बचपन में फिल्मों के प्रति दीवानगी के दौर में फिल्मी पत्र-पत्रिकाएं भी बड़े चाव से पढ़ी जाती थी। तब यह पढ़ कर बड़ी हैरत होती थी कि फिल्मी पर्दे पर दस-बारह गुंडों से अकेले लड़ने वाले होरी वास्तव में वैसे नहीं है। इसी तरह दर्शकों को दांत पीसने पर मजबूर कर देने वाले खलनायक वास्तविक जिंदगी में बड़े ही नेक इंसान हैं। समाज के दूसरे क्षेत्र में भी यह नियम लागू होता है। कोई जरूरी नहीं कि दुनिया के सामने भल मन साहत का ढिंढोरा पीटने वाले सचमुच वैसे ही हों। वहीं काफी लोग चुपचाप बड़े कामों में लगे रहते हैं। बचपन बचाओ आंदोलन के लिए नोबल पुरस्कार पाने वाले कैलाश सत्यार्थी का मामला भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। ये कौन हैं… किस क्षेत्र से जुड़े हैं… किसलिए… वगैरह – वगैरह। ऐसे कई सवाल हवा में उछले जब कैलाश सत्यार्थी को नोबल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। क्योंकि लोगों की इस बारे में जानकारी बहुत कम थी।
बचपन बचाओ आंदोलन की चर्चा यदा-कदा शायद अखबारों में पढ़ी भी गई हो, लेकिन इसे चलाने वाले और अंत में नोबल पुरस्कार पाने वाले कैलाश सत्यार्थी के योगदान से अधिकांश लोग लगभग अनभिज्ञ ही थे। भले ही नोबल पुरस्कार मिलने के बाद से तमाम चैनल और समाचात्र पत्र आज उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ रहे हों। कैलाश से ज्यादा प्रचार तो अपने देश में तालिबानियों के हमले का शिकार हुई मलाला युसूफजई को मिला। यह मामला एक सुपात्र की उपेक्षा का ही नहीं, बल्कि इस बहाने मीडिया की कार्यशैली व क्षमता भी सवालों के घेरे में कैद हो जाती है। सवाल उठता है कि अगर देश की राजधानी दिल्ली से अपना आंदोलन चलाने वाले कैलाश सत्यार्थी अब तक मीडिया की रौशनी से वचित रहे, तो उन हजारों निस्वार्थ स्वयंसेवकों का क्या, जो देश के कोने-कोने में खुद दिए की तरह जल कर समाज को रोशन करने का कार्य कर रहे हैं।
आज कैलाश सत्यार्थी और उनके आंदोलन को लेकर दर्जनों तरह की खबरें चलाई जा रही है। लेकिन इससे पहले तो उनके विषय में रुटीन खबरें तक नहीं चली। उनके बदले कभी अन्ना, तो कभी केजरीवाल व मोदी ही मीडिया के कैलाश बने रहे। देशवासियों को उनके बारे में पता तब ही चला जब विदेशियों ने उन्हें नोबल पुरस्कार देने की घोषणा की। इस बहाने क्या मीडिया को आत्ममंथन नहीं करना चाहिए। दरअसल मीडिया के साथ यह विडंबना पुरानी है। कश्मीर में बाढ़ आती है तो मीडिया में उस के कवरेज के लिए टूट पड़ता है, लेकिन असम समेत देश का पूर्वोत्तर क्षेत्र आज भी बाढ़ की चपेट में है, लेकिन उस पर एक लाइन की भी खबर मीडिया में नजर नहीं आती।
छात्र जीवन में क्रिकेट के प्रति दीवानगी के दौर में समाचार पत्र व पत्रिकाओं में नामी क्रिकेट खिलाड़ियों के खेल स्तंभ पढ़ कर मैं आश्चर्य में पड़ जाता था। बाद में पता चला कि यह खिलाड़ियों की कमाई का जरिया है। खिलाड़ी लिखते नहीं बल्कि मीडिया घराने अपने मतलब के लिए खिलाड़ियों से लिखवाते और छापते हैं। फिर राजनेताओं के अखबारों में स्तंभ लेखन का दौर चला। जिसे पढ़ कर सोच में पड़ जाना पड़ता है कि हमारे राजनेता अपने पेशे से इतर अच्छा कलम भी चला लेते हैं। चैनलों का दौर शुरू होने पर किसी न किसी बहाने राजनेताओं का चेहरा दिखाने की होड़ तो लगभग हमेशा मची ही रहती है।
आज ही एक अग्रणी अखबार खोला तो उसमें अपने सांसद से मिलिए स्तंभ के तहत एक सांसद का जीवन परिचय छपा मिला। दूसरे में राज्यपाल बन कर अचानक चर्चा में आए एक अन्य राजनेता की चार कविताएं नजर आई। जिसके जरिए यह साबित करने की कोशिश की गई कि महामहिम अच्छे कवि तो हैं ही, देखो हम उनके कितने निकट हैं। जो उनसे कविता लिखवा कर आप तक पहुंचा रहे हैं। यह कहना अनुचित होगा कि मीडिया में राजनेताओं व अन्य सितारों को बिल्कुल स्थान नहीं मिलना चाहिए। लेकिन यदि कैलाश सत्यार्थी जैसों की उपेक्षा कर मीडिया अपने कैलाश लोगों पर थोपने की कोशिश करता रहे, तो विरोध तो होना ही चाहिए।
आश्चर्य कि कभी केजरीवाल तो कभी मोदी की माला जपने वाले मीडिया को देश की राजधानी के कर्मयोगी कैलाश सत्यार्थी की सुध तभी आई जब उन्हें नोबल पुरस्कार से नवाजा गया। इससे पहले तक तो मीडिया आमिर खान के सत्यमेव जयते, आइपीएल या अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोड़पति को महिमामंडित करने में जुटा था। क्या इसलिए कि इसके पीछे करोड़ों का बाजार खड़ा है।
लेखक तारकेश कुमार ओझा दैनिक जागरण से जुड़े हैं। संपर्कः 09434453934