सुलोचना आजकल “जलोपाख्यानम” लिख रही हैं। चेन्नई के जल संकट से धीरे धीरे पूरी दुनिया वाकिफ हो चुकी है। आईटी फील्ड की सुलोचना को नौकरी के चलते हाल ही में चेन्नई में बसेरा बनाना पड़ा। वहां एक नवागंतुक को पानी के लिए क्या क्या झेलना पड़ रहा है, सुलोचना इसको तफसील से लिख रही हैं। 4 पार्ट वो लिख चुकी हैं। यह “जल डायरी” वे जारी रखेंगी। उन्हें पढ़िए और शेयर करिए ताकि पानी के प्रति संवेदनशीलता बढ़े। अगर आपके पास भी जल संकट को लेकर कोई अनुभव हो तो जरूर लिखें। -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया
जलोपाख्यानम-1
अग्नि नक्षत्र के आने से पूर्व ही कराइकुडी के एक सहकर्मी ने मन में भय का बीजरोपण कर दिया था। अग्नि नक्षत्र के बारे में बताते हुए उसने बताया था कि इस अवधि में गर्मी और लू से सबसे अधिक लोगों की मृत्यु होती है और मरने वाले ज्यादातर उत्तर भारतीय ही होते हैं। अग्नि नक्षत्र के आने से पहले ही जो बदलाव सर्वप्रथम दृष्टिगोचर था वह यह कि अड्यार नदी की धार संकीर्ण हो चली थी, तमाम झीलों का जल स्तर क्रमशः नीचे जा रहा था। फिर अग्नि नक्षत्र के मध्य अड्यार में इतना जल भी शेष न था कि धोबी उसमें कपड़े धो पाता, नदी के वक्ष पर उग आए दूब और जंगली पौधों को देख दिल डूबा जाता था। पोरुर के झील से जल के देवता अंतर्ध्यान हो गए।
चेन्नै में 29 मई इस बरस अग्नि नक्षत्र का अंतिम दिन था। अभी तक सब ठीकठाक था। सोसाइटी में जल का टैंकर और हमारे घरों में बोतलबंद पानीय जल समयानुसार आ रहा था। 31 मई को 4 बजे टेक पार्क के बाहर निकलना था, तो लिफ्ट से नीचे आते ही उल्टे पाँव वापस ऊपर की ओर भागी। हवा में नमी की सांद्रता अधिक थी। साँस लेना दूभर हो रहा था। मैंने स्थानीय सहकर्मी से कहा “तुम लोगों ने बताया था कि अग्नि नक्षत्र के जाते ही सब ठीक हो जाएगा!” उसने मुस्कुराते हुए कहा “अग्नि नक्षत्र अभ्यास होता है ताप को सहने का। अग्नि नक्षत्र अग्नि परीक्षा है जिसे पास करने के बाद तुम चेन्नै में रहने लायक बन गए हो”।
24 जून की शाम जब घर के दरवाजे पर दस्तक हुई और दरवाज़ा खोलने पर सोसायटी के दफ्तर का एक पहचाना हुआ चेहरा हाथ में वह पर्ची थमाकर दस्तख़त करवा ले गया जिसमें पानी के सुबह और शाम 3 घंटे ही आने का ज़िक्र था, तो पहली बार इस शहर में जल के फ़िक्र का अहसास हुआ।
जलोपाख्यानम-2
मुझे नींद बेहद प्यारी है; उस पर सुबह की नींद तो सबसे ज़्यादा। पर 27 जून की रात ठीक से नींद नहीं आई। जल जो जीवन है, अब चिंता का वायस था। कहाँ तो सुबह आठ- साढ़े आठ बजे तक उठती थी, और अब जल था कि नल से नौ बजे तक ही आता! ऐसे में सुबह छह बजे उठने के अतिरिक्त कोई चारा न था। अगले कुछ दिन अनमने तरीके से सुबह उठकर सारा काम निपटाकर दफ़्तर गई। लोग शक्ल पर बारह बजता देख पूछते “हे व्हाट्स अप! आल वेल?”। मैं कहती “मेरा शरीर तो दफ़्तर आ गया, पर आत्मा बिस्तर पर करवटें बदल रही है।” हँसते हुए कुछ लोग कहते “सेम हेयर”। जल जो जीवन है, अब वही नींद पर भारी पड़ने लगा और नींद का पूरा न होना स्वास्थ्य पर।
फिर एक सुबह नल खोलते ही उसमें से काला पानी आने लगा। बाथरूम से लेकर किचन तक; हर जगह काला पानी। यह हमारे लिए सजा-ए-कालापानी ही था। ऐसे में बोतलबंद पानी से ब्रश करने और नहाने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया जा सकता था। हाँ, पीने के पानी से नहाने का ख्याल भर किसी अपराध बोध से मुझे ग्रसित कर रहा था। मुँह में काला जल भरने की हिम्मत तो नहीं हुई, सो ब्रश करने के लिए बोतलबंद पानी का इस्तेमाल किया। स्नान के लिए काले जल से शरीर भिगाने के बाद साबुन लगाकर बोतलबंद पानी से स्नान किया। उस दिन जल मेरे लिए आतंक बन चुका था।
जलोपाख्यानम-3
दफ़्तर जाते हुए सोसायटी के बंगाली गार्ड को बताया कि जल काला आ रहा है। उसने इधर उधर झाँक लेने के बाद कहा “पास के एक ड्रेन से पानी लेकर उसे फिल्टर करके सप्लाई किया है। आपको बता रहा हूँ, किसी को बताईएगा मत”! सुनते ही बीपी लो हो गया। चक्कर सा आ गया। उल्टी करने को जी चाहा! ओसीडी ग्रस्त इंसान को हो भी क्या सकता है ऐसा कुछ सुनकर! मेरी शक्ल देख फ्लैटमेट ने कहा “अरे झील को ड्रेन कह रहा होगा”। दफ़्तर जाकर इस बात का ज़िक्र किया तो एक बिज़नेस एनालिस्ट ने बताया कि टैंकर वाले कई बार सीवर के पानी को फ़िल्टर कर साफ जल में मिला देते हैं। विरोध करने पर फिर साफ जल सप्लाई करने लगते हैं।
प्लान बनाया कि जल संकट बना रहा तो सप्ताह के अंतिम दिन यानी शुक्रवार को शैम्पू, तौलिया आदि लेकर दफ़्तर जाया जाएगा और वहीं शैम्पू कर लिया जाएगा। हमारे घर के स्टॉक में चालीस लीटर पानीय जल बचा था, उसे शैम्पू करने में नष्ट कर देना उचित नहीं लगा। पर दो दिनों के भीतर सोसायटी में ऐसा जल आंदोलन हुआ कि न सिर्फ़ नल से स्वच्छ जल आने लगा बल्कि चौबीस घंटे आने लगा। सोसाइटी से आवश्यकता के अनुरूप जलापूर्ति का वायदा लिया गया।
जलोपाख्यानम-4
सोसायटी के जल समस्या का भले ही समाधान हो चुका था लेकिन मन में जलातंक बराबर बना हुआ था (अब भी है)। इसी पर दफ़्तर की एक सहकर्मी से बात करते हुए जब मैंने उन्हें बताया कि मैं दफ़्तर आकर शैम्पू करने के बारे में विचार कर रही थी तो वे झट से बोल पड़ीं “डोंट यू नो! एम्प्लॉयीज एट प्रिंस इंफोसिटी ब्रांच आर ऑलरेडी डूइंग इट”। उन्होंने यह भी बताया कि अम्मा (जयललिता) ने 2003 में कानून लाया था जिसके तहत बिना रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के किसी भी घर या सोसायटी को सर्टिफिकेट ऑफ कम्पलीशन नहीं मिल सकता। इसलिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम तो 2003 के बाद बने हर घर में है। मैं अवाक थी ऐसा कैसे संभव है कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के रहते शहर जल का अभाव झेल रहा है। इस पर उन्होंने बताया कि वह हाथी के दाँत समान है। कहने का तात्पर्य यह कि सर्टिफिकेट ऑफ कम्पलीशन के लिए लोग यह सिस्टम लगा जरूर लेते हैं पर बात वहीं ख़त्म हो जाती है।
एक अन्य अवसर पर मैं एक केरल वासी और एक तमिलनाडु वासी के साथ थी। कुछ रोज़ पहले ही अखबार में पढ़ा था कि केरल तमिलनाडु को रेल मार्ग से दस लाख लीटर जल देने को तैयार है। मैंने उनसे पूछा कि अगर पड़ोसी तैयार है तो मदद लेने में क्या परेशानी है! इस पर दो जवाब मिले। पहला यह कि “टैंकर माफिया इज़ बैक्ड बाय गवर्नमेंट”। कोई अपना बिजनेस चौपट क्यूँ करे! दूसरा यह कि केरल सरकार ने दिए गए जल के एवज में तमिलनाडु में मुल्लापेरियार बाँध का पानी छोड़ने की माँग रखी थी। यह ख़बर शायद किसी अखबार में नहीं आई। पर इस विवाद से कोई अपरिचित भी नहीं।
…जारी…
सुलोचना टाटा कम्युनिकेशंस में सीनियर प्रोग्राम मैनेजर हैं और इन दिनों चेन्नई में पदस्थ हैं. उनका यह लिखा उनके फेसबुक वॉल से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है. सुलोचना से फेसबुक पर संपर्क करने के आगे लिखे उनके नाम पर क्लिक करें- सु लोचना