Chandra Bhushan : ‘नहीं’ कहें और डटे रहें… छात्र जीवन में एक पीड़ादायी स्थिति का सामना कई बार करना पड़ा। क्लास में जब भी टीचर से कोई असुविधाजनक सवाल करता था, पूरी क्लास एक सुर से मेरे खिलाफ बोलने लगती थी। बाद में दोस्तों से कहता कि किस तरह मेरा सवाल सबके लिए फायदेमंद हो सकता था। वे मान भी लेते, लेकिन यह कहते हुए कि सर का मूड देखते हुए हमें लगा कि फिलहाल तुम्हारा बैठ जाना ही ठीक रहेगा।
धीरे-धीरे मैंने खुद को यह समझा लिया कि क्लास में सिर्फ टीचर ही एडल्ट है, बाकी सब बच्चे हैं। बाद में, बड़े हो जाने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन वयस्क हुए इतने साल निकल गए, कुछ भी ठीक नहीं हुआ। किसी भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताओं या अफसरों से कोई मुश्किल सवाल पूछने पर सबसे ज्यादा विरोध पत्रकारों का ही झेलना पड़ा। दो मौके ऐसे भी आए, जब कॉन्फ्रेंस में ही किसी न किसी पत्रकार से मारपीट की नौबत आ गई।
एक बार नेपाल में और तीन साल पहले चीन में भी कमोबेश इस तरह का ही सीन दोहराया गया। ऐसा तो क्लास में भी नहीं होता था। वहां टीचर खुश रहता तो घरेलू इम्तहानों में दो-चार नंबर बढ़ सकते थे। यहां तो नेता-अफसर को खुश रखना मान-प्रतिष्ठा और पैसे-प्रॉपर्टी का भी सबब बन सकता है!
कभी-कभी लगता है, क्या मैं हमेशा जी-हुजूरी करने वालों के बीच ही रहने को अभिशप्त हूं? यह भी कि यह मेरे खास माहौल या पेशे से जुड़ी परेशानी है, या मेरे देश में लोगों का सहज व्यक्तित्व ही ऐसा है? इस सवाल से जूझते हुए कुछ समय पहले मेरा साबका मिलग्राम एक्सपेरिमेंट से पड़ा। 1960 के दशक में सोशल एंड एब्नॉर्मल सायकॉलजी से जुड़ा यह प्रयोग ‘कन्फॉर्मिज्म’ (सत्ता का अनुसरण करने की प्रवृत्ति) को समझने के लिए किया गया था।
पाया गया कि यह न सिर्फ पूरी दुनिया में मानव जाति की सहज वृत्ति है, बल्कि करीब दो तिहाई लोग तो इसके झोंक में किसी इंसान की जान लेने की हद तक जा सकते हैं। क्या अमेरिकी, क्या हिंदुस्तानी, सब इस मामले में एक से हैं। अभी, जब दुनिया में हर जगह सत्ताएं इतनी बहुविध और ताकतवर हो गई हैं, तब अपने कन्फॉर्मिज्म को लेकर सचेत रहना हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है। जैसा कवि गोरख पांडे अपनी एक कविता में कहते हैं- ‘नहीं नहीं तो जीने का प्रण नहीं’।
नवभारत टाइम्स में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार चंद्र भूषण की एफबी वॉल से. कुछ प्रमुख कमेंट्स…
Pankaj Bali : ज़्यादातर लोग अनुचर ही होते हैं। दस में आठ लोग आपको अनुचर ही मिलेंगे। सवाल उठाने की प्रवृत्ति और वो भी विशेषकर सत्ता के खिलाफ उन लोगों में पायी जाती है जो बिन किसी अंजाम की परवाह किये बगैर सत्य का अन्वेषण करना चाहते हैं। जो किसी इनाम या पद का लालच बिना अपनी जिज्ञासा को प्राथमिकता देते हों। डटे रहो सर। इतिहास और स्वयं आप चारणों में नही गिनेंगे।
Bhuwan Karnatak : What happened in China?
Chandra Bhushan : A senior Indian English journalist, posted in Beijing disliked questioning of Chinese bureaucrats. On each one of my question, he came forward to remind me about the fundamentals of the ‘socialism with Chinese characteristics’!