हे ! गौ – लोकवासी परम आदरणीय श्रीमंत ‘यस बैंक’ जी।
प्रथमतः साष्टांग दंडवत प्रणाम ।
मैं मानता हूं, निजी क्षेत्र में चौथी बड़ी बैंक का दर्जा हासिल कर लेने की ख्याति उपरांत भारत से आपका यूँ (?) जाना अनायास या अप्रत्याशित नहीं हो सकता, बल्कि ‘सुनियोजित साजिश’ के तहत आपश्री को एक खास प्रकार की ‘आत्मघाती जैविक क्रिया यानि विश्वास’ से छला गया, जिसमें आपके खेवहिया ‘श्रीमंत कपूर परिवार’ से लेकर शुभचिन्तक बनकर उभरे तमाम स्टेकहोल्डर्स की अतिसक्रिय भूमिका से इनकार नहीं करूँगा।
दुःखद पहलू यह है, कि ‘विधर्मी कोरोना’ से ज्यादा जानलेवा यह ‘विश्वास वायरस’ इन श्रीमंतगणों के जरिए ही, कुछ ऐसा फैला कि हम और आप आज खून के आंसू पीने को मजबूर हो गए।
यहां सीधे तौर पर ‘स्टेकहोल्डर्स’ का अर्थ समाज के उस वर्ग से है, जिसकी भागीदारी के बिना व्यवस्था (?) नहीं चलती। सही कहें तो, आज के परिवेश में प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रूप से यही वर्ग उस कथित व्यवस्था का खेवहिया बन गया।
‘स्टेकहोल्डर्स’ की इस सूची में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल, शुभाशीष प्राप्त सहयोगी दल – राजनेता, प्रभावशाली व्यापारी, बड़े पूंजीपति, ठेकेदार, उधोगपति, घरेलू निवेशक, कॉरपोरेट्स, निजी कंपनी आदि को गिन लेना युक्तिसंगत है।
कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा, कि इन स्टेकहोल्डर्स के संक्रमित बैंकिंग आचार – व्यवहार ने ही आज समाज में बड़ी आबादी की खुशहाली तथा बुनियाद को महामारी जनित बना दिया।
भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान मोड़ में तो, बैंकिंग सेक्टर एवं ब्यूरोक्रेसी का सहज – सुलभ आचार – व्यवहार साथ जुड़ जाने से इन लब्ध प्रतिष्ठित स्टेकहोल्डर्स ने ‘निजी सुविधायुक्त सयुंक्त ज्योतिपुंज’ ही विकसित कर लिया।
खासियत यह है, कि सत्ता के पंचवर्षीय औपचारिक अनुष्ठान से अन्य उपक्रम सहित इस तथाकथित ज्योतिपुंज की भी लौ कभी मंद या फीकी नहीं पड़ती। उल्टा इसके क्रमिक विकास की थाती में हर दफा नया अध्याय जुड़ने की परम्परा ही बन गई।
परिणामतः जरिये आरबीआई आज आपकी अकाल मृत्यु का दुखदायी समाचार सुनने को मिला। इससे अकेले खाताधारक ही प्रभावित नहीं हुए, बल्कि समाज की एक बड़ी आबादी में अविश्वास का वायरस घर बनाता दिख रहा है। इसका सीधा असर बैंकिंग सिस्टम पर पड़ जाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
इस नकारात्मक छवि के बावजूद एक बात काबिलेगौर यह है, कि आपकी अकल्पनातीत ‘यशोकीर्ति’ तथा अकाट्य नीतियों की सफल क्रियान्विति में प्रतिक्षारत भारत रत्न महामना श्री राणा कपूर जी साहेब का अतुलनीय योगदान रहा है, जिसे बैंकिंग के जानकार तथा इतिहासकार निश्चित रूप से स्वर्णाक्षर में ही लिखेंगे।
नहीं तो क्या वजह थी, कि 2003 के दरम्यान जन्मी आप जैसी होनहार संतान मात्र 17 साल की नाबालिग अवस्था में इस प्रकार की ‘दर्दनाक मौत’ का शिकार हो जाए ? मेरे हिसाब से यकीनन यह ब्लाइंड मर्डर मिस्ट्री है, मुताबिक रिपोर्ट्स जिसके गुनहगारों में महामना श्री राणा कपूर जी साहेब सहित डीएचएफएल, अनिल अंबानी समूह, एस्सेल, डीएचएफएल, आईएलएफएस, वोडाफोन आदि बड़े नामधारी शामिल बताते हैं, जिन्हें आपश्री की उदारता से ही कर्ज मिला था।
इसकी जांच निश्चित रूप से होनी चाहिए, लेकिन बड़ा सवाल यह है, कि कौन करेगा ? किस बड़भागी को मिलेगा, आपकी जघन्यतम हत्या की जांच का अहोभाव पूर्ण कार्य ? वैसे दुर्भाग्यवश एवं दुर्घटनाग्रस्त देशज शासन व्यवस्था रूपी शरीर के सभी अंग तो लकवाग्रस्त हो चुके हैं।
खैर, जो भी हो, लेकिन इस वज्रपात समतुल्य एवं अत्यंत दुःखदपूर्ण पल में एक इल्तिजा सभी आमोखास से कर देना इंसानी फ़र्ज समझता हूं, जो यह कि सामान्य बैकिंग व्यवहार से पहले एक पल ठहर कर निजहित में कुछ बिन्दुओं पर गौर अवश्य करें –
- क्या आपकी ‘ठेठ जमा पूंजी’ को निष्ठुरतापूर्ण आचार – व्यवहार से भस्मासुर सदृश्य तथाकथित प्रभावशाली व्यापारियों, बड़े पूंजीपतियों, उधोगपतियों, घरेलू निवेशकों, कॉरपोरेट्स, ठेकेदारों, निजी कंपनियों आदि (अपवाद छोड़कर) को मुक्तहस्त से देवप्रसाद समझकर बेहिसाब वितरण का अनियंत्रित खेल तो नहीं चल रहा ?
- कहीं ऐसा तो नहीं, कि बड़बोलेपन या भौंदुपन में हमारी कुल उपलब्ध बुद्धि और स्व-अर्जित ज्ञान इस बंदरबांट को समझ पाने में कमतर सिद्ध हो गया ?
- आखिर हम और आप लगभग अविश्वसनीय हो चली बैंकिंग प्रणाली को समझते – देखते – पढ़ते – सुनते – भोगते रहने के बाद भी खुद से सम्बद्ध क्यों किये हुए हैं ?
- क्या मुझे और आपश्रीमंतगण को रंच मात्र यह ख्याल नहीं सूझ रहा, कि देशभर में संचालित सरकारी एवं निजी क्षेत्र के करीब – करीब दो दर्जन से अधिक बैंकर्स परम्परागत जमा एवं साख व्यवस्था का क्यूँ कर सत्यानाश करने पर आमादा हैं ?
- आखिर किस प्रकार की दूरगामी सोच के चलते सरकारी बैंकों का वक़्त – दर – वक़्त विलय किया जाना रवायत बन गई, जबकि निजी क्षेत्र में एक – के – बाद – एक नए बैंक का जन्म होता जा रहा है ?
- वह कौनसी वज़ाहत हैं, जिनके कारण सरकारी बैंकों की तुलना में निजी क्षेत्र के बैंक शहरी जमाओं तथा साख को ज्यादा प्रभावी रूप से अपनी ओर खींच पाने में सफल होते गए, जबकि सरकारी बैंक पूर्णतः फेल हो जाने की स्थिति में पहुंच गए हैं।
- आखिर यह कौनसी साजिश अनवरत रूप से चल रही है, कि कामवाली बाई, सब्जी वाले, दूध वाले, केबल वाले, प्लम्बर, फूल वाले, छोटे व्यापारी, किसान, दिहाड़ी मजदूर, सर्विस क्लास कर्मचारी एवं अधिकारी, नाई, साइकिल वाला, निर्माण कारीगर, खोमचे वाला सहित सैंकड़ों प्रकार के ऐसे वर्ग हैं, जिनका प्रतिनिधितत्व करने वाले कई करोड़ लोंगों यानि खाताधारकों का पैसा तिल – तिल धोखे के साथ इन मुठ्ठीभर व्यक्तियों को बांटने में हमारी व्यवस्था अत्यधिक रुचि दिखा रही है।
इतना सब कुछ जान और समझ लेने के बावजूद यदि अब हम इस देश में आर्थिक अपराध से जुड़े मामलों की उच्चस्तरीय जांच एवं अदालती कार्यवाही जल्द पूर्ण करवाकर दोष सिद्ध व्यक्तियों के लिए मृत्युदंड सहित वंशानुक्रम में परिवारजनों तथा प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष लाभार्थियों से पूर्ण वसूली
की सजा को अनिवार्य किए जाने की पुरजोर मांग नहीं करेंगे, तो यह खुद से खुद के लिए जानते – बूझते की गई एक शर्मनाक बेवकूफ़ी होगी।
।। इति।।
नंदकिशोर पारीक
वरिष्ठ पत्रकार, राजस्थान