अखबार मालिकों ने पत्रकारों को इतना व्यस्त कर दिया है कि उनके पास दूसरी नौकरी तलाशने तक का समय नहीं है। फोर्थ पिलर ने कई छोटे अखबारों का सर्वे किया है, जहां अत्याचार की इंतहा है। कुछ बड़े धनपशु चोला बदलकर अखबारबाजी के क्षेत्र में उतर रहे हैं। इन्हें पहचानना थोड़ा कठिन होगा। इनका अखबार तो इतना छोटा होता है कि वहां वेज बोर्ड की बात करना भी बेमानी ही होगी, लेकिन शोषण की कहानी बड़े अखबारों से भी बदतर है।
वहां पत्रकारों के लिए सुविधा नाम की कोई चीज नहीं है। सैलरी सुनकर आप दंग रह जाएंगे। न कोई ईएल और न ही सीएल। नई पीढ़ी के पत्रकारों को वहां बैल की तरह खटाया जा रहा है। बदसलूकी ऐसी कि दिल दहल जाए। मरता क्या न करता। बड़े अखबारों से निकाले गए पत्रकार वहां खटने को मजबूर हैं और उन्हें खटा रहे हैं, उन्हीं बड़े अखबारों से निकाले गए बिचौलिये।
पत्रकार भाइयों को सतर्क कर देना जरूरी है। अखबार में पत्रकारिता के क्षेत्र में नौकरी का विज्ञापन देख कर आप कोई सपना कभी न देखें। पहले अखबार मालिक और उसकी प्रोफाइल की पूरी जांच कर लें, तभी उस नौकरी के शिकंजे में आएं। कई नेताओं और कई प्रदेशों की सरकारों ने अपनी ब्रांडिंग करने के लिए ऐसे धनपशुओं को चारा डालना शुरू कर दिया है। ऐसे छोटे-छोटे अखबारों का पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है। वे तो पत्रकारों के शोषण के लघु संस्करण मात्र हैं। वे सरकारों से माल बना कर खिसक जाने वाले हैं।
पत्रकारों के लिए यही सुझाव है कि जीवन-यापन के लिए वैकल्पिक आर्थिक स्रोत विकसित करें, ठीक वैसे ही जैसे धन पशुओं के लिए अखबार दिखाने को होते हैं पर उनका असली धंधा कुछ और होता है। पत्रकारों को चाहिए कि एक-दूसरे से मिले-जुले और नष्ट हो रही पत्रकारिता को बचाने का उपाय तलाशें। यह तभी संभव होगा, जब वे वैकल्पिक आर्थिक स्रोत विकसित कर लेंगे। जीवन चलाने के लिए ऐसे बहुत से उद्यम हैं, जो पत्रकारों को आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बना सकते हैं। इस कार्य में आप इंटरनेट की मदद ले सकते हैं। जब तक पत्रकार आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होंगे, तब तक उन्हें किसी न किसी धनपशु के चक्कर में फंसना ही पड़ेगा। अब समय आ गया है कि हम पत्रकारिता को धनपशुओं के चंगुल से आजाद करा कर उसे उन्मुक्त करें।
‘फोर्थ पिलर’ एफबी वाल से