सुशोभित-
इन तस्वीरों में से कोई भी फ़र्ज़ी नहीं है!
साल 2017 में मार्लन सैम्युअल्स ने टी-20 विश्व कप में वेस्टइंडीज़ की जीत के बाद कुछ इस अंदाज़ में मेज़ पर पैर रखकर प्रेसवार्ता को सम्बोधित किया, मानो वे मार्लन सैम्युअल्स नहीं मार्लन ब्रांडो हों!
उसी साल जब मैनचेस्टर यूनाइटेड ने यूरोपा लीग जीता, तो ज़्लाटन इब्राहिमोविच ने ट्रॉफ़ी में पाँव डालकर फ़ोटो खिंचवाई!
2020 में यूएफ़ा चैम्पियंस लीग जीतने पर बायर्न म्यूनिख़ के रॉबर्ट लेवनडोस्की ने नंगे बदन बिस्तर में ट्रॉफ़ी के साथ चित्र खिंचवाया, मानो ट्रॉफ़ी नहीं स्त्री हो। “आई स्लेप्ट विद द कप”- इटली के फ़ाबियो कनावारो ने 2006 में विश्व कप जीतने के बाद यह कहा ही था, 2022 में लियोनल मेस्सी ने फिर इस चित्र को दोहराया।
अर्जेन्तीना के गोलची एमिलियानो मार्तीनेज़ ने विश्व कप जीतने के बाद मिली सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर की ट्रॉफ़ी के साथ इस तरह का संकेत किया, मानो वह उनके पौरुष का प्रतीक जननांग हो!
यह ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ की पश्चिमी शैली है!
मिचेल मार्श ने विश्व कप ट्रॉफ़ी पर पैर रखकर कुछ नया नहीं किया। यों भी, पैर लगने से किसी वस्तु का अपमान होता है, यह भारतीय, और उसमें भी हिंदू संस्कृति का विचार है। पश्चिम के लोग शरीर के बाक़ी अंगों को हीन नहीं समझते। उनके लिए जैसे हाथ, वैसे पैर। हाथ लगा सकते हैं तो पैर भी लगा सकते हैं।
यह तो भारतीय मानस में पैठा है कि किसी वस्तु को पैर लग जाए तो जल्दी से पाँव छू लो। किताब को पाँव लगना पाप। देवप्रतिमा को पाँव लगना तो अक्षम्य। झाड़ू तक पैर तले नहीं आना चाहिए। पदक और ट्रॉफ़ी सिर पर रखने की चीज़ है। इसमें कोई बुरी बात नहीं है। बस इतना ही अंतर है कि यह भारतीय-विचार है, वैश्विक-विचार नहीं है।
मैं भी किसी वस्तु को पाँव लग जाए तो तुरंत ही क्षमायाचना कर बैठूँगा, क्योंकि संस्कार वैसा है। लेकिन पश्चिम में वैसा नहीं है तो नहीं है। ट्रॉफ़ी उनके लिए जीतने की चीज़ थी, जीत ली। अब पाँव में रखने की चीज़ है। पहली बार नहीं जीते हैं और आखिरी बार भी नहीं जीते हैं। एक काम पूरा हुआ, कल से फिर काम पर लग जाएँगे।
भारत अगर यही ट्रॉफ़ी जीतता तो दावे से कहता हूँ कि उसकी पूजा की जाती, मंदिर भी बनाए जा सकते थे। यह भारतीय चरित्र है। इन्दौर में एक ‘वर्ल्डकप तिराहा’ है, जहाँ तिरस्ते पर 2011 विश्व कप ट्रॉफ़ी की मूर्ति स्थापित की गई है। यदा-कदा मित्रगण उस पर हार-फूल भी चढ़ा आते हैं। किसी को उसमें ईश्वर के दर्शन हो जावें तो भी अचरज नहीं। भोपाल में मेट्रो लाइन बिछ रही है, पुल खड़े हो रहे हैं। एक लाइन के समीप किसी मित्र ने ‘मेट्रोश्वर महादेव मंदिर’ बना दिया है। यह भारत है, यहाँ सर्वोपासना की वृत्ति उपहास्य तक बन जाती है।
शायद विश्व कप ट्रॉफ़ी जीतने के बजाय पूजने की चीज़ थी, इसीलिए भारतीय टीम इतना सहमकर खेली। ईश्वर के प्रांगण में तो जूते-ज़ुराबें उतारकर, भक्ति-भाव से ही प्रवेश किया जा सकता था। ऑस्ट्रेलिया वाले जीतने के लिए खेले, जीतकर उसी चीज़ को पैरों में रख दिया।
एक कहानी मुझे याद आती है। मध्येशिया से एक आक्रांता भारत आया। एक राज्य पर उसने विजय हासिल की। जीतने के बाद उसने पानी पीने की इच्छा जताई। अचानक तुरहियाँ बज उठीं, हाथी पर जल से भरे कलश लाए गए, चँवर डुलाए गए। चाँदी के बर्तन में एक सुंदरी जल भरने को उद्यत हुई कि आक्रांता ने मना कर दिया। उसने अपनी चमड़े की मशक बुलाई और उसमें से पानी पीकर बोला- “अब समझा तुम लोग इतना बड़ा राज्य होकर भी हार क्यों गए!”