Priya Darshan : सिनेमाघर में घुसे तो हम दो ही लोग थे। कुछ विज्ञापन चले और दंगल का ट्रेलर आया। फिर अचानक मुझे ख़याल आया कि अब तो राष्ट्रगान बजेगा और हमें खड़ा होना होगा। साथ में यह ख़याल भी कि न खड़े होने पर क्या होगा? क्या कोई पुलिसवाला है जो कार्रवाई करेगा? या फिर मैनेजर या गेटकीपर की नजर हम पर होगी? या कोई उत्साही दर्शक हमें डांट डपट कर राष्ट्रगान का सम्मान करना सिखाएगा? क्योंकि तब तक हमारी तरह के एकाध निठल्ले जोड़े और भी आ गए थे।
लेकिन कुछ नहीं हुआ, न राष्ट्रगान बजा, न हमें बैठे रहने की ढिठाई करने का साहस आजमाने का मौका मिला, न किसी को हमें धिक्कारने की नौबत आई। यह कैसा आदेश है जिसके बारे में यह तक नहीं मालूम कि उसे लागू कराने की जिम्मेदारी किसकी है और उसे सड़कछाप शोहदों के हाथ की लाठी बनने से बचाने का काम किसका है? खैर, सवाल पीछे छूट गए, क्योंकि कहानी शुरू हो चुकी थी- यानी कहानी-२।
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राष्ट्रगान से किसी को परहेज नहीं है। राष्ट्रगान का सम्मान मैं उन लोगों से ज्यादा करता हूं जो आज देशभक्त बने फिरते हैं। क्योंकि यह गान उस आदमी ने लिखा है जो उद्धत राष्ट्रवाद और उन्मादी सांप्रदायिकता के खतरों को सौ साल पहले पहचानता था। सच तो यह है कि रवींद्रनाथ टैगोर का लिखा यह गीत भी और तिरंगा भी- बरसों तक भगवा वैचारिकी को चुभता रहा। उन्होंने यह झूठ तक फैलाया कि इसे जॅार्ज पंचम के लिए लिखा गया है।
बहरहाल, मूल मुद्दे पर लौटें। एतराज राष्ट्रगान से नहीं, उसके थोपे जाने से है। जैसे ही आप कुछ थोपते हैं, लोकतांत्रिक आजादी को कुछ संकरा कर देते हैं। कुछ मित्रों का तर्क है कि महज ५२ सेकंड खड़ा रहने से, और साल में १५-२०मिनट खड़ा रहने से क्या बिगड़ जाएगा। सही बात है। जीवन में बहुत समय बहुत काम में बरबाद किया है। लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, उस राष्ट्रगान का बिगड़ जाएगा जिसे सहज श्रद्धा से गाया जाना चाहिए, किसी अदालती या सरकारी आदेश से नहीं। टैगोर भी ऐसे आदेश के विरुद्ध होते।
एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार प्रियदर्शन की एफबी वॉल से.