Manisha Pandey : बचपन में मुझे लगता था कि दुनिया की तमाम चीजों के बारे में पापा के आइडियाज बड़े विचित्र किस्म के हैं। हर बार मुझे पसंद भी नहीं आते थे। जैसेकि टीवी। हमारे घर में टीवी देखने की इजाजत बिलकुल नहीं थी। बिलकुल नहीं, मतलब कि किसी कीमत पर नहीं। टीवी चलता देखकर भड़क जाते। जिद करने पर हमारी धुनाई भी हो सकती थी। टीवी देखने के अलावा और कुछ भी करने की मनाही नहीं थी। किताब पढ़ो, घूमो, छत पर जाकर बैठो, बगीचे में टहलो, गली में तफरी करो, धूप में लेटो, बारिश में बैठो, किताब पढ़ो, खाना बनाओ, स्वेटर बुनो, कागज-दफ्ती काटकर घर बनाओ, पेंटिंग करो, सहेली के घर चले जाओ और कुछ नहीं तो सोओ, रोओ, जो जी में आए करो। टीवी नहीं देखना है।
पापा कभी टीवी उठाकर टाण पर रख देते। 1995 में जब मैं नौवीं क्लास में थी तो एक दिन गुस्से में उठाकर फोड़ डाला। हमारे घर में टीवी की कहानी उसी दिन खत्म हो गई। एक वो दिन था और एक आज का दिन है। 19 साल हो गए हैं। अब मैं टीवी नहीं देखती। इसलिए नहीं कि कोई रोकने वाला है। आदत ही नहीं है देखने की। अच्छा ही नहीं लगता। डब्बा खोलते ही लगता है कि कचरा बह-बहकर मेरे घर, दिल-दिमाग में घुसा जा रहा है। पापा कहते थे कि टेलीविजन इस सिस्टम का षड्यंत्र है, लोगों को मूर्ख बनाए रखने के लिए। ज्ञान के दरवाजे बंद करने के लिए। तब मुझे पापा पर गुस्सा आता था। आज मुझे भी यकीन है कि वो सही थे। ये फिल्म देखकर पुरानी यादें ताजा हो गई हैं।
http://www.imdb.com/title/tt0810868/
इंडिया टुडे से जुड़ीं पत्रकार मनीषा पांडेय के फेसबुक वॉल से.