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उत्तर प्रदेश

अपराधों के नये-नये रिकॉर्ड रचता उत्तर प्रदेश, पुलिसिंग का ये तरीक़ा कितना कारगर?

केपी सिंह-

योगी सरकार के समय उत्तर प्रदेश में हैरतअंगेज आपराधिक वारदातों के नये नये रिकॉर्ड रचे जा रहे हैं। कभी जेल के अन्दर माफिया को गोलियों से भून दिया जाता हैं तो कभी पुलिस हिरासत में माफिया भाई मीडिया के कैमरों के सामने फायरिंग की अंधाधुंध बौछार करके ढ़ेर कर दिये जाते हैं तो कोर्ट रूम में घुसकर जज के सामने माफिया को शूट कर दिया जाता हैं।

एक ओर यह दावा किया जा रहा है कि प्रदेश में कानून व्यवस्था इतनी मजबूत की जा चुकी है कि बड़े बड़े अपराधी अपनी जान की खैर मांगते हुये बाहरी राज्यों में भाग निकलें हैं या उन्हें बाहर रहने में डर लग रहा है जिसकी वजह से वे खुद थाने पहुंच कर पुलिस से अपने को जेल भेजने की भीख मांग रहे हैं। दूसरी ओर इन वारदातों की मिसाल है जो यह जाहिर करती है कि प्रदेश में कहीं भी, कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है। अभेद सुरक्षा के रहते हुये भी शूटर कहीं भी प्रकट हो सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं। शूटर भी ऐसे जो नादान उम्र के हैं और जिनको वे टारगेट कर देते हैं उनसे अदावत का कोई कारण भी किसी को पता नहीं होता लेकिन उनकी प्लानिंग और तैयारी प्रशिक्षित आतंकियों से भी ज्यादा कमाल की रहती है।

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प्रयागराज में अतीक और अशरफ जैसे दुर्दान्त अपराधियों को मौत के घाट उतारने वाले नौजवानों के पीछे किसका मास्टर माइंड था और ऐसे कई सवालों को लेकर रहस्य बना हुआ है लेकिन यह भी रहस्य है कि अब उन सवालों की चर्चा न पुलिस के तीरंदाज कर रहे हैं न मीडिया के लाल बुझक्कड़। इसमें कौन सा आका है जिसका हुकुम बजाने के लिये उनको चुप्पी साधनी पड़ गयी है।

अलबत्ता यह बात दूसरी है कि ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं को लेकर जनमानस में सरकार के लिये कोई संशय या शिकायत नहीं हैं। गो कि लोगो को यह इलहाम है कि इसमें कहीं सरकार की विफलता नहीं है बल्कि दुर्दान्तों की मौत के पीछे सरकार की ही कोई रणनीति है जो ठीक भी है। इन हैवानों के सामने कानून बौना होकर रह गया था जिसके भरोसे इनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं था। यह बात सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही योगी के ‘चमत्कार’ के बतौर नहीं बतायी जा रही बल्कि दूसरे राज्यों तक में योगी की ठोंको पुलिसिंग की जय जयकार हो रही है।

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किसी भी बाहरी राज्य के हिन्दू प्रभावी ऐरिया में योगी आज सबसे बड़े हीरो हैं जो किसी कार्यक्रम में वहां पहुंचते हैं तो लोग स्वतः स्फूर्त ढंग से उनका अभिनन्दन करने के लिये खड़े हो जाते हैं। इस उलटबासी के बीच अपराध नियंत्रण के लिये प्रोफेशनल तरीके से काम करने में विश्वास रखने वाले पुलिस अफसरों की भद पिट रही है।

मुकुल गोयल को याद करिये जब उन्होंने प्रदेश के डीजीपी का कार्यभार संभाला था। इस सोच की वजह से पहली पत्रकार वार्ता में उन्होंने यह स्पष्ट करना चाहा था कि एनकाउंटर पुलिस की नीति नहीं हो सकती। अगर आत्मरक्षा पर बन आए तभी पुलिस को यह छूट है कि वह अपराधी पर गोली चला दे अन्यथा नहीं। यह स्टेटमेंट ही आगे चलकर उनके बेआबरू होकर समय से पहले हटाये जाने का कारण बना।

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इतना ही नहीं नाराज सीएम योगी ने सार्वजनिक रूप से उन्हें नाकारा घोषित कर डाला और नागरिक सुरक्षा के सबसे रद्दी विभाग में फेंक दिया जहां उनके पद की गरिमा के अनुरूप कोई सुविधा नहीं है। मुकुल गोयल ने खामोशी से अपनी इस नियति को स्वीकार कर लिया था फिर भी वे अभी तक योगी का गुस्सा शांत नहीं कर पाये हैं। लगता है कि अगले वर्ष नागरिक सुरक्षा से ही उनका रिटायरमेंट हो जायेगा। उनका हश्र देखकर अब किसी पुलिस अफसर की हिम्मत प्रोफेशनल पुलिसिंग पर जोर देने की नहीं रह गयी है। हर अफसर को ठोंको पुलिसिंग का राग अलापने में ही अपनी भलाई नजर आने लगी है।

पर यह समझना होगा कि भीड़ की बुद्धि बहुत अस्थिर होती है, वह कब सिर पर बिठा ले और कब नीचे फेंक दे कुछ नहीं कहा जा सकता। अपने समय के न जाने कितने महानायक इसी प्रवृत्ति के चलते इतिहास के कूड़ेदान में चले गये उनसे सबक लिया जाना चाहिए। यह बात इसलिए कहनीं पड़ रही है कि मनमानी पुलिसिंग से ऊपर खुशनुमां नजर आ रहे मंजर के बीच सतह के नीचे कहीं ज्वालामुखी न सुलग रहा हो जिसका लावा कभी भी फूट निकले। दिया तले अंधेरे का एक नमूना तब सामने आ चुका है जब पता चला था कि जिन मुख्तार अंसारी से सीएम की निजी अदावत है इसलिए उनके मान मर्दन में कोई कसर न छोड़ी जाये, यह जानते हुये भी बांदा जेल में अफसर उनके साहबजादे को अकेले कमरे में पत्नी के साथ रात बिताने की सुविधा दिये हुये थे। उसे हर तरह का आराम मुहैया था।

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इसका भंडाफोड़ होने पर अधिकारियों की जुर्रत पर प्रदेश सरकार स्तब्ध रह गयी थी। फिर पूरी पड़ताल हुयी तो सामने आया कि लगभग सभी जेलें दुर्दान्त अपराधियों के लिये ऐशगाह बनी हुयी हैं जिसके एवज में जेल अफसरों को मोटी रकम मिलती है। यह बात विभाग में शीर्ष तक जानकारी में थी लेकिन जेल अधीक्षक के पद पर बोली के आधार पर नियुक्ति होती थी इसलिये सबकुछ चल रहा था। बहरहाल इसके बाद डीजी जेल आनन्द कुमार को हटाकर महत्वहीन पद पर भेजा गया जबकि इसके पहले उनकी गिनती भी मुख्यमंत्री के चहेते अफसरों में होती थी। सो फूंक फूंक कर कदम रखते हुये निजी सम्बन्ध के बजाय रिकॉर्ड देखकर कार्य कुशलता के आधार पर यह पद अब सत्यनारायण सावत को सौंपा गया है।

पुलिस में व्यवस्थित और वैज्ञानिक तरीके से काम न होने के कारण ऐसे कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं जिससे प्रदेश की सुंदर सलोनी लग रही कानून व्यवस्था से लोगों के मोह भंग की स्थिति बन सकती है। पुलिस में भी थाने नीलाम होते हैं यह सभी को मालूम है। योगी सरकार के शुरू में उनकी हनक के कारण पुलिस के अफसर कुछ हिचके, इसी बीच आईपीएस अफसर वैभव कृष्ण ने इस प्रथा की वर्तमान स्थिति से जुड़ा एक ऑडियो बम फोड़ा तो हड़कम्प मच गया। कई अफसर इसमें नपे।

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इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिये सीएम ने रैंकर अफसरों को दर किनार कर प्रायः सीधे आईपीएस में चयनित अफसरों को जिले की कमान सौपने की नीति अघोषित तौर पर लागू कर दी। इससे कुछ सुधार तो हुआ लेकिन नये आईपीएस अफसरों को भी थाने बेचने का चस्का लगने लगा है। दूसरी ओर पुरानी पड़ने के साथ प्रदेश सरकार में जड़ता व्याप्त होने लगी है। उसके यथास्थितवाद से अधिकारियों पर पकड़ ढीली होने लगी है जो पुलिस में लोगों के अंधाधुंध शोषण पर आधारित भ्रष्टाचार के गहराते जाने का कारण बन रहा है। सरकार की निगाह केवल चर्चित अपराधियों पर है जिससे नये पनपते अपराधियों को छूट मिल रही है। सट्टा, जुआ आदि खिलवाने वाले काले कारोबारी लो प्रोफाइल में रहते हैं जिससे सरकार उन्हें लेकर सतर्क नहीं है जबकि यह लोग जन जीवन की कम बर्बादी नहीं कर रहे।

जाहिर है कि इन स्थितियों में शांति व्यवस्था और सुरक्षा के दावे बेमानी साबित हो जाने वाले हैं और तब लोगों का एकदम मोह भंग होगा। योगी सरकार ने रिटायर्ड डीजीपी सुलखान सिंह की अध्यक्षता में पुलिस सुधार आयोग का गठन तो किया था लेकिन इस आयोग में क्या हो रहा है यह किसी को नहीं पता जबकि पुलिस के ढर्रे में बड़े बदलाव और अपराध नियंत्रण की दिशा तय करने के काम अबिलंब किये जाने की बहुत जरूरत है।

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