आते ही तुगलकी फरमान जारी किया यूनिट हेड ने…
देहरादून। सहारा संस्थान के बुरे दौर में सहारा का डूबता जहाज देखकर संस्थान छोड़कर जाने वाले राष्ट्रीय सहारा देहरादून के यूनिट हैड मृदुल बाली सहाराश्री के जेल से बाहर आने के बाद सहारा के दिन सुधरने की उम्मीद के चलते संस्थान के उच्चपदस्थ सम्पर्कों का लाभ उठाकर फिर से सहारा संस्थान में एन्ट्री मारने में सफल रहे हैं। मृदल बाली ने सहारा में अपने पुराने सम्पर्कों पर ऐसा जाल बुना कि न केवल उनकी संस्थान में घुसपैठ हुई बल्कि जिस जगह से वह संस्थान छोड़कर टैक्सटाइल सैक्टर में रोजगार करने चले गये थे, वापसी में उसी सीट पर उनकी ताजपोशी भी हो गई।
उन्होंने राष्ट्रीय सहारा देहरादून के यूनिट हैड का पदभार गृहण करते हुये अपने पुराने अंदाज में तुगलगी फरमानों को जारी करना शुरू कर दिया है। सहारा के बुरे दौर में टैक्सटाइल सैक्टर में काम की तलाश में गये बाली इस सैक्टर से जल्द ही अपने तुगलकी व्यवहार के कारण बाहर आ गये थे। इसी दौर में सहाराश्री भी जेल से बाहर आ चुके थे, जिसके बाद सहारा के दिन बहुरने की उम्मीद बंधने लगी थी। इसी का लाभ उठाकर मृदुल बाली ने अपने पुराने सम्पर्कों को एक बार फिर से तेल लगाना शुरू किया जिसका लाभ उन्हें मिला। मृदुल बाली के काम-काज की बानगी का एक उदाहरण यह है कि 25 प्रतिशत कर्मचारियों के भरोसे जैसे-तैसे प्रकाशित हो रहे राष्ट्रीय सहारा देहरादून के लिए उत्तराखण्ड में व्यावसायिक विज्ञापन तो दूर, कोई प्रेस विज्ञप्ति भी आसानी से देने को तैयार न हो रहा हो तो ऐसे माहौल में बाली जी को अपने संवाददाताओं से विज्ञापन की उम्मीद है।
देहरादून यूनिट में सहारा बिना विज्ञापन हैड, बिना प्रसार हैड के रामभरोसे निकल रहा है। राज्य में सहारा की स्थिति यह है कि संवाददाताओं को ही प्रसार के नाम पर जबरन एजेंसी देकर प्रसार की औपचारिकता कर संस्थान के उच्चाधिकारियों की आंखों में धूल झोंकी जा रही है। प्रदेश के अन्य अखबारों के चप्पे-चप्पे पर धुरंधर संवाददाताओं की टीम के साथ-साथ विज्ञापन व प्रसार प्रतिनिधि मौजूद हैं, जो कि प्रतिदिन अपने प्रतिद्वंदी अखबारों से अपनी तुलनात्मक रिपोर्ट तैयार कर अपनी कमियों को सुधारने का काम करते हैं। दूसरे अखबारों की तरह से मेहनत न करके बिना मेहनत के संवाददाताओं को हड़काकर अपना उल्लू सीधा करने वाले बाली ने 19 अगस्त को ऐसा ही तुगलकी फरमान जारी कर राजीव गांधी के जन्मदिन 20 अगस्त के लिये विज्ञापन जुटाने का आदेश जारी कर दिया।
19 अगस्त की दोपहर को मेल से भेजे गये इस आदेश में दीन-दुनिया से बेखबर बाली ने सभी संवाददाताओं को शाम पांच बजे तक सभी विज्ञापनों की यह सोचते हुये रिपोर्ट देने का भी निर्देश दिया जैसे विज्ञापनदाता प्रदेश के चौराहों पर विज्ञापन लिये बैठे हों, संवाददाता जाये और विज्ञापन लेकर तुरंत आ जाये। बहरहाल यह एक बानगी भर है, जो बताती है कि सहारा के उच्च पदों पर बैठे लोगों को न तो व्यवहारिकता की जानकारी है और न ही अखबार चलाने लायक अक्ल। सहारा संस्थान और सहाराश्री को चाहिये कि ऐसे अव्यवहारिक लोगों को तत्काल संस्थान से बाहर का रास्ता दिखायें, अखबार तो इनके बिना भी जैसे-तैसे निकल ही रहा था, ऐसे लोग लाखों रुपये की सैलरी लेकर कौन से अखबार का भला कर रहे हैं?
कुमार कल्पित
August 21, 2016 at 6:15 pm
ये वही मृदुल बाली है जिसे सहारा ने फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। और ये दोतरफा संकट की घडी में राष्ट्रीय सहारा देहरादून ईकाई को मझधार में छोड़ कर चला गया। दोतरफा संकट इसलिए की जब यह तथाकथित कर्तव्ययोगी सहारा को मझधार में डालकर गया तब इसके सहाराश्री तिहाड़ जेल में सींखचों के पीछे थे और अखबार में हडताल तुरंत तुरंत खत्म हुई थी। यूनिट हेड होने के नाते यह इसी की जिम्मेदारी थी कि जब तक अखबार बेहतर स्थिति में मन आ जाए तब तक मजबूती से डटे रहना चाहिए लेकिन इन्होंने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा।
एक कहावत है कि ” जब जहाज़ डूबने लगता है तो सबसे पहली चूहे भागते है न लेकिन इसने तो यह कहावत भी झुठला दी। सबसे पहले यही भाग खडा हुआ। भागा तो भागा लेकिन फिर आ गया। आमतौर पर अपनी बेहतरी के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। जाने का सिलसिला शुरुआती दौर का होता है। बाली जी तो बिल्कुल शुरुआती दौर के थे। न इनका जाना समझ में आ रहा है न वापस आना।
साहित्य में ” थूककर चाटना विभत्स रस है लेकिन सहारा में यह श्रृंगार रस होता है। यहां आने-जाने की और रखे व निकाले जाने की बडी पुरानी और गौरवशाली परम्परा रही है। लगता है ” खुद को “सहाराश्री” कहलवाने वाले सुब्रत राय को निकालने और फिर रखने में बडा मजा आता है। न जाने कितनी बार स्वतंत्र मिश्र, उपेन्द्र राय, विजय राय, राजीव सक्सेना, डीएस श्रीवास्तव और मनोज तोमर को निकाला ओर फिर रख लिया। कुछ लोग छोडकर गए फिर वापस आ गए। पहले सवाल निकाले जाने पर। कोई भी संस्थान किसी को निकालता है तो उसके खराब काम के कारण और कोई छोडता है तो संस्था से दुखी / नाराज होकर । संस्था निकलती है तो आरोप लगाती है। जाहिर है सहारा ने निकाला तो आरोप लगाया। राजीव सक्सेना और विजय राय के आरोप को तो अपने अखबार में बकायदा प्रकाशित भी किया। यही बात छोडने वालों पर लागू होती है। उन्होंने संस्थान को खराब समझा या उन्हें बेहतर भविष्य नहीं दिखा तो चले गए। लेकिन यह बात शायद सहारा पर लागू नहीं होती।
सहारा संस्थान न हो गया “खाला जी का घर हो गया”।
किसी ने सच कहा है ” सहारा में क्या होगा या क्या हो जाए यह भगवान भी नहीं जानते।