है, पहुँच है, एप्रोच है, लॉबीइंग है, प्रचार है, दुष्प्रचार भी है-अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने के वास्ते। तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा- ऐसे गठबंधन वाला सहधार्मिक समायोजन है, और भी वैरायटी है इस समझदार और माल खेंचू दुनिया जहान में।

जब दुनिया भर के मशहूर-ओ-मारूफ पुरस्कार नोबेल तक पर भाई लोग शंका करते रहे हैं कि इसके देने-लेने में बड़ा गड़बड़झाला है तो फिर बाकी की क्या औकात। पिछले दस-बीस सालों में शायद ही कोई बरस बीता होगा जब इसे लेकर कोई बवाल न उठा हो। सोवियत संघ और चीन जैसे देशों ने तो अपने लोगों को नोबेल देने वालों की बाकायदा ऑफिशियली खूब मजम्मत तक की है। इन्होंने कुछेक मामलों में तो इसे लेने वाले को देश से बाहर जाने की इजाजत तक नहीं दी। बेचारे बीमार अलेक्जेंडर सोल्झेनित्सिन को इलाज के लिए भी देश से बाहर नहीं जाने दिया गया था। आखीरकार उस महान साहित्यकार को ‘कैंसर वॉर्ड’ बन गयी रूसी धरती पर ही प्राण त्यागने पड़े थे। यही हाल नोबेल के कुछ चीनी नामितों का भी रहा, बेचारों को बड़ी नेमत लेने से महरूम होना पड़ा।  

इधर, मैं भी सोचने लगा हूँ कि अपन का भी हक बनता है इसी तरह की नायाब चीज हासिल करने का। ‘कैंसर वॉर्ड’ जैसा न सही फिर भी लिख-लिख कर सफेद कागज को काला करने में सारी उम्र खपा देना महत्वहीन है क्या? जब जंगल काटने वाले पुण्यात्मा संत भी, अपने आरे-कुल्हाड़ों को पेटपूजा का साधन तथा उन्हें राम-लक्ष्मण बताते हुए उनकी सार्वजनिक पूजा करने के फोटो तक खिंचवा और छपवा लेने के बाद अनेकों प्रकार के देसी-विदेशी सरकारी-गैर सरकारी पुरस्कार जुगाड़ते रहे हैं तो फिर जंगल नहीं काटने वाले को तो कोई न कोई इनाम मिल ही जायेगा। समझदारी से कुछ ज्यादा ही लबरेज उन महाशय की संक्षिप्त कथा आपकी पेश-ए-नजर है, मुलाहिजा फर्माइयेः-

1973 में श्रीनगर (गढ़वाल) में जोशीमठ निवासी कॉमरेड गोविंदसिंह रावत एक हॉल के बाहर बारिश में भीगते हुए वनों की नीलामी बंद करने और वनों को बचाने की मांग वाला लाल स्याही से छपा पीले रंग का एक पर्चा बांट रहे थे और अंदर हॉल में ठेकेदार लोग गढ़वाल की वनसंपदा-चमखड़ी के पेड़ों की नीलामी में बोली लगा रहे थे। उस नीलामी में चमखड़ी के सारे पेड़ एक षड्यंत्र के तहत इलाहाबाद की साइमन कंपनी को दे दिये गये। उसके बाद रैणी (चमोली) के जंगलों में 26 मार्च ’74 को पेड़ काटने आये साइमन कंपनी के कारिदों व मजदूरों तथा जंगलात के कर्मचारियों को ग्रामीण महिलाओं ने जंगल से बाहर कर दिया। फिर 27 व 31 मार्च को रैणी में सभाएं हुई। कॉमरेड गोविंदसिंह रावत के नेतृत्व में 5 अप्रैल को जोशीमठ में एक प्रदर्शन के बाद जनसभा हुई, जिसमें पारित प्रस्ताव को श्रीनगर में हुई नीलामी में चमखड़ी के पेड़ों की बोली लगाने वाले और बाहरी यानी कि इलाहाबादी (मौजूदा दौर में यहाँ इलाहाबादी सदर-ए-रियासत तक बन गये हैं, यह जरा दूसरे किसिम का मुआमला है) लोगों द्वारा अपने ही घर में अपना रोजगार छीन लिए जाने से बौखलाये अत्यंत चालाक किस्म के उन महाशय ने हाइजैक कर लिया। उसे लेकर वे दिल्ली दौड़े और वन संरक्षण के पैरोकार तथा पर्यावरणविद बन बैठे।

फिर तो उनकी पौ बारह थी क्योंकि कुछ ही समय के भीतर उनकी पहुँच अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआइए के मुखौटे एक विश्व व्यापी संगठन तक जो हो गई थी। वह तो होनी ही थी क्योंकि तब सरकार रूसी सहयोग से टिहरी बांध बनाने के मंसूबे बांध रही थी और चूंकि अमेरिका को रूसी सहयोग में पच्चड़ फंसाना ही था जिसके लिए उसे किसी लोकल गुर्गे की तलाश थी। सो तुरत-फुरत विरोध की ज्वाइंट वेंचर कंपनी बनाकर हो गया विरोध शुरू। इसीलिए विकासशील देशों की उन्नति में वहीं के लोगों को औजार बनाकर बाधा पहुँचाने के लिए विश्व भर में कुख्यात उस संस्था के एजेंट के तौर पर टिहरी बांध के निर्माण में रुकावट डालने के आरोप उन पर लगे।

इसके बावजूद वे जिन्दगी भर अनेक किस्म के पुरस्कार, इनाम-इकराम, प्रमाण पत्र, उपाधि, अलंकरण, गौरव, भूषण, रत्न आदि-इत्यादि और भी ना जाने कितनी और कैसी-कैसी चीजें समेटते रहे जिसका सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है। मगर अपार सूचना प्रवाह तथा चंचल निष्ठाओं के इस दौर में अब कोई बात थोड़े से समय के लिए भी गोपनीय रख पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है। इसीलिए अब पेंटागन से लेकर मोगादिशू तक, कैमिला पार्कर से लेकर मल्लिका सहरावत तक, गाँव-देहात की रामलीला से लेकर अंतर्राष्ट्रीय खेलों तक, रेमन मैग्सेसे से लेकर नोबेल पुरस्कार तक से जुड़े मामलों के पीछे ढका-छिपा सब कुछ जल्दी ही पेपर्दा हो जाता है। हालांकि पहले भी इंदिरा गांधी तक से नहीं डरने वाले बीके करंजिया जैसे निडर पोल खोलू पत्रकार निरंतर कर्मरत थे। मगर अंतर्जाल के मौजूदा जमाने में जालसाजी और जरूरत से ज्यादा चालाकी का छिपे रहना कुछ ज्यादा ही मुश्किल है।

मुझे याद आया, 2012 में एक शराब व्यवसायी तथा उसके भाई के गिरोहों के बीच दिल्ली में फिल्मी स्टाइल में हुई गैंगवार में दोनों भाइयों की मृत्यु के बाद अंतिम अरदास (भोग) के अवसर पर मृतकों के निकटस्थ रिश्तेदार तथा सिख संगत के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बड़े वाले भाई को दानवीर बताते हुए कहा था कि महाराजा रणजीतसिंह जी के बाद दिल खोलकर दोनों हाथों से गुरुद्वारों को यदि किसी ने दान दिया तो वह यही सख्श था। उनकी बात सही थी या गलत यह तो वे ही जानें, मगर यहाँ मामला साधन की पवित्रता का कम, समझदारी से आपसदारी निभाने का ज्यादा था। अंधा बाँटे रेवड़ी फिर-फिर अपने को दे वाला।

इसीलिए मैं और मेरा में सिमटे इस माहौल में जब साधन की पवित्रता गौण हो और साध्य ही सबकुछ हो जाये तब नैतिकता की बात करने वाला मूर्ख कहलायेगा ही। तभी तो मैं भी अपने बारे में सोचता हूँ कि बुढ़ऊ, मैं मूरख खल कामी का गायन बंद कर और इनाम-इकराम, तर माल-पानी देने वाले किसी द्वारे अलख जगा, धूनी रमा, नैतिकता-वैतिकता को फेंक भाड़ चूल्हे में, यह दे-वह ले। यह पैरोकारी यानी खरीददारी में ही समझदारी, सैटिंग-गैटिंग और सोर्स-फोर्स-घूस-घूँसे का जमाना है।

वैसे भी दुनिया के हर कोने में देने वालों की कोई कमी नहीं, बस हुनरमंद-अकलमंद लेने वाला चाहिये। अब भी समय है कुछ किया जाये, शायद बात बन ही जाये। देर आयद, दुरुस्त आयद। कभी नहीं से देर भली। वैसे भी पहले ही बहुत देर कर दी। बहुत दिन गुमनामी में रह लिये, अब कुछ तूफानी हो जाये। बस, यही है राइट च्वाइश जैसा कुछ अचूक हो ही जाना चाहिये। मगर क्या? यही नहीं तय कर पा रहा हूँ। सैटिंग-गैटिंग या सोर्स-फोर्स की चिन्ता नहीं, मगर अपन की नजर में तो नोबेल भी छोटा ही पड़ रहा है अपनी खातिर। क्या ठीक रहेगा आप सुझायेंगे भला? जयहिन्द!

श्यामसिंह रावत
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