Om Thanvi : प्रधानमंत्री ने भाषण पढ़ा नहीं, नोट्स के आधार पर सीधे बोले यह अच्छा लगा। गोली-निरोधक शीशे की आड़ भी हटा दी, बच्चों से भी जाकर मिले। बेटियों के प्रति संवेदनशील नजरिया, गाँव-किसान, गरीबी, सफाई, सुशासन की बातें भी मुझे अच्छी लगीं। यह भी अच्छा किया कि राममंदिर निर्माण की बात नहीं की, न विवादग्रस्त अनुच्छेद 370 या समान नागरिक संहिताका राग छेड़ा। पाकिस्तान को भी नहीं ललकारा।
लेकिन रोजमर्रा की महंगाई की मार वे क्यों भुला गए? भूख से जूझ रहा भारतवासी विदेश नीति, डिजिटल इंडिया, मेड इन इंडिया, पर्यटन योजनाओं का क्या करेगा? काला धन और भ्रष्टाचार का दंश भी भुला दिया? फिर, सबको साथ लेकर चलने वालों को कम आबादी वाले तबकों में भी भरोसा पैदा करना चाहिए, खासकर तब जब देश में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़-सी आ रही हो। गंदगी-शौचालय के प्रति सजगता जरूरी है। पर अशिक्षा ज्यादा बड़ा अभिशाप है। उसे एक झूठी डिग्री वाली मंत्री के भरोसे क्यों छोड़ रखा है? शिक्षा का बत्रा-करण अर्थात नव-भगवाकरण क्यों करने दे रहे हैं?
बलात्कार और नक्सलवाद को एक साथ रखना भी नहीं जंचा। और, कोई बेटा पूछने पर माँ-बाप को बताएगा कि वह घृणित काम या अपराध करने जा रहा है?
योजना आयोग को खत्म करने का विराट फैसला क्या उनके मंत्रिमंडल का है? या, और फैसलों की तरह, उनका अपना फैसला है? यह ठीक है कि मनमोहन-मोंटेक ने आयोग का अवमूल्यन किया, पर क्या सरकार के साथ निजी क्षेत्र को योजना आयोग का हिस्सा बनने देना चाहिए? योजना के काम में अम्बानी-अडानी यानी कॉरपोरेट का प्रवेश विकास को मुनाफाखोरी की दुनिया में नहीं धकेल देगा? मर्ज का इलाज मरीज को खाई में धकेलना तो नहीं होता!
और हाँ, चौकीदार-चौकीदार करते अब सेवक-आउटसाइडर जैसी बातें बड़ी नाटकीय लगने लगी हैं। बस करो भाई, दिल्ली किस की है? यहाँ तो हर कोई अपना-अपना अजनबी है।
पुच्छल-बिंदु: बेटियों-माताओं के हितों की इतनी भावुक ताईद करने वाले मोदी और किसी को न सही, जन्म देने वाली माता को ही कुछ देर प्रधानमंत्री के घर और लाल किले के अपने पहले समारोह में ला बिठाते तो माँ की तो ख़ुशी बढ़ती ही, देश को भी कितना सुखद लगता! किसी ने सही कहा है, कभी भाषण और नारे के बीच झीना फासला ही होता है।
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“आगे का पता नहीं, पर अब तक का काम देखकर लगता है नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी के रास्ते पर हैं: सत्ता को काबू करने का वही तरीका, अधिकांश नेताओं का कद छोटा कर देना, उन्हें दर्शक सरीखा नहीं तो मात्र नौकरशाह-सा बना छोड़ना – उनके राजनेता उनकी हुक्मबरदारी भर कर रहे हैं। गुजरात में यह तरीका काम कर गया था, प्रधानमंत्री को लगता है दिल्ली में भी कर जाएगा। … वक्त बताएगा। … वे शायद सरदार पटेल बनना चाहते हैं, पर कहीं इंदिरा गांधी बनकर न रह जाएं!”
यह कहना है राजनीति और समाज के विश्वविख्यात विचारक आशीष नंदी का, रेडिफ़-डॉट-कॉम की संपादक Sheela Bhatt से बातचीत में.
जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.
bim
August 17, 2014 at 7:45 pm
Om THanvi jaise rajneetik vishleshak aj bhi ye maane ko taiyar nahi hai ki unki lakh TV debates ke bawjood Modi PM kaise ban gaye.
Thanvi saahab sachchai maan lijiye aur dharatal par utar jaiye. Aapke jaise vishleshakpon ko janta ne bahut karara thappad maara hai.
Aap khuleaam jo AAP ki waqalat karte the achcha hoga top dharan karke tab bolein, ek neutral analyst ka chonga kab tak odhe rahenge.
pankaj
August 29, 2014 at 6:38 am
aise kadwwi sacchai aap jaissa jameeni patarkaar hi kar saktta hai